वागड की होली
भारत का लोक उसकी
सबसे बड़ी बड़ी शक्ति है l सबसे बड़ी ताकत है l ऐसी ही है हमारी लोक संस्कृति,
ऐसी ही हैं हमारी लोक परम्पराएँ l जो अनंत काल से हमारी संस्कृति की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति
हैं, सबसे पवित्र वाहक
हैं l समाज में जो कुछ
भी घटता है लोक ने उसके सकारात्मक पक्ष को ग्रहण किया और एक लम्बे चिंतन से उपजी
अपनी सोच में उसे ढालकर, समाज को वापस लौटा दिया – कभी गीत बनकर,
कभी कोई लोक परम्परा बनकर,
कभी किसी कहावत, किसी लोककथा के रूप में, तो कभी लोक मंचन, लोक नाट्य, लोक नृत्य के रूप में l लोक स्वीकार्यता है एक चिंतन की एक परम्परा के
अनुशीलन की, जिसमें जीवन की
शिक्षा है, समझ है, रस है, सरोकार है l इस्न्मे
शास्त्रीयता का कोई बंधन नहीं l मन की उन्मुक्त
उड़ान है l
मैं हमेशा कहता
रहा हूँ क़ि भारत के वास्तविक स्वरूप को समझना है तो भारत के गाँव ही उसका श्रेष्ठ
माध्यम हैं। जहाँ अभी तक तथाकथित विकास जीवनशैली में बनावट के रूप में नहीं घुसा
है। भारत की लोक संस्कृति इसकी प्राण वायु है l अपनी इसी प्राणवायु को आधुनिकता के साथ कदम से
कदम मिलाकर चलाने की अत्यंत आवश्यकता है l आवश्यकता है कि लोक के परम्परागत गुणों को आज के साथ
समन्वित करते हुए आगे ले चला जाए –
कल दोपहर बाद
राजस्थान के डूंगरपुर जिले सागवाड़ा तहसील के छोटे से गांव बर्बोदनिया पहुंचे हैं। राजस्थान के इस क्षेत्र को वागड़ खा जाता है l एक मित्र के घर। छोटा सा साफ सुथरा गांव। माही
नदी की सहायक नदी मोरान के किनारे, थोड़ी ऊंचाई पर
बसा है गांव।
चारों तरफ़ गेंहू और मक्का के खेत, मटमैले और हरे लैंडस्केप्स।
गांव में घुसते
ही एक बड़ा सा मंदिर मानो पवित्रता के साथ स्वागत करता है। पक्की सड़कें, सफाई ऐसी कि लुटियन दिल्ली की सफाई को टक्कर दे
दें। लोग आम तौर पर नंगे पैर घुमते दिख जाते है।
साफ दिल और खुश
मिज़ाज़ लोग। जो जानते हैं कि हमारी परम्पराओं में मेहमाननवाज़ी के मायने क्या होते
हैं। यह एक आदिवासी क्षेत्र है, लेकिन गांव अपनी
जरूरत के हिसाब से तैयार दीखता है।
कल रात सुन्दर
कांड का पाठ हुआ। पूरा गांव एक परिवार सा ही दीखता है। अपनी परम्पराओं, रीति रिवाजों के लिए मानो अपनी सीमाओं और
दायरों से बाहर जानबूझ कर निकलना नहीं चाहता गांव। और यह गर्व ही गांव को इस देश
की संस्कृति का आधार बनाये रखता है।
आने से पहले
मैंने सोचा भी नहीं था कि अगले तीन दिन भारत कि उत्सवधर्मिता के नए दर्शन से मुझे रूबरू
करवा देगा, होली का एक अलग ही अंदाज, समाज जीवन और सहभागिता की गढ़ती हुई नई
परिभ्षाएं ...
गाँव के एक युवक
ने बताया कि होली के एक सप्ताह पूर्व ही गाँव भर कि सफाई शुरू हो जाती है l
सामूहिक स्थानों कि सफाई गाँव भर के लोग मिलकर करते हैं l होलिका दहन का स्थान हमेशा से नियत रहा है
l हर साल मान्यता के अनुसार पानी की भरी मटकी को उसी स्थान पर रख कर होलिका की
तैयारी की जाती हैं। और अगले साल उस मटकी को निकाला और बदला भी जाता हैं। (मान्यता
है कि अगर मटकी में नमी बनी रहती हैं तो अगला साल अच्छा रहने वाला है ....
