Thursday, March 24, 2022

 




वागड की होली

भारत का लोक उसकी सबसे बड़ी बड़ी शक्ति है l सबसे बड़ी ताकत है l ऐसी ही है हमारी लोक संस्कृति, ऐसी ही हैं हमारी लोक परम्पराएँ  l जो अनंत काल से हमारी संस्कृति की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति हैं, सबसे पवित्र वाहक हैं l समाज में जो कुछ भी घटता है लोक ने उसके सकारात्मक पक्ष को ग्रहण किया और एक लम्बे चिंतन से उपजी अपनी सोच  में उसे ढालकर, समाज को वापस लौटा दिया – कभी गीत बनकर, कभी कोई लोक परम्परा बनकर, कभी किसी कहावत, किसी लोककथा के रूप में, तो कभी लोक मंचन, लोक नाट्य, लोक नृत्य के रूप में l लोक स्वीकार्यता है एक चिंतन की एक परम्परा के अनुशीलन की, जिसमें जीवन की शिक्षा है, समझ है, रस है, सरोकार है l इस्न्मे शास्त्रीयता का कोई बंधन नहीं l मन की उन्मुक्त उड़ान है l

मैं हमेशा कहता रहा हूँ क़ि भारत के वास्तविक स्वरूप को समझना है तो भारत के गाँव ही उसका श्रेष्ठ माध्यम हैं। जहाँ अभी तक तथाकथित विकास जीवनशैली में बनावट के रूप में नहीं घुसा है। भारत की लोक संस्कृति इसकी प्राण वायु है l अपनी इसी प्राणवायु को आधुनिकता के साथ कदम से कदम मिलाकर चलाने की अत्यंत आवश्यकता है l आवश्यकता है कि लोक के परम्परागत गुणों को आज के साथ समन्वित करते हुए आगे ले चला जाए –

कल दोपहर बाद राजस्थान के डूंगरपुर जिले सागवाड़ा तहसील के छोटे से गांव बर्बोदनिया पहुंचे हैं।  राजस्थान के इस क्षेत्र को वागड़ खा जाता है l  एक मित्र के घर। छोटा सा साफ सुथरा गांव। माही नदी की सहायक नदी मोरान के किनारे, थोड़ी ऊंचाई पर बसा है गांव।

चारों तरफ़  गेंहू और मक्का के खेत, मटमैले और हरे लैंडस्केप्स।

गांव में घुसते ही एक बड़ा सा मंदिर मानो पवित्रता के साथ स्वागत करता है। पक्की सड़कें, सफाई ऐसी कि लुटियन दिल्ली की सफाई को टक्कर दे दें। लोग आम तौर पर नंगे पैर घुमते दिख जाते है।

साफ दिल और खुश मिज़ाज़ लोग। जो जानते हैं कि हमारी परम्पराओं में मेहमाननवाज़ी के मायने क्या होते हैं। यह एक आदिवासी क्षेत्र है, लेकिन गांव अपनी जरूरत के हिसाब से तैयार दीखता है।

कल रात सुन्दर कांड का पाठ हुआ। पूरा गांव एक परिवार सा ही दीखता है। अपनी परम्पराओं, रीति रिवाजों के लिए मानो अपनी सीमाओं और दायरों से बाहर जानबूझ कर निकलना नहीं चाहता गांव। और यह गर्व ही गांव को इस देश की संस्कृति का आधार बनाये रखता है।

आने से पहले मैंने सोचा भी नहीं था कि अगले तीन दिन भारत कि उत्सवधर्मिता के नए दर्शन से मुझे रूबरू करवा देगा, होली का एक अलग ही अंदाज, समाज जीवन और सहभागिता की गढ़ती हुई नई परिभ्षाएं ...

गाँव के एक युवक ने बताया कि होली के एक सप्ताह पूर्व ही गाँव भर कि सफाई शुरू हो जाती है l सामूहिक स्थानों कि सफाई गाँव भर के लोग मिलकर करते  हैं l होलिका दहन का स्थान हमेशा से नियत रहा है l हर साल मान्यता के अनुसार पानी की भरी मटकी को उसी स्थान पर रख कर होलिका की तैयारी की जाती हैं। और अगले साल उस मटकी को निकाला और बदला भी जाता हैं। (मान्यता है कि अगर मटकी में नमी बनी रहती हैं तो अगला साल अच्छा रहने वाला है ....  

होली जलाने से पहले गांव की स्त्रियां होली की पूजा अर्चना करती हैं।पूजा मैं कुमकुम,चावल,गुड,दही, गेहूं की उबी,आम का मोड़,आदि वस्तुओ से पूजा करती हैं।

गाँव की होली का दहन कौन करेगा, इसकी भी विधि बहुत अनोखी लगी, गाँव से लगभग दो कोस दूर एक मंदिर से गाँव के युवा मशाल लेकर दौड़ लगाते हैं, ये मशालें मंदिर पर प्रज्ज्वलित की गयी नई अग्नि से जलाई जाती हैं l

जो युवा सबसे पहले मशाल लेकर होलिका तक पहुँचता है, उसे ही पुरोहित के साथ  होलिका दहन का अवसर मिलता है, युवाओं के लिए यह अवसर  प्रतिष्ठा का प्रतीक है l

 

होली के अवसर कि एक और परम्परा ने मेरा मन मोह लिया l पिछली होली से इस होली तक  जिस जिस व्यक्ति की पहली संतान होती हैं तब वह अपनी बहन,बेटी, बुआ आ को बुला कर घर पर पारम्परिक कार्यक्रम करते है। सामाजिक स्नेह भोज की भी परंपरा होती हैं। व्यक्तिगत कार्यकमों के बाद बारी आती है, सामूहिक कार्यक्रम की,

बहन और बुआ के बच्चो के कपड़े,सोने ,चांदी का गिफ्ट  देते है।और भाई अपनी बहिनों के सुंदर वस्त्र आभूषण  देते है। पहला बच्चा अपनी बुआ का ही दिये हुए पहना कर ही अपनी होली पूजन पर ले जाया जाता है, जहाँ  होली चौक बना होता है। होली चौक पर जाने से पहले बच्चे के माँ, पिताजी  काकी पूरे गांव में बुलाने जाती है की चलो होली मानने चलो होली मानने के लिए।

वहां की क्षेत्रीय भाषा में सज धज कर गाँव भर में फेरा मारते हैं और कहते हैं –

हेडो होरी सोक

हेडो होरी सोक

हेडो होरी सोक

(इसका अर्थ है – होली चौक पर पहुँचो )

फिर सभी लोग होली चौक पर जाकर होली की पूजा करते है और पहली संतान वाली दंपत्ति जोड़ा आपने बच्चे के साथ पूजा करता है फिर बच्चे के साथ माता पिता  और के साथ बच्चे का चाचा बच्चे को लेकर होली के चारो तरफ पांच बार परिक्रमा करते हैं।

परिक्रमा करते समय सबसे आगे बच्चे को पकड़ कर उसका चाचा व पिताजी नारियल और मां के हाथ में पांच मीठी पुड़िया और पानी का लोटा लेकर परिक्रमा करते है। परिक्रमा करते समय पानी का होली पर डालते हुए चलते हैं। बाद में नारियल व मीठी पुड़ी को होली में चढ़ाया जाता है।

इसके बाद शुरू होता है इस शाम का सबसे आनंददायी कार्यक्रम l

पूरे गांव के पुरुष गेर नृत्य का आनंद उठाते हैं। मैं पहली बार इस नृत्य को देख रहा था, जिस ताल, लय और चपलता के साथ ये लोग नाच रहे थे, लगता है जैसे कितने प्रशिक्षित हैं, लेकिन सच तो ये है कि कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं, बस पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे ही – यही है वास्तविक गुरु शिष्य परम्परा ...

