Friday, July 15, 2011

अभावों वाले भाव

इस बात को चार साल गुजर गए.
अरे!!
सिर्फ वक़्त गुजरा है. 
मंजर तो अभी भी मन की तहों में कहीं बिखरे पड़े हैं. 
जरा सहेज लूं, चुन लूं, बुन लूं, 
पर कोई कहानी या कोई फलसफा बन गया तो फिर क्या होगा?
चलो एक और कहानी सही.

एक पहाड़ उतरा और फिर एक चढ़ा. 
फिर उस पहाड़ की उतराई में हमें रोक लिया गया. दो बन्दूक वालों ने. 
हमारी नागालैंड की ही साथी टीना ने उन से बात की. 
हमें रास्ता मिल गया.
मैंने पीछे मुड़कर उस जगह को देखना चाह जहाँ हमने हमारी गाड़ी छोड़ी थी.
पीछे कुछ नहीं था.
था तो बस पेड़ों से ढके हुए पहाड़.
ये उतराई गहरी है. 
मन की गहराइयों जैसी.
उतरना मुश्किल है. नियंत्रण नहीं रखा तो फिसलोगे.

अरे! नदी की आवाज. 
टीना बताती है -  हम बराक पर आ गए हैं. नागालैंड की सबसे बड़ी नदी. 
खूबसूरत घाटी और उसमे बहती हुई बराक. 


एक बड़े पत्थर पर बैठकर बस बराक को देखते रहे. प्रकृति की झोली में कितना कुछ बिखरा पड़ा है. 
काश एक मंजर भी मेरी आँखों में आ बसता, हमेशा हमेशा के लिए. 
सूरज सर पे है. 
मुलायम धूप खरगोश के बच्चे की तरह नर्म. यहाँ वहां फुदकती है.  बराक से खेलती है.


यह वही पूर्वोत्तर है जहाँ के बारे में सुनने को मिलता है तो बस आतंकवाद, गरीबी, विद्रोह, हड़तालें, बंद. पर और कोई कुछ देखने यहाँ आता ही कहाँ है, यहाँ तो देखने को इतना सब है. कोई चाहे तो. इन दृश्यों के मुखरित होने में क्या परेशानी है लोगों को.
किसकी नजर लगी है?

