Wednesday, January 23, 2013

माकेदातु

यह एक खूबसूरत सुबह थी। सूरज पूरी तरह से जमीन को अपने आगोश में लेता उस से पहले ही हम बैंगलोर शहर से बाहर निकल चुके थे। हलके हलके सफ़ेद बादल रुई के ढेर से इधर उधर उड़ रहे थे। उनके कोने सूर्य रश्मियों के स्पर्श के साथ चमक रहे थे। बड़े नीले आसमानी  मैदान  में कुलांचे भरते हुए उन्मुक्त बादल। बादलों के बीच कही मैं भी, मंजिल से अंजान सफ़र का आनन्द लेता रहा।

मेकेदातु।  बहुत सारे लोगों से पूछने के बाद कि बंगलोर के पास कौन सी जगह देखने लायक है। मैंने मेकेदातु को चुना था। पता केवल इतना चल पाया कि  कावेरी नदी  पर एक जल प्रपात है। कनकपुर की तरफ। एक टैक्सी ली, सुबह साढ़े 6 बजे बंगलौर से निकले ड्राइवर ने बताया की लगभग 100 किलोमीटर जाना है।
पहले कभी गये हो?
एक बार सर। कई साल पहले।
कैसी जगह है?
पता नही?
क्यों?
गाडी पहले ही रोकनी पड़ती है फिर नदी पार कर के उस पार जाना होता है झरना देखने के लिए। 

मेरी ड्राइवर के साथ यह पहली बातचीत थी। लेकिन उसके आख़िरी जवाब ने मेरा रोमांच और बढ़ा  दिया था। अकेले जाने से कई लोगों ने मना किया था क्योंकि जगह अनजान सी थी और हिंदी बोलने वाले भी कम लोग ही मिलते हैं। लेकिन एक नए स्थान को देखने का लोभ मुझे हमेशा आगे बढ़ने को प्रेरित करता रहा है। आज भी यही हुआ। 
बंगलोर शहर से बहार निकल कर मटमैले, हरे, पीले खेत दिखने लगे। खेतों में काम करते हुए लोग। छोटे छोटे गाँव। सड़कों पर आवाजाही बढ़ चुकी थी। मैं उस भारत को देख रहा था जो वास्तविक भारत है। एक सुकून देने वाली शांति से भरा पूरा माहौल। भारत के किसी भी कोने में चले जाओ, यह शांति अच्छी ही लगती थी।

रस्ते में एक कस्बे  ने हमने कोंफी पी, साथ में कुछ नमकीन भी। एक स्थानीय स्वाद। शानदार। 
रास्ते में धूप  तेज हो रही थी और हवा सुहानी। नारियल के पेड़ साथ साथ चल रहे थे। मैं कब सोया पता ही नहीं चला।
आँख खुली तो गाड़ी एक नाके पर खड़ी थी। ड्राइवर ने थोडा आगे जाकर गाड़ी खड़ी  कर दी। बोला कि आगे आपको पैदल जाना होगा। मैं हतप्रभ सा था। समझ में नही आया क्या करू। कंधे पर बैग डाला और चल पड़ा। 
कोई आधा फर्लांग चलने के बाद एक सरकारी रेस्ट हाउस था। उसके एक चौकीदार ने टूटी फूटी हिंदी में पहले बताने की कोशिश की और जब मेरी समझ में नहीं आया तो इशारा करके समझाया। पहले से ही ड्राइवर ने मुझे बताया था की नदी पार करके जाना पड़ेगा।

रेस्ट हाउस से पीछे की तरफ निकल देखा तो मैं कुछ देर सम्मोहन में खड़ा रहा। कावेरी और अर्कावती नदी का संगम। शांत जलराशि। कावेरी नीलापन लिए और अरकावती एक सदा सा पनियालापन लिए हुए। पत्थरों से टकराती लहरें। मानो अस्तित्व की लड़ाई चल रही हो। एक द्वन्द बहने और रुकने के दर्शन के बीच। 
 मैं खुश था कि बरमूडा पहन कर आया था। जूते उतर कर हाथ में लिए और अरकावती में उतर गया। दो धराये बह रही थी। पहली में घुटनों से ऊपर तक पानी और दूरी में उस से कुछ ज्यादा। उस पार एक बस खड़ी दिखी। नीचे फिसलने वाले पत्थर। संभलते हुए उस पार पहुंचा। सामने जंगल था। वही एक बड़ी बस कड़ी थी। पुरानी सी। ड्राइवर ने कहा की साढ़े 10 बजे चलेंगे। शायद तब तक कोई और भी आ जाए।

अगर कोई और नही आया तो?
अकेले आपको लेकर चलूँगा।
अकेले??? मैं इतनी बड़ी बस में।
कितनी दूर जाना है?
चार किलोमीटर।
कई बार अकेलापन आपको कचोटता नही है बल्कि आपको हिम्मत देता है। मैं सुबह जिस रोमांच की आशा के साथ साथ निकला था यह  उसका चरम था। की एक बड़े जलप्रपात को देखने मैं बिकुल अकेले जाने वाला था। बिलकुल अकेले। जिस जगह के बारे में मैं बस इतना और जानता था कि वहां बहुत कम लोग जाते हैं।