मैंने वहीँ इस नृत्य के बारे में और जाना -  

गेर नृत्य भारत में राजस्थान का पारम्परिक प्रसिद्ध और सुन्दर लोक नृत्य है। यह नृत्य प्रमुखतः भील मीणा आदिवासियों द्वारा किया जाता है,यह खास तौर पर भील प्रदेश यानी प्रतापगढ़,बासवाड़ा और डुगंरपुर में ज्यादा किया जाता है परन्तु पूरे राजस्थान में पाया जाता है राजस्थान में बाडमेर के कनाना व लखेटा की प्रसिद्ध है।

गेर नृत्य को गेर घालना, गेर घुमाना ,गेर खेलना ,गेर नाचना के नाम से भी जाना जाता है। हालांकि यह नृत्य सभी समुदायों में प्रचलित हैं लेकिन मेवाड़ एवं मारवाड़ में अधिक प्रसिद्ध है। इसे मारवाड़ में डांडिया गेर के नाम से व शेखावाटी में गिंदङ के नाम जाना जाता है। इस नृत्य की उत्पति भीलों के एक नृत्य से हुई है। यह नृत्य परमुखतः जन्माष्टमी एवं होली के महीने में किया जता है।

आमतौर पर, नर्तक अपने हाथ में खाण्डा (लकड़ी की छड़ी) के साथ एक बड़े वृत्त में नाचते हैं। यह नृत्य पुरुषों और महिलाओं दोनों द्वारा किया जाता है कि इस मनभावन नृत्य करने के कई रूप हैं। पुरुष पट्टेदार अंगरखे एवं पूर्ण लंबाई की स्कर्ट पहनते हैं। पुरुष और महिलायें दोनों पारंपरिक पोशाक में एक साथ नृत्य करते हैं। नृत्य के प्रारंभ में, प्रतिभागियों के द्वारा एक बड़े चक्र के रूप में पुरुष घेरा बनाते हैं। इसके अन्दर एक छोटा घेरा महिलायें बनाती हैं और वाद्ययंत्रों एवं संगीत की ताल के साथ घड़ी की विरोधी दिशा में पूरा घूमते हैं व खाण्डा टकराते हैं। इसके बाद फिर घड़ी की दिशा में पूरा घूमते हैं और खाण्डा आपस में टकराते हैं। आन्तरिक व बाहरी घेरे को बीच में बदलते भी रहते हैं। कभी कभी, पुरुषों द्वारा यह लोक नृत्य विशेष रूप से किया जाता है। क्षमता और दक्षता के आधार पर आधा घुमना नृत्य का एक सरल तरीका है। यह जटिल नृत्य कदम की एक श्रृंखला के साथ नृत्य किया जाता है। भीलों द्वारा यह लोक नृत्य रंगीन कपड़े पहनकर और तलवारें, तीर और लाठी के साथ किया जाता है। इस नृत्य में प्रयुक्त खाण्डा (छड़ी, लाठी) गुंडी पेड़ से काटकर और सफाई की प्रक्रिया से बनायीं जाती है। कुछ स्थानों पर लाठी तो कहीं कहीं कुछ स्थानों में एक हाथ में नग्न तलवार व दूसरे हाथ में खाण्डा (छड़ी) का प्रयोग इस नृत्य में किया जाता है।

महिलाएं भी गली गीत गाती हुई गुम्मर खेलती हैं। गीत वागड़ी भाषा मे होता है। भारत के विभिन्न स्थानों पर गारी गीतों की परम्परा है, यहाँ भी महिलाएं गारी गीत के साथ नृत्य करती है l

होलिका दहन के बाद ढोल ताशों के साथ ये दल उन सभी घरों में जाते हैं जहाँ पहली संतान हुई है, वहां जाकर उन बालकों के लिए मंगल गीत गाये जाते हैं l घरों में औरते एक दिन पहले पकवान बनाकर रखती है और आपने आस पास में बांटती है । सबके घरों से चंदा इकठ्ठा करके उसको सामुहिक विकास मे लगाया जाता हैं।

यहाँ की परंपरागत संस्कृति के संरक्षण को बनाए रखने के लिए गांव के चौराहे पर इकट्ठा होना और जिसके घर पहली संतान हुई होती हैं वो शुद्ध देसी घी की पापडी बना कर सारे गांव वालों को खिला कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है।

सच कहों तो मैं रोमांचित था, अभी तक हूँ, पूरा गाँव एक परिवार की  तरह त्यौहार केवल मनाता नहीं है, जीता है, एक दुसरे के लिए हाथ पकड़कर मंगल कामना करता है, नौकरी भाहर कहीं भी करता हो कोई, होली पर घर आता है, सबके साथ गेर खेलता है , अपनी परपराओं के लिए यस आग्रह बहुत सुखद है l 

 

Thursday, December 19, 2019


पत्थर हमेशा सच बोलते हैं l  जो पत्थरों पर लिखा गया वह सच है, पत्थरों के नीचे जो सदियों की कहानियां, किस्से, दास्तानें दबी है वे सब सच है l उतनी ही सच जितना पत्थरों से रिसता हुआ पानी सच है l  