हम चल दिए. पुल नहीं था. ऐसे ही नदी पार की. कमर तक पानी है. अच्छा हुआ बरसात में नहीं आये. 
पर उनका क्या जो उस पार रहते हैं. 
मैंने  टीना से पूछा - इनजाउना (जिस गाँव में हमें जाना था) के लोग इधर कैसे आते हैं. जब आना होता है. न सड़क, न पुल,?
इधर आने की जरूरत क्या है? उस पार उनकी अपनी दुनिया है. इधर नहीं आते वो लोग. इधर की दुनिया में ऐसा क्या है? उधर जाकर जो सुकून मिलता है ना वो यहाँ नहीं है.
चढ़ाई कठिन है क्योंकि रास्ता दीखता नहीं है. बस चलते रहो.
हम करीब २ घंटे चढ़ते रहे थे. राजधानी कोहिमा से चले १६ घंटे हो गए थे. थके भी थे. चढ़ाई मुश्किल हो रही थी. 
एक जगह थोडा खुली सी जगह थी. 
वहां पांच बच्चे मिले. १० -१२ साल के होंगे. 
हाथ में पानी के २ बर्तन, एक थैले में छोटे छोटे केले. पहाड़ी केले थे. बहुत मीठे. 
बच्चे हमें लेने आये थे. इनजाउना में रहकर बच्चों को पढ़ने वाली एक कार्यकर्ता लीला ने बच्चों को हमें लेन के लिए भेजा था.
एक भी बच्चा हमारी भाषा नहीं जानता था. यहाँ तक की नागामिस भी नहीं. बच्चे नंगे पांव थे. चलने में बहुत तेज. हंसने में भी. 
हम पहाड़ की चोटी पर पहुँचते हैं. सामने सपाट गाँव.
कोई तीस पैंतीस घर. बीच में एक खुला मैदान और एक कुआ. एक बड़ा सा मकान. दो मंजिला लकड़ी से बना हुआ. पूरे  गाँव में बस यही  मकान लकड़ी का है बाकि सब घास और लकड़ी से बने हुए. एक अजीब सी शांति है गाँव में. बहुत शांत. कुछ बच्चे इकठ्ठे हो गए. 
लीला हमें लेने गाँव के बाहर आ गयी थी. शांत और बहुत धीमे बोलने वाली.
उसने बताया की यह दोमंजिला मकान गाँव का समुदायक भवन है. हस्त शिल्प का बेहतरीन  नमूना. गाँव के लोगों ने श्रमदान से बनाया है.  
हम लीला के घर पहुचे. 
केवल बूढी माँ.
पिताजी नहीं है. भाई था, अब नहीं है . बरसात के मौसम में बीमारी आई थी. गाँव के कई  लोगो की जान  लेकर ही गयी. पिताजी और भाई........अब हम दोनों ही रहते  हैं. 
माँ खेतों में काम करती है और मैं गाँव के बच्चों को पढ़ाती  हूँ. पिताजी थे तो मुझे होस्टल में रखा था. कभी कभी  टेनिग (सबसे पास का क़स्बा जहाँ पहुचने में ८ घंटे पैदल  चलना पड़ता  है ) जाती हूँ कि सरकार की तरफ से कोई ध्यान इधर भी आ जाये. 
पिछले  तीन  साल से इस  कोशिश  में लगी  हूँ. गाँव में और कोई पढ़ा लिखा नहीं है. सब महिलाये खेतों पर जाती है. और पुरुष जाते हैं  शिकार पर. 
शाम को मैंने बच्चों के साथ उनकी बैम्बू से बनी गेंद का खेल खेला था. एक दम नया था मेरे लिए. वो बात अलग थी की मेरा एक भी निशाना ठीक नहीं था. और उन छोटे छोटे बच्चों का बहुत सटीक. पर ये मेरे खेले हुए आज तक के सब खेलों में सबसे उम्दा था. 
फिर हम घर के बाहर बैठे थे. मैं गाँव से बाहर जाना चाहता था. लीला ने मना कर दिया. बाहर मत जाना सूरज डूबते ही गाँव अँधेरे के आगोश में होगा. यहाँ बिजली नहीं है यह याद रखना. 
फिर भी मैं  गाँव के उस छोर तक चला आया हूँ जहाँ से सूरज  डूबता दिख रहा है. सामने हरी  घाटी  का अनंत विस्तार  है. उपर से आखिरी किरणों कि चादर. मैं खड़ा होकर सूरज का डूबना देखता रहा. 