मैं बस के चलने तक कुछ फोटो खींचता रहा। और निगाहें नदी के उस पार उस रेस्ट हाउस की तरफ थी कि शायद कोई और आ जाये। लेकिन नदी अपनी गति से बहती रही उसे किसी ने परेशां नही किया।
ठीक साढे  10 बजे बस का भोंपू बजा। मेरा ध्यान उस तरफ गया तो ड्राइवर इशारे से बुला रहा था। मैं वहां पहुंचा बस में चढ़ा तो पूरी बस खाली थी। मैं ड्राइवर के बगल में जा बैठा। 

ऊंचा नीचा रास्ता , जंगल के बीच से और ड्राइवर बिना किसी परवाह के तेज रफ़्तार से मंजिल की ओर  बढ़ 
चला।
कहीं कहीं पर कावेरी का विस्तार दीखता है। लेकिन थोड़ी देर बाद कावेरी नहीं दिखती बल्कि केवल चट्टानें दिखती हैं। हम उपर चढ़ते जा रहे थे। काफी मुश्किल रास्ता था। चट्टानें बढती जा रही थी। आगे कुछ नहीं दीखता। 
अचानक तेज ब्रेक। 
मैं नीचे उतरा। वहां से कुछ नहीं दीखता। ड्राइवर ने इशारे से बताया - नीचे उतर जाओ। मुझे अभी भी कावेरी नहीं दिखी थी। मैं संभल कर नीचे उतर गया, कोई 100 फीट नीचे उतरने के बाद चट्टानों के बीच से रास्ता दिखा। मैं एक पल के लिए ठिठका। फिर चल पड़ा। 
मैंने मुश्किल से पचास कदम चला था की मैने पानी की आवाज सुनी। मेरे कदम तेज हो गए। थोडा आगे जाकर मैं एक बड़ी चट्टान पर चढ़ गया। उस चट्टान से आखिरी छोर से नीचे देखा। कावेरी लगभग 100 फुट नीचे चट्टानों के बीच बह रही थी। यहाँ कावेरी का विस्तार 10 मीटर से ज्याद नहीं है। 

मैं एक पल सहम गया। नीचे दोबारा देखने की हिम्मत नही थी। मैं समझ नही पाया की मेरी सांसो की गति ज्यादा तेज़ थी या कावेरी का वेग ज्यादा था। लेकिन जल प्रपात कहाँ है? नही दिखा। किस से पूछूं? पंछी तक नहीं था। 
मैंने उपर बस की तरफ देखा, चट्टानों के अलावा कुछ नही दिखा। मानों मैं चट्टानों के नगर के बीच दम साधे खड़ा था। चट्टानों की तरह तटस्थ और अचल। समझ में नहीं आया कि क्या करून। झरना तो देखना है। पर है कहाँ?

एक पल को लगा कि  अकेले आने का निर्णय गलत था शायद। मैंने बायीं तरफ जाकर नीचे देखने का निर्णय लिया। मैं चट्टान पर चढ़ा और ज्यों ही दाहिनी तरफ चला, पैर अचानक ठिठक गए। ये क्या है? कुआं?
पूरी चट्टान में किसी ने खोद कर कुआं  बनाया हो जैसे। मैं प्रक्रति के इस अजूबे को देखकर हैरान था। मैं नीचे कावेरी को बहते देख रहा था। 

मैं वापस लौट पड़ा। मुझे प्रपात नही देखना। बस वापस जाना है।
मैं वापस मुडा  ही था कि  किसी के पैरों की आवाज़। कोई भरम।। नहीं कोई सच में था। मेरी ही तरफ आता हुआ। एक नहीं दो। मेरी बस का ड्राइवर भी साथ में था। 
उसके साथ कोई और था। अधेड़ उम्र। मेरे पास आकर हाथ मिलाया। अपना परिचय दिया। सरकारी मास्टर। पास के गाँव के  वाले और उसी गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाते हैं। धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल रहे थे। मैंने अपना नाम बताया और बताया कि मैं दिल्ली से आया हूँ। 
उन्होंने एक अपेक्षित सा सवाल पुछा - यहाँ कैसे? मैंने कुछ नही बोल पाया क्योंकि मेरे पास कोई वाजिब जवाब नही था। इतना कहना काफी नही था कि  मैं बस जिज्ञासावश चला आया। मैं बस मुस्कुरा दिया।
मैंने वही सवाल उनसे पूछा - वो भी मुस्कुरा दिया। 
मैंने  उनसे कहा  की मुझे प्रपात देखना है जो नहीं दिखा। हम वापस  उस बड़ी चट्टान पर गये। जहाँ मैं पहले गया था। नीचे झुककर बाई तरफ देखा।  एक बार फिर से मेरी सांसे थम गयी, अथाह जलराशि एक साथ नीचे गिर रही थी। मुह से "आह" निकला। मैं उस दृश्य को आँखों में हमेशा के लिए बंद कर लेना चाहता था। काश यह हो पाता।