लंबे अरसे से बस सुनता आया था कि बेतवा के किनारे चंदेरी के पत्थरों के नीचे न जाने कितनी कहानियां दबी पड़ी है, कुछ कहानियाँ रिस रही हैं, कुछ बह रही हैं,  कुछ पत्थरों पर लिखी हैं और कुछ कहानियां वहां के पत्थर खुद बयां करते हैं l
एक ऐसा शहर है जिसने स्वयं को सँवारने में सदियां लगा दी l  एक ऐसा शहर है जो ना जाने कितनी राजसत्ताओं, सूफी संतो और कलाकारों की साधना का प्रतिफल बनकर खड़ा है l एक ऐसा शहर जिसने बुंदेलखंड की तपती जमीन में खड़े रहकर अपने अस्तित्व को हर दिन निखारा है l एक ऐसा शहर जिसने विंध्याचल की तलहटी में ऊपर उठकर एक ऊंचाई प्राप्त की है l  एक ऐसा शहर जिसने जौहर की तपती ज्वालाओं को देखा है l  एक ऐसा शहर जिसमें आत्मसम्मान के लिए अपने पुत्रों का बलिदान होते देखा है l  एक ऐसा शहर जिसने वास्तुकला के नए प्रतिमान स्थापित किए हैं l एक ऐसा शहर जो ना जाने कितनी रातों में बैजू बावरा के संगीत को सुनते सुनते सोया है और तलवारों की खनक सुनकर जागा है l एक ऐसा शहर जो जिसके करघों से उठती खट खट की आवाज की गूँज आज पूरी दुनिया में सुनाई पड़ती है l
मैं उन्ही पत्थरों के बीच पहुंचा कि उनसे बतिया सकूंगा l ललितपुर से चंदेरी कुछ 20 मील दूर पड़ता है l उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा पर l बुंदेलखंड की झलक आपको  चारों और दिखती है l रास्ते में बेतवा मिलती है जो कहती है कि तुमने चंदेरी के बारे में जो भी सुना है वह तो बहुत थोडा है l मैंने तो इस शहर के अस्तित्व को पल पल जिया है l मेरे प्रवाह और चंदेरी के उत्थान, पतन, संवर्धन, संघर्ष की कहानी बिलकुल एक जैसी है l अविरल और पवित्र l
एक किंवदंती है कि चंदेरी के शहर को भगवान कृष्ण के चचेरे भाई, राजा शिशुपाल द्वारा बसाया गया था। एक और अन्य किवदंती के अनुसार इसकी स्थापना को राजा चेद से जोड़ा जाता हैं, जो इस क्षेत्र पर 600 ई.पू. के आसपास शासन करता था । गुर्जर-प्रारतिहार वंश के राजा कृतिपाल ने पुरानी चंदेरी (बूढ़ी चंदेरी) से अपनी राजधानी को सन् 1100 ई. के आसपास वर्तमान चंदेरी स्थानांतरित किया। ऐसा माना जाता है कि कृतिपाल का कुष्ठ रोग एक झरने के पानी द्वारा ठीक हो गया थे l जहाँ वह एक शिकार अभियान के दौरान गया था। वही झरना परमेश्वर तालाब का स्रोत कहा जाता है। जो चंदेरी में अभी भी अवस्थित है l
दूर ऊंची वाली पहाड़ी पर कीर्ति दुर्ग के पास ही पहाडी पर स्थित  मंदिर में पहाड़ी के बीच से होकर जानेवाली एक लंबी सीढ़ियों की चढान के द्वारा पहाड के तल से पहुँचा जाता है। मंदिर में जाने का एक अन्य रास्ता सीढ़ियों की खड़ी चढा़ई सा है जो कीर्ति दुर्ग किले के पास से नीचे आता है। इस मंदिर मंदिर की मुख्य मूर्ति जागेश्वरी देवी की है जो कि एक छोटी गुफा में स्थित है। आधुनिक मंदिर गुफा के आसपास बनाया गया है ताकि उन भक्तों को जो दर्शन और पूजा के लिए आते हैं उनको समायोजित किया जा सके। इसके अलावा मंदिर परिसर के भीतर दो बड़े शिवलिंग हैं जिनकी पूरी सतह पर 1100 नक्काशीदार शिवलिंग शोभित कर रहे हैं। एक अन्य शिवलिंग पर भगवान शिव का चेहरा सभी चार दिशाओं में उकेरा हुआ है।
यह आस्था का एक प्रभावी केंद्र हैं, मन में असीम आस्था लिए लोग चले आते हैं कि उन्हें मनचाहा क्यों न मिलेगा l इसी आस्था और विश्वास के कारण ही तो यह संसार खड़ा है, इसी आस्था की धुरी पर ही तो चंदेरी जैसे शहर शताब्दियों तक मस्तक उठाये गर्व से खड़े रहते हैं l
नानौन चंदेरी के दूरदराज के इलाकों के एक गांव, नानौन  में ४०००० साल पुराने शैल चित्रों का पाया जाना स्वयं में चंदेरी की प्राचीन और समृद्ध विरासत की कहानी कहते हैं l बेहती गाँव में, जो कि चंदेरी से 20 किलोमीटर दक्षिण पूर्व स्थित है वहां एक महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर गुप्तकालीन हिंदू मंदिर का पाया जाना जो यह दर्शाता है कि यह गुप्त काल में एक मुख्य मार्ग रहा होगा l आठवीं से दसवीं शताब्दी ई में गुर्जर–प्रतिहार समाज के अनेक प्रतीक राज बूढ़ी चंदेरी में आज भी स्वाभिमान के साथ खड़े हैं l अगर आप प्राचीन स्मारकों और प्रतीकों में सुन्दरता निहार सकते हैं,  तो बूढी चंदेरी से बेहतर स्थान आपके लिए नहीं हो सकता l 
बूढी चंदेरी की किसी ईमारत से इस क्षेत्र की कहानी सुनिए - गर्व, अभिमान, दुःख, क्षोभ और स्वाभिमान की ऐसी बेजोड़ कहानी आपको सुनने को मिलेगी, जो केवल बूढी चंदेरी की आँखों में ही देखी जा सकती है l यह एक लम्बा सफ़र था, कितनी ही शताब्दियों के संघर्ष, हर्ष और विमर्श का साक्षी रहा है  यहाँ नगर -
11 वीं शताब्दी ई. के अंतिम साल – गुर्जर–प्रतिहार राज का पतन हुआ और चंदेरी पर कच्छवों का कब्जा हो गया l तेहरवींवीं शताब्दी में शमशुद्दीन अलतमस और घियासुद्दीन बलबन ने सन् 1251 ई. में चंदेरी पर हमला किया और कच्छव राजा देवा को हराकर चंदेरी को दिल्ली सल्तनत में शामिल कर लिया। चौदहवीं सदी में दिलावर खान गोरी, चंदेरी के राज्यपाल ने दिल्ली सल्तनत से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। उन्होंने सन् तेरह सौ बानवे में मालवा सल्तनत की स्थापना की l
सोलहवीं सदी ई. की शुरूआत में राणा सांगा ने चंदेरी पर कब्जा कर लिया और चंदेरी के शासक के रूप में अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी मेदिनी राय को बिठाया। लेकिन उसके बाद पंद्रह सौ अट्ठाईस में बाबर ने चंदेरी किले पर कब्जा किया और चंदेरी पर मुग़लों का नियंत्रण स्थापित किया। हमले से पहले मेदिनी राय और उनके सैनिकों ने सामुहिक आत्महत्या कर ली और महिलाओं ने जौहर स्वीकार कर लिया। यह कीर्तिदुर्ग सब देख रहा था, उसके सीने में जौहर की वह आग और तपिश आज भी महसूस की जा सकती है l
सन् सोलह सौ पांच में जहांगीर ने मुगल साम्राज्य की ओर से चंदेरी क्षेत्र का शासन राम शाह बुंदेला के हाथ में सौंप दिया। उसके बाद एक लम्बे अरसे तक बुंदेलों ने ने चंदेरी पर राज किया l सन् 1844 में कुंवर मर्दन सिंह, चंदेरी के अंतिम बुंदेला राजा ने चंदेरी को सिंधिया के अधिकार से छीन कर वहाँ बुंदेला शासन को पुनर्स्थापित किया। सन् में  कुंवर मर्दन सिंह झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिल गया और सन् 1857 ई. के विद्रोह में हिस्सा लिया था। सन् 1858 में ह्यूग रोज के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने चंदेरी किले पर कब्जा किया और उसे सिंधिया को लौटा दिया, जिससे कि दो सौ पचास साल के बुंदेला शासन के अंत हो गया। सन् 1947 में  ग्वालियर का राज, जिसमें चंदेरी भी शामिल था को नवगठित राज्य मध्य भारत में शामिल कर लिया गया ।
चंदेरी शहर में आप जिधर जाइए आपको अलग अलग कालखंडों के अवशेष बिखरे हुए मिलेंगे l जैसे किसी ने खजाने का एक थाल शहर भर में बिखेर दिया हो l पुराणी हवेलियों और इमारतों के सीने में किसी कहानियाँ दफ़न होंगी, अब कोई नहीं जानता l हर ईमारत अपने भीतर एक कहानी लिए खड़ी है –
चंदेरी से अशोक नगर की ओर - एक दरवाजे की संरचना जिसे की पूरी तरह से एक  रॉक को काटकर बनाया गया है, चंदेरी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है, दक्षिण में ​​बुंदेलखंड और उत्तर में मालवा के बीच एक लिंक का काम करता है। जमीनी सतह से 230 फुट ऊपर, सिर्फ दरवाजा ही 80 फुट ऊँचा और 39 फुट चौड़ा है। फाटक के पूर्वी दीवार पर देवनागरी और नासक दोनों लिपियों में एक शिलालेख है, जो कि बताता है कि इसका निर्माण चंदेरी के तत्कालीन राज्यपाल शेर खान के बेटे जिमान खान द्वारा सन् 1495 ई. में कराया गया था l
इस फाटक के निर्माण के साथ जुड़े किंवदंती अत्यंत दुखद है। एक बार मालवा के सुल्तान, घयासुद्दीन खिलजीको चंदेरी में आना था , उसके स्वागत के लिए एक फाटक का बनना तय हुआ, जो पूरे एक पहाड़ को काटकर बनाया जाना था l  भावुक जिमान खान ने घोषणा की कि जो भी राजमिस्त्री एक रात में गेट उत्कीर्ण करेगा, उसे एक पुरस्कार दिया जायेगा। केवल एक राजमिस्त्री ने चुनौती स्वीकार की और जिमान खान को आश्वासन दिया कि वह अपने दल के साथ इस कार्य को पूरा करेगा। अगली सुबह, जिमान खान को प्रवेश द्वार को देख कर सुखद आश्चर्य हुआ, वह हैरान था, लेकिन आगे निरीक्षण करने पर गौर किया कि यह दरवाजा जिस आधार पर टिके उस के लिए प्रावधान का अभाव था। चूंकि यह दरवाजा सामरिक रूप से महत्वपूर्ण स्थान पर स्थित था, अतः सुरक्षा कारणों से यह अनिवार्य हो गया था कि वहाँ एक दरवाजा हो। जिमान खान ने इस गलती को करने के लिए राजमिस्त्री को पैसे देने से इनकार कर दिया। जिसने इस लगभग असंभव कार्य को पूरा किया था उसके बावजूद खाली हाथ, उदास और गमगीन लौट गया। उसने बाद में आत्महत्या कर ली. और आज तक यह कटी घाटी फाटक - दरवाजे के बिना खड़ा है।
बादल महल - चंदेरी के सभी स्मारकों के बीच सबसे प्रख्यात है और अंदरूनी शहर के दक्षिणी छोर पर स्थित है। शहर के सात इंटरलॉकिंग दीवारों में से एक जो कि शहर को विशिष्ट क्षेत्रों में बांटती थी, के भीतर स्थित यह दरवाजा पंद्रहवीं सदी में सुल्तान महमूद शाह खिलजी  के शासनकाल के दौरान बनाया गया था। कहा जाता है कि यह प्रवेश द्वार एक महल, बादल महल के द्वार पर खड़ा था, लेकिन अब यह महल अस्तित्व में नहीं है। यह मेहराबदार फाटक स्वयं ही एक प्रवेश द्वार का काम करता था जिसके दोनों तरफ दो लंबे बांसुरीनुमा मीनार हैं। दरवाजे के ऊपर कुछ स्थान खाली है और शीर्ष पर एक और मेहराब है जिसमें चार अलग-अलग पैटर्न की जाली का सजावट है। दरवाजा के दोनों ओर दो फूलदार राउण्डेल हैं जिनके छोटे संस्करण मीनारों को सजाने का काम कर रहे हैं।
कोशक महलः इस महल को 1445 ई. में मालवा के महमूद खिलजी ने बनवाया था। यह महल चार बराबर हिस्सों में बंटा हुआ है। कहा जाता है कि सुल्तान इस महल को सात खंडों में बनवाना चाहते थे, लेकिन मात्र तीन खंड ही बनवा सके। महल के हर खंड में बालकनी, खिड़कियाँ और छत पर की गई शानदार नक्काशियाँ हैं। इस इमारत को देखकर ही चंदेरी के वैभव का अंदाजा लगाया जा सकता है l अपने ही प्रकार की अनोखी वास्तुकला का अभिनव प्रयोग यहाँ देखने को मिलता है l
परमेश्वर तालः इस खूबसूरत ताल को बुन्देला राजपूत राजाओं ने बनवाया था। ताल के निकट ही एक मंदिर बना हुआ है। जहाँ वर्ष में एक बार बड़ा मेला लगता है l यहाँ पर राजपूत राजाओं के तीन स्मारक भी यहाँ पर देखे जा सकते हैं। चंदेरी नगर के उत्तर पश्चिम में लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर यह ताल स्थित है। कहते हैं कि चंदेरी नगर की स्थापना में इस ताल का बहुत महत्वपूर्व स्थान है l 