ये सूरज बिलकुल वैसा ही है जैसे मेरे शहर में डूबता है. बल्कि उस से ज्यादा खूबसूरत.  
सूरज को तो डूबना ही था. मेरे सोचने का क्या?
मैं  वापस मुदा. 
दूसरी तरफ से चाँद निकला था. पूर्णिमा थी शायद. 
लीला के घर शाम को पूरा गाँव जमा था. सब अपनी और से हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ कर रहे थे. रात को खाना. (एक सब्जी, कोई चटनी और मोटे वाले लाल चावल)
यह स्वाद आज तक क्यों नहीं आया था खाने में. 
बूढी माँ का स्नेह हमारे सामने उन पत्तो की थालियों में सिमटा था. 
या पूरे गाँव का निश्चल प्रेम ?
गाँव भर पर चांदनी छाई  थी. रौशनी के लिए एक्के दुक्के घरों के सामने हरा बैम्बू जल रहा था. 
लीला से घर के सामने वो भी नहीं.
चाँद कुछ ज्यादा नहीं निखर हुआ है आज? मैंने अपने एक साथी से पूछा.
उसने कहा तारे भी. 
सच !!
मेरे शहर से इतने तारे नहीं दीखते. ना इतने पास ना इतने साफ़. मैं थोडा और उचकूं तो छु लूं उन्हें. 
यहाँ कोई गाड़ी का शोर नहीं. यहाँ बिजली की जगमगाहट नहीं, यहाँ लाउडस्पीकर का कानफाडू संगीत नहीं. 
फिर ऐसा क्या है यहाँ की मन बस ऐसा ही बने रहना चाहता है. हर पल जीने की उम्मीद और बढती है.
क्यों? 
सूरज वही है चाँद वही है, तारे भी वही हैं, हवा भी वैसी ही है, पानी भी - फिर इनके ही हिस्से में आभाव क्यों है? 
मेरे पास कोई जवाब नहीं. शायद किसी के पास नहीं. 
रात गहराने लगी. चाँद और निखरा. ठण्ड बढ़ गयी. नीचे से बराक की आवाज भी अब सुनी जा सकती थी. माँ एक गरम शाल मुझे देने आई. मैंने उन्हें वहीँ बैठा लिया अपने पास. बहुत देर तक वो मेरे साथ बैठी रही. बिलकुल चुप चाप. आँखों से कुछ कुछ बोलती सी. (अगले दिन माँ ने मुझे वो शाल मुझे साथ रखने को दे दी. लीला ने बताया की माँ ने कभी अपने हाथ से बनाई थी.)
उस रात जितना ही सोया जम कर सोया. सुबह बिना दूध वाली नमकीन चाय पी. सुबह सुबह माँ के साथ गाँव के एक मात्र मंदिर (सूर्य मंदिर) भी गया. 
गाँव के बच्चों को टीना की मदद से कहानियां भी सुने और उनकी सुनी भी.
फिर विदाई ली. 
गाँव वालों से, माँ से, बच्चों से,
बिना कुछ बोले. नाम आँखों के साथ. 
माँ ने पत्तों में लिपटा बंधा हुआ कुछ और भी दिया. लीला ने बताया की रास्ते के लिए खाना है. 
मैंने माँ को गले से लगाया. कैसे उरिण होऊंगा, कैसे संभल पाउँगा स्नेह का यह बोझा..?
वापसी में हम फिर से बराक के किनारे उसी पत्थर पर बैठे. मैं आँखें बंद किये घंटे भर वहां लेता रहा कि पता नही फिर बराक मिले या ना मिले. बराक के पानी में घुलती ये बांस के फूलों की खुशबू नसीब में हो या ना हो...
मैं विकास और अभ्वों की बात सोचता रहा.  पर विकास और अभावों कि इस प्रतियोगिता में आज तो अभावों वाले भावों ने बाजी मारी थी. 
मैं खुश था. 
लीला हमारे  साथ ही नीचे आई थी. आई. 
उसे फिर से किसी सरकारी ऑफिस में जाना था. वो महीने में दो बार जाती है. इस आस के साथ कि इस बार शायद कोई उसकी पुकार सुन ले. नहीं सुनता. फिर भी वो जाती है. 
और हाँ!!