होली जलाने से
पहले गांव की स्त्रियां होली की पूजा अर्चना करती हैं।पूजा मैं कुमकुम,चावल,गुड,दही, गेहूं की उबी,आम का मोड़,आदि वस्तुओ से पूजा करती हैं।
गाँव की होली का
दहन कौन करेगा, इसकी भी विधि बहुत अनोखी लगी, गाँव से लगभग दो कोस दूर एक मंदिर से
गाँव के युवा मशाल लेकर दौड़ लगाते हैं, ये मशालें मंदिर पर प्रज्ज्वलित की गयी नई
अग्नि से जलाई जाती हैं l
जो युवा सबसे
पहले मशाल लेकर होलिका तक पहुँचता है, उसे ही पुरोहित के साथ होलिका दहन का अवसर मिलता है, युवाओं के लिए यह
अवसर प्रतिष्ठा का प्रतीक है l
होली के अवसर कि
एक और परम्परा ने मेरा मन मोह लिया l पिछली होली से इस होली तक जिस जिस व्यक्ति की पहली संतान होती हैं तब वह
अपनी बहन,बेटी, बुआ आ को बुला कर घर पर पारम्परिक कार्यक्रम करते
है। सामाजिक स्नेह भोज की भी परंपरा होती हैं। व्यक्तिगत कार्यकमों के बाद बारी
आती है, सामूहिक कार्यक्रम की,
बहन और बुआ के
बच्चो के कपड़े,सोने ,चांदी का गिफ्ट देते है।और भाई अपनी बहिनों के सुंदर वस्त्र
आभूषण देते है। पहला बच्चा अपनी बुआ का ही
दिये हुए पहना कर ही अपनी होली पूजन पर ले जाया जाता है, जहाँ होली चौक बना होता है। होली चौक पर जाने से पहले
बच्चे के माँ, पिताजी काकी पूरे गांव में
बुलाने जाती है की चलो होली मानने चलो होली मानने के लिए।
वहां की
क्षेत्रीय भाषा में सज धज कर गाँव भर में फेरा मारते हैं और कहते हैं –
हेडो होरी सोक
हेडो होरी सोक
हेडो होरी सोक
(इसका अर्थ है –
होली चौक पर पहुँचो )
फिर सभी लोग होली
चौक पर जाकर होली की पूजा करते है और पहली संतान वाली दंपत्ति जोड़ा आपने बच्चे के
साथ पूजा करता है फिर बच्चे के साथ माता पिता
और के साथ बच्चे का चाचा बच्चे को लेकर होली के चारो तरफ पांच बार परिक्रमा
करते हैं।
परिक्रमा करते
समय सबसे आगे बच्चे को पकड़ कर उसका चाचा व पिताजी नारियल और मां के हाथ में पांच
मीठी पुड़िया और पानी का लोटा लेकर परिक्रमा करते है। परिक्रमा करते समय पानी का
होली पर डालते हुए चलते हैं। बाद में नारियल व मीठी पुड़ी को होली में चढ़ाया जाता
है।
इसके बाद शुरू
होता है इस शाम का सबसे आनंददायी कार्यक्रम l
पूरे गांव के
पुरुष गेर नृत्य का आनंद उठाते हैं। मैं पहली बार इस नृत्य को देख रहा था, जिस
ताल, लय और चपलता के साथ ये लोग नाच रहे थे, लगता है जैसे कितने प्रशिक्षित हैं, लेकिन
सच तो ये है कि कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं, बस पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे ही – यही है
वास्तविक गुरु शिष्य परम्परा ...