ईसागढ़ः चंदेरी से लगभग 45 किलोमीटर दूर ईसागढ़ तहसील के कड़वाया गाँव में अनेक खूबसूरत मंदिर बने हुए हैं। इस मंदिरों का कालखंड भी लग लग है l इन मंदिरों में एक मंदिर दसवीं शताब्दी में कच्चा पंगहटा शैली में बना है।  मंदिर का गर्भगृह, अंतराल और मंडप मुख्य आकर्षण हैं। चंदल मठ यहाँ के अन्य लोकप्रिय प्राचीन मंदिर हैं।
बूढ़ी चंदेरीः ओल्ड चंदेरी सिटी को बूढ़ी चंदेरी के नाम से जाना जाता है। 9वीं और 10वीं शताब्दी में बने जैन मंदिर यहाँ के मुख्य आकर्षण हैं। जिन्हें देखने के लिये हर साल बड़ी संख्या में जैन धर्म के अनुयायी आते हैं।
शहजादी का रोजाः यह स्मारक कुछ अनजान राजकुमारियों को समर्पित है। स्मारक के अंदरूनी हिस्से में शानदार सजावट है। स्मारक की संरचना ज्योमिती से प्रभावित है। खेतों के बीच में खड़े ये स्मारक अपने आप में विशेष हैं l 



बत्तीसी बावड़ीः गोल, चौकोर और समकोण बावड़ियों से भरे इस नगर में अफगान वास्तुकला की दूसरी जगमगाती निशानी चार मंजिला घाटों से सजी यह बावड़ी है। इसकी सुंदर सीढ़ियों के ऊपर, बीच में पटे हुए स्वागत द्वारों ने इसे भव्य बना दिया है। 60-60 फीट लंबी-चौड़ी यह बावड़ी आज भी नयनाभिराम है। यहाँ पर फारसी में लिखा है, जिसका अर्थ है- ‘जो स्वर्ग की एक झलक देखना चाहता है, वह यहाँ आकर थोड़ा विश्राम करे, क्योंकि स्वर्ग इसी के समान हैं’।
थूबोनजी और राक-कटः चंदेरी के पश्चिम में 10 किलोमीटर की दूरी पर प्राकृतिक झील के किनारे जंगल में एक तपोवन था। कालांतर में इसी को थूबोनजी कहा जाने लगा। यहाँ पर 25 जैन मंदिरों के शिखर आकाश रेखा की शोभा बढ़ा रहे हैं।
चंदेरी किलाः यह किला चंदेरी का सबसे प्रमुख आकर्षण है। बुन्देला राजपूत राजाओं द्वारा बनवाया गया यह विशाल किला उनकी स्थापत्य कला की जीवंत मिसाल है। किले के मुख्य द्वार को खूनी दरवाजा कहा जाता है। पहाड़ी की एक चोटी पर बना हुआ है। जो 5 किलोमीटर लम्बी दीवार से घिरा हुआ है। इसका निर्माण राजा कीर्तिपाल ने 11वीं शताब्दी में करवाया था। इस किले में तीन प्रवेश द्वार हैं। ऊपर के द्वार को हवापुर दरवाजा और नीचे के द्वार को खूनी दरवाजा कहा जाता है। किले के दक्षिण-पश्चिम में एक रोचक दरवाजा है। जिसे कट्टी-घट्टी में कहा जाता है। चंदेरी किले के अंदर पर्यटन के कई आकर्षण हैं, जैसे खिलजी मस्जिद, नौखंडा महल, हजरत अब्दुल रहमान की कब्र आदि। यहाँ से शहर का रोचक दृश्य देखा जा सकता है।
यहाँ की सुंदरतम बत्तीसी बावड़ी फारसी में खुदा हुआ है- ‘स्वर्ग यहीं है’। पर्यटकों के लिये यहाँ एक और आकर्षण है। किले के ऊपर जौहर ताल के किनारे भारतीय नारी के अस्तित्व प्रेम एवं आत्मसम्मान का एक गौरवशाली पृष्ठ लिखा हुआ है। इस पावन स्थली और खूनी दरवाजे पर रक्त से लिखी उत्सर्ग और शौर्य की गाथा आज भी बोल रही है।
चन्देरी का पारंम्परिक वस्त्रोद्योग काफ़ी पुराना है। प्राचीन काल से ही राजाश्रय मिलने के कारण इसे राजसी लिबास माना जाता रहा। राजा महाराजा, नवाबअमीरजागीरदार व दरबारी चन्देरी के वस्त्र पहन कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते थे। 1857 में सैनिक अधिकारी रहे आर.सी. स्टर्नडैल ने चन्देरी के वस्त्रों का बखान करते हुए लिखा है कि 'चन्देरी में बहुत ही उम्दा किस्म की महीन और नफीस मलमल तैयार की जाती थीजिसमें 250 से 300 काउण्ट्स के धागों से बुनाई होती थीजिसकी तुलना ढाका की मलमल से की जाती थी।' प्राचीन काल में चन्देरी वस्त्रों का उपयोग साड़ीसाफे दुपट्टेलुगड़ादुदामिपर्दे व हाथी के हौदों के पर्दे आदि बनाने में किया जाता थाजिसमें अमूमन मुस्लिम मोमिन व कतिया और हिन्दू कोरी बुनाई के दक्ष कारीगर थे। उन्हें यह कला विरासत में मिली थी। धागों की कताई रंगाई से लेकर साड़ियों की बुनाई का कार्य वे स्वयं करते थे। आज  चंदेरी की साड़ियाँ दुनिया भर में अपने विशेष पहचान बनाये हुए हैं l
कभी किसी शहर से उसके अनकहे किस्से सुनने हों तो बस चंदेरी हो आइये -