मैं बहुत शांत था। पीछे आकर हम वहीँ बैठ गए। उनहोंने अपने थैले से मूडी ( हम उत्तर भारत में उसे परवल कहते हैं ) निकाली। मुझे भी दी। 
उस के बाद उन्होंने जो भी बताया वो मेरे लिए एक प्रेरणा से कम नही था।
बचपन में पिताजी के साथ यहाँ पहली बार आया था। उसके बाद तो अपनी तीन गायों को लेकर मैं अक्सर इस तरफ आ जाता। घंटों यहाँ बैठा रहता। बड़े होने पर भी यहाँ आना नहीं छूटा। शादी के बाद अक्सर अपनी पत्नी के साथ यहाँ आता था। दो साल पहले वो नहीं रही। तो भी यहाँ आना नहीं छूटता। यहाँ का एक एक पत्थर मुझे जनता है जैसे। मुझसे बतियाता है। पता नही क्यों मुझे कावेरी की इस आवाज से कोई लगाव सा हो गया। यहाँ बैठता हूँ तो लगता है जैसे पानी के शोर से भी कोई धुन उठती हो। वो धुन मेरे भीतर बजती है।

मैं उन्हें अपलक देख रहा था। जो जगह  मुझे पहले डरावनी और बियाबान लगी थी। वो जगह किसी के लिए इतनी खूबसूरत भी हो सकती है। मैं भी वहां उनके साथ तब तक रहा जब तक तीसरी बार ड्राइवर ने आकर यहाँ नही कहा की अब चलना ही होगा। तब तक उन्होंने मुझे वहां की एक एक जगह को अच्छे से दिखाया उन्होंने बताया की मेकेदातु का अर्थ है बकरी की छलांग। एक पौराणिक कथा भी सुनाई  - जो मुझे पूरी समझ में नहीं आई। लेकिन मैं देख रहा था कि उस स्थान के लिए इस व्यक्ति के मन में कितनी  तन्मयता  और कितनी श्रधा है।
मैं उपर वापस आ गया। बस तैयार खड़ी थी। मैंने नीचे देखा तो चट्टानों के नगर मनो उपर उठ रहा था। बस वापस लौट चली। 
मैं अरकावती और कावेरी के संगम पर  बहुत देर तक बैठा रहा। वो स्थान मानो मेरे सामने खड़ा था। मेकेदातु के उस प्रवाह को मैं अब भी महसूस कर सकतअ हूँ

19 comments:

  1. मैं तो आपको पहले नजर में ही जन गया था की आप में कुछ बात है ,बढ़िया संस्मरण है ये

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  2. A nice snippet of travel portrayed.

    ~AMS

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  3. Really a grt one...
    The beauty of place could be felt through ur words.

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  4. भाग्यशाली है माकेदातु जिसे तुम्हारे जैसा कद्रदान मिला वरना तो वो सदियों से वहीँ का वहीँ है। सुन्दर वर्णन।

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    1. vijay bhaiyya main bhi bhagyshali hu aapke jaisa kadradaan mila..

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  5. again...a beautiful description of your experience and i was enjoying the adventure of that place through your story....that's the magic that you have in your writing..
    superb bhaiya.... :)

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  6. really terrific... for a moment i feel dat m there. I just can feel ur writing :) :)

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  7. But bhaiya aap so gaye na itni pyari jagah koi sota hai bhala.... ufff

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    1. main Raste me hi soya tha priya - waha jakar nhi soya tha.

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  8. Vijay bhaia se poori tarah sehmat...
    Bht sundar... :)

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  9. Nice one Rahul!! I liked how you've covered even smallest of the details. (Ghutne tak paani, fislan se bhare pathar.. etc)

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  10. Very gud writing neil ji.....Its like living in the NaTUrE.Just love it.

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  11. जिस सफ़र की मंजिल का न पता हो वो सफ़र उस मंजिल से ज्यादा खूबसूरत होता हो जिसकी मंजिल जानी पहचानी हो। फिर चाहे वो मंजिल मिले या न मिले वो सफ़र जरुर एक यादगार सफ़र बन जाता है और आपको तो आखिरकार वो मंजिल भी मिल ही गई जिसे आप आँखों में तो हमेशा क लिए नही बंद कर पाए पर एक ऐसी याद जरुर बन गई जिसे आपने सबको सिर्फ बताया ही नहीं वरन इसे पढ़कर ऐसा लगा जैसे हम माकेदातु की उन्ही घाटियों में घूम कर आए हों...।।
    Beautiful description bhaiya.....:)

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  12. बहुत सुंदर यात्रा वृतांत ...

    साधुवाद.

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  13. सुन्दर..बहूत खूब...अद्भुत.

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