मैंने वहीँ इस
नृत्य के बारे में और जाना -
गेर नृत्य भारत
में राजस्थान का पारम्परिक प्रसिद्ध और सुन्दर लोक नृत्य है। यह नृत्य प्रमुखतः
भील मीणा आदिवासियों द्वारा किया जाता है,यह खास तौर पर भील प्रदेश यानी प्रतापगढ़,बासवाड़ा और डुगंरपुर में ज्यादा किया जाता है
परन्तु पूरे राजस्थान में पाया जाता है राजस्थान में बाडमेर के कनाना व लखेटा की
प्रसिद्ध है।
गेर नृत्य को गेर
घालना, गेर घुमाना ,गेर खेलना ,गेर नाचना के नाम से भी जाना जाता है। हालांकि
यह नृत्य सभी समुदायों में प्रचलित हैं लेकिन मेवाड़ एवं मारवाड़ में अधिक
प्रसिद्ध है। इसे मारवाड़ में डांडिया गेर के नाम से व शेखावाटी में गिंदङ के नाम
जाना जाता है। इस नृत्य की उत्पति भीलों के एक नृत्य से हुई है। यह नृत्य परमुखतः
जन्माष्टमी एवं होली के महीने में किया जता है।
आमतौर पर,
नर्तक अपने हाथ में
खाण्डा (लकड़ी की छड़ी) के साथ एक बड़े वृत्त में नाचते हैं। यह नृत्य पुरुषों और
महिलाओं दोनों द्वारा किया जाता है कि इस मनभावन नृत्य करने के कई रूप हैं। पुरुष
पट्टेदार अंगरखे एवं पूर्ण लंबाई की स्कर्ट पहनते हैं। पुरुष और महिलायें दोनों
पारंपरिक पोशाक में एक साथ नृत्य करते हैं। नृत्य के प्रारंभ में, प्रतिभागियों के द्वारा एक बड़े चक्र के रूप
में पुरुष घेरा बनाते हैं। इसके अन्दर एक छोटा घेरा महिलायें बनाती हैं और
वाद्ययंत्रों एवं संगीत की ताल के साथ घड़ी की विरोधी दिशा में पूरा घूमते हैं व
खाण्डा टकराते हैं। इसके बाद फिर घड़ी की दिशा में पूरा घूमते हैं और खाण्डा आपस
में टकराते हैं। आन्तरिक व बाहरी घेरे को बीच में बदलते भी रहते हैं। कभी कभी,
पुरुषों द्वारा यह लोक नृत्य
विशेष रूप से किया जाता है। क्षमता और दक्षता के आधार पर आधा घुमना नृत्य का एक
सरल तरीका है। यह जटिल नृत्य कदम की एक श्रृंखला के साथ नृत्य किया जाता है। भीलों
द्वारा यह लोक नृत्य रंगीन कपड़े पहनकर और तलवारें, तीर और लाठी के साथ किया जाता है। इस नृत्य में
प्रयुक्त खाण्डा (छड़ी, लाठी) गुंडी पेड़
से काटकर और सफाई की प्रक्रिया से बनायीं जाती है। कुछ स्थानों पर लाठी तो कहीं
कहीं कुछ स्थानों में एक हाथ में नग्न तलवार व दूसरे हाथ में खाण्डा (छड़ी) का
प्रयोग इस नृत्य में किया जाता है।
महिलाएं भी गली
गीत गाती हुई गुम्मर खेलती हैं। गीत वागड़ी भाषा मे होता है। भारत के विभिन्न
स्थानों पर गारी गीतों की परम्परा है, यहाँ भी महिलाएं गारी गीत के साथ नृत्य करती
है l
होलिका दहन के
बाद ढोल ताशों के साथ ये दल उन सभी घरों में जाते हैं जहाँ पहली संतान हुई है, वहां
जाकर उन बालकों के लिए मंगल गीत गाये जाते हैं l घरों में औरते एक दिन पहले पकवान
बनाकर रखती है और आपने आस पास में बांटती है । सबके घरों से चंदा इकठ्ठा करके उसको
सामुहिक विकास मे लगाया जाता हैं।
यहाँ की परंपरागत
संस्कृति के संरक्षण को बनाए रखने के लिए गांव के चौराहे पर इकट्ठा होना और जिसके
घर पहली संतान हुई होती हैं वो शुद्ध देसी घी की पापडी बना कर सारे गांव वालों को
खिला कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है।
सच कहों तो मैं
रोमांचित था, अभी तक हूँ, पूरा गाँव एक परिवार की तरह त्यौहार केवल मनाता नहीं है, जीता है, एक
दुसरे के लिए हाथ पकड़कर मंगल कामना करता है, नौकरी भाहर कहीं भी करता हो कोई, होली
पर घर आता है, सबके साथ गेर खेलता है , अपनी परपराओं के लिए यस आग्रह बहुत सुखद है
l