Sunday, August 25, 2019

भीमबेटका - चट्टानों से रूबरू



जुलाई का महीना था, मैं कल शाम को ही भोपाल पहुंचा था l मध्यभारत में बादलों का खेल आरम्भ हो चुका था l सूरज के साथ बादलों की पल पल की लुकाछिपी जारी थी l जीतने और हराने की होड़ लगी हो जैसे l रात भर रुक रुक कर बारिश होती रही थी l रात इस प्रार्थना के साथ कि सुबह बूंदों का यूँ रह रह कर आना न ही हो तो बेहतर होगा – मुझे कब नींद आई पता ही नहीं चला l मैं सोते सोते भी यह प्रार्थना दोहराता रहा था शायद l प्रार्थना के मनके स्वयं फिरते रहे थे रात भर l सुबह उठा तो देखा झक्क सफ़ेद बादल भरे आसमानी आसमान में उड़ते फिर रहे थे l स्वछन्द और निस्पृह l
भीमबेटका जाना था l कई सालों की आस पूरी पूरी होनी थी l जितनी बार भी भोपाल या आस पास से वापस गया हूँ, भीमबेटका ना देख पाने की टीस साथ साथ वापस गयी है l आज जब भीमबेटका जाने को तैयार था तो लग रहा था कि कुछ ना मिल पाने की कसक में भी कितना मीठा सौन्दर्य छिपा होता है l मैं अलसुबह निकलना चाहता था l लेकिन भोपाल का मेरा एक यायावर साथी और आज का मेरा सारथि जरा देर से आया l पिछला एक घंटा मैंने किस बैचेनी में काटा था – ना वो समझ सकता था, ना ही मैं समझा सकता था l

चुपचाप बैग उठाया और मैं गाड़ी में बैठ गया l सुबह की बारिश में भीगी हुई हवा सुखद थी l लेकिन भीमबेटका के भित्ति चित्रों, प्रशय स्थलों और शैल चित्रों को देखने की लालसा के आगे सब फीका l भोपाल से बाहर निकलते ही वही भारत का ग्राम्य स्वरुप l गर्मियों के मौसम में पसरा मटमैलापन – अब उसमे से हरियाली फूटने लगी है, पर धरती की प्यास का अंदाजा साफ साफ लग रहा है l सड़क के दोनों तरफ कभी कोई गाँव और कभी इक्के दुक्के घर – और यह एक लम्बा सिलसिला l





भीमबेटका की गुफ़ाएँ मध्य भारत के पठार के दक्षिणी किनारे पर स्थित विंध्याचल की पहाड़ियों के निचले छोर पर हैं। इसके दक्षिण में सतपुड़ा की पहाड़ियाँ आरम्भ हो जाती हैं। ये गुफ़ाएँ भोपाल से 46 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण में मौजूद है। जिला रायसेन l यह पूरा क्षेत्र मोटी वनस्पति से घिरा हुआ है। यहाँ प्रचुर मात्रा में पानी, प्राकृतिक आश्रय स्थल, हरा-भरा जंगल और शुद्ध वातावरण है।

दूर से ही क्षितिज पर पहाड़ों और पत्थरों के होने के आसार दिखने लगे l धीरे धीरे उनकी ऊँचाइयाँ बढ़ने लगी l मैं हमेशा की तरह मंजिल पर पहुँचने से पहले उसकी कल्पनाओं के मानचित्र खींचने में व्यस्त था l अचानक सड़क दाहिने मुड़ी, और गाड़ी जोरदार ब्रेक के साथ रुक गयी l सामने रेलवे लाइन थी और उसका फाटक बंद l रुकना पड़ा l
अचानक मुझे याद आया कि आधुनिक भीमबेटका की कहानी तो रेल के बिना अधूरी है l मैंने कहीं पढ़ा था या सुना था शायद कि 1958 में प्रसिद्द पुरातत्ववेत्ता विष्णु श्रीधर वाकणकर एक बार रेल से यात्रा कर रहे थे कि मार्ग में उन्होंने कुछ गुफाओं और चट्टानों को देखा। साथ के यात्रियों से पूछने पर पता लगा कि यह भीमबेटका (भीम बैठका) नामक क्षेत्र है तथा पर जंगली पशुओं के भय से लोग वहां नहीं जाते। हरिभाऊ की आंखों में यह सुनकर चमक आ गयी। रेल कुछ देर बाद जब धीमी हुई, तो वे चलती गाड़ी से कूद गये और कई घंटे की चढ़ाई चढ़कर उन पहाडि़यों पर जा पहुंचे। वहां गुफाओं पर बने मानव और पशुओं के चित्रों को देखकर वे समझ गये कि ये लाखों वर्ष पूर्व यहां बसने वाले मानवों द्वारा बनाये गये हैं। वे लगातार 15 वर्ष तक यहां आते रहे। इस प्रकार इन गुफा चित्रों से संसार का परिचय हुआ।


अभी रेल के आने का कोई संकेत नहीं दिख रहा था – मैं दूर दिख रही पहाड़ियों और चट्टानों को देखकर यही सोच रहा था कि आखिर क्या दिखा होगा हरिभाऊ को इन चट्टानों में कि वे चलती रेल से कूद गए और फिर शताब्दियों की कोख में छिपा रहस्य संसार के सामने ला पाए l


रेल आई और द्रुत गति से निकल भी गयी l मैं अभी भी विचारों के भंवर में गोते खा रहा था l चढ़ाई शुरू हुई और शुरू हुआ सांगवान के पेड़ों का न ख़तम होने वाला सिलसिला l हवा तेज थी l जब हवा जरा तेज चलती है तो ज़मीन पर पड़े हुए सांगवान के सूखे पत्ते ऐसे उड़ते हैं जैसे दोबारा जीना चाहते हों l

हम टेबल टॉप पर हैं l समय से थोडा पहले ही पहुँच गए थे l कोई और दिख नहीं रहा था, भीमबेटका की लालसा हमें कुछ जल्दी ही खींच लायी थी l गाड़ी से उतरे तो सामने विशालकाय चट्टाने दम साधे खड़ी हैं l और पीछे है विस्तृत हरी घाटी l दूर देखने पर लगता है जैसे रौशनी का एक दरिया घाटी के आर पार खिंच गया है l आखें दूर तक जाती हैं, और खाली लौट आती हैं, उन्हें भीमबेटका की प्रतीक्षा को बाहर निकालकर इस स्थान की स्मृतियों को अपने भीतर संजोना हो जैसे l

सामने भीमबेटका का परिचय कई पत्थरों पर लिखा है, बहतु सारे सामान्य प्रश्नों के उत्तर हैं l इन पत्थरों पर, लेकिन मेरे सवालों के नहीं l कहते हैं इस जगह को पहले पहल स्थानीय आदिवासियों द्वारा महाभारतकालीन पांडवों की निशानी के तौर पर चिन्हित किया गया था। भीमबेटका को भीम का निवास भी कहते हैं। जिसका अर्थ “भीम के बैठने की जगह” से है।





सामने की दो चट्टानें मिलकर इस विस्मयकारी स्थान के प्रवेशद्वार का आभास देती हैं, यही से अन्दर जाना है l कैसी शांति हैं यहाँ l अनुपम l मौन हमेशा मुखरित होता है वह भाषा का चिरंतन प्रवाह है, हम अक्सर बोल कर उस प्रवाह को तोड़ देता हैं – यही हुआ मेरा मित्र अचानक जोर से चिल्लाया – अरे इधर आओ, इधर आओ – हमें लगा कोई सांप या कोई जंगली जानवर ?


उसने पहली गुफा में बने हुए शैल चित्र देख लिए थे – इसलिए उत्साहित होकर चिल्लाये जा रहा था l पहले तो झल्लाहट हुई क्योंकि उसने उस चिरंतन मौन के क्रम को तोड़ा था, लेकिन जन मैंने उन भित्ति चित्रों को देखा तो बस अपलक में देखता रह गया l दो -चार साल नहीं, दो – चार हज़ार साल नहीं, बल्कि लाख वर्ष पूर्व इन चित्रों को उकेरा गया होगा l कल्पनातीत l


एक के बाद एक गुफाओं को हम नापते रहे, अपने अपने अनुमान लगाते रहे l सच में इस जगह को देखकर पता चलता है कि किस तरह से पूर्व पाषाण काल से मध्य ऐतिहासिक काल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का केंद्र रहा होगा । यहां हर जगह सामूहिक नृत्य, रेखांकित मानवाकृति, शिकार, पशु-पक्षी, युद्ध और प्राचीन मानव जीवन के दैनिक क्रियाकलापों से जुड़े चित्र मिलते हैं। सबसे आश्चर्य की बात है कि इन चित्रों में प्रयोग किए गए खनिज रंगों में मुख्य रूप से गेरुआ, लाल और सफेद हैं और कहीं-कहीं पीला और हरा रंग भी प्रयोग हुआ है, जो इतने हजार वर्षों बाद भी वैसे ही सजीव दिखाई देते हैं।


हजारों वर्षों से मनुष्य सामाजिक और संगठित और कला के प्रति आकर्षित रहा है, ये चित्र हज़ारों वर्ष पहले का जीवन तो दर्शाते हैं ही बल्कि बताते हैं कि कला का मानव विकास पर गहरा प्रभाव रहा है। यहां नित्य दैनिक जीवन की घटनाओं से लिए गए विषय जैसे सामूहिक नृत्य, संगीत, शिकार, घोड़ों और हाथियों की सवारी आदि के बारे में हैं। इसके अलावा यहां जानवरों को भी चित्रित किया गया है। जंगली सुअर, हाथियों और बैलों के विशाल चित्र यहां उनके विशाल आकार को दर्शाते हैं। इन चित्रों से उस समय की सामाजिक जीवन संरचना और मानव विकास को समझा जा सकता है।

मैं एक शिला पर बैठा गया – सोच रहा था कि कैसा रहा होगा उस समय का जीवन, मनुष्य और समाज l अचानक जैसे भारतवर्ष स्वयं उस कालखंड के बारे में मुझे बताने लगा –

मेरी इस पुण्य सलिल सनातन भूमि के आँगन में मानव इतिहास लगभग पांच लाख वर्ष पूर्व से पल्लवित होना आरम्भ हुआ l यह समय था जब मानव सभ्यता अपने उत्क्कर्ष के प्रथम चरण में थी l प्रकृति को मानव ने अपना पहला पालना बनाया l धीरे-धीरे बारिश, आंधी, तूफ़ान और जानवरों से बचने के लिए मानव ने गिरि कंदराओं में रहना शुरू किया l यह प्रथम अवसर था जब उसने अपने जीवन यापन की आवश्यकताओं के लिए नए नए प्रयोग शुरू किये l

जीवन यापन के लिए शिकार एवं जीवन रक्षा के लिए - पत्थर को औजारों और हथियारों की तरह प्रयोग करना शुरू किया l मानव अकेले जानवरों का शिकार नहीं कर सकता था इसीलिए संगठन एवं सहयोग की भावना सूत्रपात हुआ l खाद्य-अखाद्य के परिशीलन ने आधुनिक वनस्पति विज्ञान को जन्म दिया l आखेट के निमित्त पशु स्वभाव के अध्ययन से पशु विज्ञान, जलवायु विज्ञान आदि का जन्म हुआ हुआ l मेरी जमीन पर पुरातत्त्वविदों ने पुणे-नासिक क्षेत्र, कर्नाटक के हुँस्गी-क्षेत्र, आंध्र प्रदेश के कुरनूल-क्षेत्र में इस युग के स्थलों की खोज की है. इन क्षेत्रों में कई नदियाँ हैं, जैसे – ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा भीमा, वर्धा आदि. इन स्थानों में चूना पत्थर से बने अनेक पुरापाषाण काल के औजार मिले हैं l इसी समय में मानव को आग का ज्ञान प्राप्त हुआ हुआ और उसका प्रयोग शुरू हुआ l यह एक युगांतकारी आविष्कार था जिसने मानव जीवन में अमूल चूल परिवर्तन ला दिए l भारत मे इसके अवशेष सोहन, बेलन तथा नर्मदा नदी घाटी मे प्राप्त हुए है। भोपाल के पास स्थित भीमबेटका नामक चित्रित गुफाए, शैलाश्रय तथा अनेक कलाकृतिया प्राप्त हुई है।


फिर मानव ने धीरे धीरे पत्थरों को घिस घिस कर नुकीला और चमकदार बनाना शुरू किया l हथियारों के प्रयोग को लेकर मनुष्य पारंगत हो चला था l उसने औजारों के प्रयोग का सही उपयोग सीख लिया था l अब क्रमशः जीवन शैली में आर्थिक एवं वैज्ञानिक पक्ष जुड़ते चले गए l कृषि के ज्ञान ने मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिए l अनाज काटने, उसका संवरण करने, पीसने की परम्परा जीवन का एक अंग बनती चली गयी l पशु पालन आरम्भ हो गया l पहिये के आविष्कार ने मानव की कार्यशैली एवं जीवन शैली दोनों में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिए l आना जाना, सामान ढोना सुगम हो गया l सामान की ढुलाई से होने वाली आसानी ने मानव को व्यापरोंमुख बनाया l यह वह समय था जब मानव ने फसल उगाने का काम शुरू कर दिया था l प्राप्त करने के लिए खेती का काम करना शुरू कर दिया था l

इस काल में प्रयुक्त होने वाले उपकरण आकार में बहुत छोटे होते थे, जिन्हें लघु पाषाणोपकरण माइक्रोलिथ कहते थे। इस समय के प्रस्तर उपकरण राजस्थान, मालवा, गुजरात, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश एवं मैसूर में पाये गये हैं। अभी हाल में ही कुछ अवशेष मिर्जापुर के सिंगरौली, बांदा एवं विन्ध्य क्षेत्र से भी प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन मानव अस्थि-पंजर के कुछ अवशेष प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के सराय नाहर राय तथा महदहा नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन जीवन भी शिकार पर अधिक निर्भर था। इस समय तक लोग पशुओं में गाय, बैल, भेड़, घोड़े एवं भैंसों का शिकार करने लगे थे। जीवित व्यक्ति के अपरिवर्तित जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार पर भारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण केरल से मिला है, जो सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना है। मध्य पाषाण काल के अन्तिम चरण में कुछ साक्ष्यों के आधार पर प्रतीत होता है कि लोग कृषि एवं पशुपालन की ओर आकर्षित हो रहे थे इस समय मिली समाधियों से स्पष्ट होता है कि लोग अन्त्येष्टि क्रिया से परिचित थे। मानव अस्थिपंजर के साथ कहीं-कहीं पर कुत्ते के अस्थिपंजर भी मिले है जिनसे प्रतीत होता है कि ये लोग मनुष्य के प्राचीन काल से ही सहचर थे।


भीमबेटका और अनेक स्थानों पर हजारों वर्ष पूर्व कंदराओं में बनाये गए भित्ति चित्र मानव के कला की और उन्मुख होने के प्रतीक है l इन्ही भित्ति चित्रों में सामूहिकता, जीवन शैली एवं कार्यशैली के अनेक प्रमाण मिलते हैं l भीमबेटका के भित्ति चित्रों से आसानी से उस समय के मानवीय व्यवहार का अध्ययन किया जा सकता है l कला के प्रति इसी जाग्रति के साथ यह यात्रा पूजा और अनुष्ठान की ओर बढ़ चली l प्रकृति में ऋतुओं के अनुसार रहने के लिए वस्त्र निर्माण एवं गृह निर्माण की आवश्कता ने मानव को तकनीकि विकसित करने की ओर प्रेरित किया l मृद्भांड कला का जन्म हुआ और भोजन पकाने की कला का आविर्भाव हुआ l

मैं मानव विकास की इस यात्रा का साक्षी रहा हूँ l मानव जीवन में सहयोग एवं सहकारिता से “समाज” का अंकुरण एवं निर्माण मैंने देखा है l साथ रहने की परम्परा ने बस्तियों और फिर गाँव विकसित किये l धीरे धीरे मानव की खोजी प्रवत्ति के कारण तकनीकि का विकास तेजी से होने लगा और उसके जीवन में ताम्बे का अविष्कार और प्रयोग आरम्भ हुआ l यह सब मैंने देखा है कि मानव जीवन किस तरह फल फूल रहा था l

अरे ! ये सब कुछ तो इस देवों पर उकेरा गया है l हरिभाऊ वाकणकर जी के इन्हीं सार्थक प्रयास को सरकार ने भी मान्यता प्रदान की और इस जगह को पुरातात्विक विभाग ने संरक्षित किया। इन प्रयासो के बाद यूनेस्को ने 2003 में आदिमानव के इस पुरापाषाणिक शैलाश्रय को विश्व धरोहर का दर्जा दिया है।


भीमबेटका गुफ़ाओं में अधिकांश तस्‍वीरें लाल और सफ़ेद रंग के है और इस के साथ कभी कभार पीले और हरे रंग के बिन्‍दुओं से सजी हुई है, जिनमें दैनिक जीवन की घटनाओं से ली गई विषय वस्‍तुएँ चित्रित हैं, जो हज़ारों साल पहले का जीवन दर्शाती हैं। इन चित्रों को पुरापाषाण काल से मध्यपाषाण काल के समय का माना जाता है। अन्य पुरावशेषों में प्राचीन क़िले की दीवार, लघुस्तूप, पाषाण निर्मित भवन, शुंग-गुप्त कालीन अभिलेख, शंख अभिलेख और परमार कालीन मंदिर के अवशेष भी यहाँ मिले हैं।


भीमबेटका गुफ़ाओं में प्राकृतिक लाल और सफ़ेद रंगों से वन्यप्राणियों के शिकार दृश्यों के अलावा घोड़े, हाथी, बाघ आदि के चित्र उकेरे गए हैं। इन चित्र में से यह दर्शाए गए चित्र मुख्‍यत है; नृत्‍य, संगीत बजाने, शिकार करने, घोड़ों और हाथियों की सवारी, शरीर पर आभूषणों को सजाने और शहद जमा करने के बारे में हैं। घरेलू दृश्‍यों में भी एक आकस्मिक विषय वस्‍तु बनती है। शेर, सिंह, जंगली सुअर, हाथियों, कुत्तों और घडियालों जैसे जानवरों को भी इन तस्‍वीरों में चित्रित किया गया है। इन आवासों की दीवारें धार्मिक संकेतों से सजी हुई है, जो पूर्व ऐतिहासिक कलाकारों के बीच लोकप्रिय थे। सेंड स्टोन के बड़े खण्‍डों के अंदर अपेक्षाकृत घने जंगलों के ऊपर प्राकृतिक पहाड़ी के अंदर पाँच समूह हैं, जिसके अंदर मिज़ोलिथिक युग से ऐतिहासिक अवधि के बीच की 

तस्‍वीरें मौजूद हैं।
भीमबेटका की गुफाओ और आश्रय स्थलों में स्थित चित्र तक़रीबन 30,000 साल पुरानी है लेकिन कुछ लोगो के अनुसार यह पेंटिंग इससे ज्यादा पुरानी है। उस समय की पेंटिंग बनाने में उन्होंने सब्जियों के रंगों का उपयोग किया था और वे आश्रय स्थलों और गुफाओ की अंदरूनी और बाहरी दीवारों पर ही तस्वीरे बनाते थे।


हाल ही में होशंगाबाद के पास बुधनी के एक पत्थर खदान में भी शैल चित्र पाए गए हैं। भीमबेटका से 5 किलोमीटर की दूरी पर पेंगावन में 35 शैलश्री पाए गए हैं ये शैल चित्र अत्यधिक दुर्लभ माने गए हैं। इन सभी शैलचित्रों की प्राचीनता 10,000 से 35,000 साल की आंकी गयी है।





अन्य पुरूषों में प्राचीन किले की दीवार, लघुस्तूप, पाषाण निर्मित भवन, शूंग-गुप्त कालीन अभिलेख, शंख अभिलेख और परमार कालीन मंदिर के अवशेष भी यहां मिले हैं। भीम बेटका क्षेत्र को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, भोपाल मंडल में अगस्त 1990 में राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित किया गया था। इसके बाद जुलाई 2003 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है।

यहाँ पर स्थित चित्रों की शैली से यह पता चलता है कि ये चित्र काफी लंबी अवधि में बनाए गए हैं। भीमबेटका गुफाएं विभिन्न युगों की यात्रा पर ले जाती हैं एवं ये भारत की सांस्कृतिक विरासत की एक राष्ट्रीय संपदा है


वैसे आधुनिक वैज्ञानिक पड़ताल जैसे कार्बन डेटिंग से इस और भी इशारा मिलता है कि भीम





बेटका के प्राचीन मानव के संज्ञानात्मक विकास का कालक्रम विश्व के अन्य प्राचीन समानांतर स्थलों से हजारों वर्ष पूर्व हुआ था। तो इस रूप में यह स्थल मानव विकास का आरंभिक स्थान भी माना जा सकता है। इस जगह को न सिर्फ इतिहास में रुचि रखने वाले लोग पसंद करते हैं बल्कि यहां युवाओं और पूरे परिवार को जंगल, पहाड़ों में ट्रैकिंग के अनुभव के साथ आदिमानव तथा मानव इतिहास के अनदेखे और अनजाने रहस्यों को जानने का मौका मिलेगा, और हां ऐसे पुरातात्विक चित्रों के साथ सेल्फी लेने का मौका दुनियाभर में सिर्फ कुछ ही जगह मिल सकता है। ऐसा अवसर चूकना नहीं चाहिए l











Wednesday, January 23, 2013

माकेदातु

यह एक खूबसूरत सुबह थी। सूरज पूरी तरह से जमीन को अपने आगोश में लेता उस से पहले ही हम बैंगलोर शहर से बाहर निकल चुके थे। हलके हलके सफ़ेद बादल रुई के ढेर से इधर उधर उड़ रहे थे। उनके कोने सूर्य रश्मियों के स्पर्श के साथ चमक रहे थे। बड़े नीले आसमानी  मैदान  में कुलांचे भरते हुए उन्मुक्त बादल। बादलों के बीच कही मैं भी, मंजिल से अंजान सफ़र का आनन्द लेता रहा।

मेकेदातु।  बहुत सारे लोगों से पूछने के बाद कि बंगलोर के पास कौन सी जगह देखने लायक है। मैंने मेकेदातु को चुना था। पता केवल इतना चल पाया कि  कावेरी नदी  पर एक जल प्रपात है। कनकपुर की तरफ। एक टैक्सी ली, सुबह साढ़े 6 बजे बंगलौर से निकले ड्राइवर ने बताया की लगभग 100 किलोमीटर जाना है।
पहले कभी गये हो?
एक बार सर। कई साल पहले।
कैसी जगह है?
पता नही?
क्यों?
गाडी पहले ही रोकनी पड़ती है फिर नदी पार कर के उस पार जाना होता है झरना देखने के लिए। 

मेरी ड्राइवर के साथ यह पहली बातचीत थी। लेकिन उसके आख़िरी जवाब ने मेरा रोमांच और बढ़ा  दिया था। अकेले जाने से कई लोगों ने मना किया था क्योंकि जगह अनजान सी थी और हिंदी बोलने वाले भी कम लोग ही मिलते हैं। लेकिन एक नए स्थान को देखने का लोभ मुझे हमेशा आगे बढ़ने को प्रेरित करता रहा है। आज भी यही हुआ। 
बंगलोर शहर से बहार निकल कर मटमैले, हरे, पीले खेत दिखने लगे। खेतों में काम करते हुए लोग। छोटे छोटे गाँव। सड़कों पर आवाजाही बढ़ चुकी थी। मैं उस भारत को देख रहा था जो वास्तविक भारत है। एक सुकून देने वाली शांति से भरा पूरा माहौल। भारत के किसी भी कोने में चले जाओ, यह शांति अच्छी ही लगती थी।

रस्ते में एक कस्बे  ने हमने कोंफी पी, साथ में कुछ नमकीन भी। एक स्थानीय स्वाद। शानदार। 
रास्ते में धूप  तेज हो रही थी और हवा सुहानी। नारियल के पेड़ साथ साथ चल रहे थे। मैं कब सोया पता ही नहीं चला।
आँख खुली तो गाड़ी एक नाके पर खड़ी थी। ड्राइवर ने थोडा आगे जाकर गाड़ी खड़ी  कर दी। बोला कि आगे आपको पैदल जाना होगा। मैं हतप्रभ सा था। समझ में नही आया क्या करू। कंधे पर बैग डाला और चल पड़ा। 
कोई आधा फर्लांग चलने के बाद एक सरकारी रेस्ट हाउस था। उसके एक चौकीदार ने टूटी फूटी हिंदी में पहले बताने की कोशिश की और जब मेरी समझ में नहीं आया तो इशारा करके समझाया। पहले से ही ड्राइवर ने मुझे बताया था की नदी पार करके जाना पड़ेगा।

रेस्ट हाउस से पीछे की तरफ निकल देखा तो मैं कुछ देर सम्मोहन में खड़ा रहा। कावेरी और अर्कावती नदी का संगम। शांत जलराशि। कावेरी नीलापन लिए और अरकावती एक सदा सा पनियालापन लिए हुए। पत्थरों से टकराती लहरें। मानो अस्तित्व की लड़ाई चल रही हो। एक द्वन्द बहने और रुकने के दर्शन के बीच। 
 मैं खुश था कि बरमूडा पहन कर आया था। जूते उतर कर हाथ में लिए और अरकावती में उतर गया। दो धराये बह रही थी। पहली में घुटनों से ऊपर तक पानी और दूरी में उस से कुछ ज्यादा। उस पार एक बस खड़ी दिखी। नीचे फिसलने वाले पत्थर। संभलते हुए उस पार पहुंचा। सामने जंगल था। वही एक बड़ी बस कड़ी थी। पुरानी सी। ड्राइवर ने कहा की साढ़े 10 बजे चलेंगे। शायद तब तक कोई और भी आ जाए।

अगर कोई और नही आया तो?
अकेले आपको लेकर चलूँगा।
अकेले??? मैं इतनी बड़ी बस में।
कितनी दूर जाना है?
चार किलोमीटर।
कई बार अकेलापन आपको कचोटता नही है बल्कि आपको हिम्मत देता है। मैं सुबह जिस रोमांच की आशा के साथ साथ निकला था यह  उसका चरम था। की एक बड़े जलप्रपात को देखने मैं बिकुल अकेले जाने वाला था। बिलकुल अकेले। जिस जगह के बारे में मैं बस इतना और जानता था कि वहां बहुत कम लोग जाते हैं।


मैं बस के चलने तक कुछ फोटो खींचता रहा। और निगाहें नदी के उस पार उस रेस्ट हाउस की तरफ थी कि शायद कोई और आ जाये। लेकिन नदी अपनी गति से बहती रही उसे किसी ने परेशां नही किया।
ठीक साढे  10 बजे बस का भोंपू बजा। मेरा ध्यान उस तरफ गया तो ड्राइवर इशारे से बुला रहा था। मैं वहां पहुंचा बस में चढ़ा तो पूरी बस खाली थी। मैं ड्राइवर के बगल में जा बैठा। 

ऊंचा नीचा रास्ता , जंगल के बीच से और ड्राइवर बिना किसी परवाह के तेज रफ़्तार से मंजिल की ओर  बढ़ 
चला।
कहीं कहीं पर कावेरी का विस्तार दीखता है। लेकिन थोड़ी देर बाद कावेरी नहीं दिखती बल्कि केवल चट्टानें दिखती हैं। हम उपर चढ़ते जा रहे थे। काफी मुश्किल रास्ता था। चट्टानें बढती जा रही थी। आगे कुछ नहीं दीखता। 
अचानक तेज ब्रेक। 
मैं नीचे उतरा। वहां से कुछ नहीं दीखता। ड्राइवर ने इशारे से बताया - नीचे उतर जाओ। मुझे अभी भी कावेरी नहीं दिखी थी। मैं संभल कर नीचे उतर गया, कोई 100 फीट नीचे उतरने के बाद चट्टानों के बीच से रास्ता दिखा। मैं एक पल के लिए ठिठका। फिर चल पड़ा। 
मैंने मुश्किल से पचास कदम चला था की मैने पानी की आवाज सुनी। मेरे कदम तेज हो गए। थोडा आगे जाकर मैं एक बड़ी चट्टान पर चढ़ गया। उस चट्टान से आखिरी छोर से नीचे देखा। कावेरी लगभग 100 फुट नीचे चट्टानों के बीच बह रही थी। यहाँ कावेरी का विस्तार 10 मीटर से ज्याद नहीं है। 

मैं एक पल सहम गया। नीचे दोबारा देखने की हिम्मत नही थी। मैं समझ नही पाया की मेरी सांसो की गति ज्यादा तेज़ थी या कावेरी का वेग ज्यादा था। लेकिन जल प्रपात कहाँ है? नही दिखा। किस से पूछूं? पंछी तक नहीं था। 
मैंने उपर बस की तरफ देखा, चट्टानों के अलावा कुछ नही दिखा। मानों मैं चट्टानों के नगर के बीच दम साधे खड़ा था। चट्टानों की तरह तटस्थ और अचल। समझ में नहीं आया कि क्या करून। झरना तो देखना है। पर है कहाँ?

एक पल को लगा कि  अकेले आने का निर्णय गलत था शायद। मैंने बायीं तरफ जाकर नीचे देखने का निर्णय लिया। मैं चट्टान पर चढ़ा और ज्यों ही दाहिनी तरफ चला, पैर अचानक ठिठक गए। ये क्या है? कुआं?
पूरी चट्टान में किसी ने खोद कर कुआं  बनाया हो जैसे। मैं प्रक्रति के इस अजूबे को देखकर हैरान था। मैं नीचे कावेरी को बहते देख रहा था। 

मैं वापस लौट पड़ा। मुझे प्रपात नही देखना। बस वापस जाना है।
मैं वापस मुडा  ही था कि  किसी के पैरों की आवाज़। कोई भरम।। नहीं कोई सच में था। मेरी ही तरफ आता हुआ। एक नहीं दो। मेरी बस का ड्राइवर भी साथ में था। 
उसके साथ कोई और था। अधेड़ उम्र। मेरे पास आकर हाथ मिलाया। अपना परिचय दिया। सरकारी मास्टर। पास के गाँव के  वाले और उसी गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाते हैं। धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल रहे थे। मैंने अपना नाम बताया और बताया कि मैं दिल्ली से आया हूँ। 
उन्होंने एक अपेक्षित सा सवाल पुछा - यहाँ कैसे? मैंने कुछ नही बोल पाया क्योंकि मेरे पास कोई वाजिब जवाब नही था। इतना कहना काफी नही था कि  मैं बस जिज्ञासावश चला आया। मैं बस मुस्कुरा दिया।
मैंने वही सवाल उनसे पूछा - वो भी मुस्कुरा दिया। 
मैंने  उनसे कहा  की मुझे प्रपात देखना है जो नहीं दिखा। हम वापस  उस बड़ी चट्टान पर गये। जहाँ मैं पहले गया था। नीचे झुककर बाई तरफ देखा।  एक बार फिर से मेरी सांसे थम गयी, अथाह जलराशि एक साथ नीचे गिर रही थी। मुह से "आह" निकला। मैं उस दृश्य को आँखों में हमेशा के लिए बंद कर लेना चाहता था। काश यह हो पाता।

मैं बहुत शांत था। पीछे आकर हम वहीँ बैठ गए। उनहोंने अपने थैले से मूडी ( हम उत्तर भारत में उसे परवल कहते हैं ) निकाली। मुझे भी दी। 
उस के बाद उन्होंने जो भी बताया वो मेरे लिए एक प्रेरणा से कम नही था।
बचपन में पिताजी के साथ यहाँ पहली बार आया था। उसके बाद तो अपनी तीन गायों को लेकर मैं अक्सर इस तरफ आ जाता। घंटों यहाँ बैठा रहता। बड़े होने पर भी यहाँ आना नहीं छूटा। शादी के बाद अक्सर अपनी पत्नी के साथ यहाँ आता था। दो साल पहले वो नहीं रही। तो भी यहाँ आना नहीं छूटता। यहाँ का एक एक पत्थर मुझे जनता है जैसे। मुझसे बतियाता है। पता नही क्यों मुझे कावेरी की इस आवाज से कोई लगाव सा हो गया। यहाँ बैठता हूँ तो लगता है जैसे पानी के शोर से भी कोई धुन उठती हो। वो धुन मेरे भीतर बजती है।

मैं उन्हें अपलक देख रहा था। जो जगह  मुझे पहले डरावनी और बियाबान लगी थी। वो जगह किसी के लिए इतनी खूबसूरत भी हो सकती है। मैं भी वहां उनके साथ तब तक रहा जब तक तीसरी बार ड्राइवर ने आकर यहाँ नही कहा की अब चलना ही होगा। तब तक उन्होंने मुझे वहां की एक एक जगह को अच्छे से दिखाया उन्होंने बताया की मेकेदातु का अर्थ है बकरी की छलांग। एक पौराणिक कथा भी सुनाई  - जो मुझे पूरी समझ में नहीं आई। लेकिन मैं देख रहा था कि उस स्थान के लिए इस व्यक्ति के मन में कितनी  तन्मयता  और कितनी श्रधा है।
मैं उपर वापस आ गया। बस तैयार खड़ी थी। मैंने नीचे देखा तो चट्टानों के नगर मनो उपर उठ रहा था। बस वापस लौट चली। 
मैं अरकावती और कावेरी के संगम पर  बहुत देर तक बैठा रहा। वो स्थान मानो मेरे सामने खड़ा था। मेकेदातु के उस प्रवाह को मैं अब भी महसूस कर सकतअ हूँ