उस शाल की गर्माहट आज भी उतनी है. जितनी उस रात थी मेरे लिए. 


Monday, July 11, 2011


यात्रायें आपको अनुभव देतीं हैं. यही सुना था. यात्रायें संवेदनाएं जगाती हैं यह अनुभव हुआ था. आज तक दुनिया के जितने रंग देखे -  यात्राओं में देखे. सपनो की उड़ान भी और परवाज़ की सिमटन भी, जिंदगी के गहरे रंग भी और अनजान ठोकरों  सब यात्राओं में मिला था.
बारहलाछा दर्रा पार करके हम बस यूँ ही चले आये थे यहाँ तक. कल्पना से परे मैं एक परीलोक में घूम रहा था.  मानों वे गहरी घाटियाँ मेरे भीतर उतर रही थी. नदी मेरे भीतर एक नया मोड़ ले रही थी. मैं बादलों के बीच में अटका खड़ा था. बारिश की हलकी हलकी बूँदें मुझ से कितनी ही देर बेपरवाह टकराती रही थी.
 मेरे साथी ने कन्धा हिलाकर कहा - चलो वापस किलोंग पहुंचना है.  मैं गाड़ी में जा बैठा. निगाहें खिड़की के बाहर उन पहाड़ों में मानो कुछ खो गया था मेरा.  
वापसी में चार घंटे लग गए. सिर दर्द बढ़ता ही जा रहा था. मैं होटल पहुंचा तो सीधे बिस्तर पर. सोने की कोशिश पर नाकाम. मैं उठकर होटल के रिसेप्शन पर गया. डॉ. के बारे में पूछा तो पता चला की वहां कोई डॉ. नहीं है. केवल एक सिविल हॉस्पिटल है वहां शायद डॉ. मिल जाये. मैं  पैदल ही चल पड़ा. इस क़स्बे के बिलकुल दूसरे कोने पर सिविल हॉस्पिटल. वहां पहुंचा डॉ. मिल गए. एक स्पेशल केस देखने के लिए वो आये हुए थे. मैंने दवाई ली. वापस.
होटल जाने का मन नहीं था. मैं दूसरी तरफ चल दिया. शाम हो रही थी. ठंडी हवा. जिस्पा नदी की डराने वाली आवाज. 
घाटी हरे रंग से पुती थी. पहाड़ों के चोटियों से बादल खेल रहे थे. 
कोई भी ऐसे में थोड़ी देर बैठना चाहेगा. ये वो शांति थी जो हमेशा के लिए आपके भीतर जा बैठती है. आँखों के सामने जब जब भी ये दृश्य होता है मैं तब तब उस असीम शांति का अनुभव करता हूँ. 
शहर कोई २ मील पीछे छूट गया था. नदी के टकराव की आवाज और तेज हो गयी थी.
थोड़ी देर में अँधेरा गहराने लगा था. मुझे कोई एक फर्लांग दूर एक रौशनी दिखी. मैं आगे चलता गया. थोडा पास आने पर कुछ आकृतियाँ भी हिलती दिखाई दी. पर घर जैसा तो कहीं भी कुछ नहीं था. मैं पास पहुंचा, थोडा सा उपर चढ़ा, एक प्लास्टिक की पन्नी से ढका टेंट लगा था. बाहर कुछ लोग आग के पास बैठे थे. मैंने आग की रौशनी में गौर से देखा तो पता चल गया कि ये स्थानीय लोग तो नहीं हैं.

मैं साथ जा बैठा. कुछ चार लड़के थे. उम्र २० से ज्यादा किसी कि नहीं थी.
ये चारों बिहार के आरा जिले के रहने वाले थे. 
बिहार से इतनी दूर घूमने? 
मैंने गलत सवाल पूछ लिया था शायद. 
नहीं हम यहाँ सड़कें बनाते हैं. कुछ लोग सड़कें बनाते हैं, ठीक करते हैं और कुछ लोग पहाड़ गिरने का इंतजार करते हैं कि पहाड़ गिरें तो उन्हें हटाने जाएँ. 
मैं बहुत चुप चाप उन्हें देख रहा था. तभी एक अधेड़ आदमी भीतर से एक गिलास में चाय ले आये. बिना दूध की चाय.
सूरज १९, सतीश १८, रामकुमार २० और राजू २०. तीनों की ३ साल हो गए हैं. 
सतीश ने बताया की रोहतांग से कीलोंग तक की सड़क बनाते वक़्त उसके दादा और पिताजी भी सड़क बनाने वालों में  थे. एक बार पहाड़ गिरा और वो दोनों ही उस हादसे में नहीं रहे. बड़ा भाई भी यही हैं लेह के पास. सड़कें ठीक करता है. उसका गला रुंध गया था. बात अजीब सी थी, 
कहाँ बिहार और कहाँ कीलोंग. किस्मत की न जाने कौन सी सड़क उन्हें यहाँ ले आई थी.

मैं उनसे बैठा बातें करता रहा. सतीश का परिवार भी जिस्पा के पास के ग्रुप में है. राजू पिछली बरसात में बाल बाल बच गया था.

मैंने सोचा की विषय बदलने की जरूरत है शायद.
"आसपास घूमने की अच्छी जगह कौन कौन सी हैं"
वे आपस में एक दूसरे को देखने लगे.
"हमें क्या पता?" राजू बोला. उसकी आँखों में जो निरीहपन था, वो भीतर तक घुस गया था मेरे.  
हमें तो बस सड़कें ही अच्छी लगती हैं. कुछ और देखा ही नहीं अभी तक. लोग कहते हैं की आगे बहुत कुछ सुंदर है. तीन साल हो गए हैं आये हुए. हमारे पास ये २० किलोमीटर का इलाका है. हर रोज बस आप जैसों की हिफाजत के लिए यही से उगता सूरज देखते हैं और यहीं से उसे डूबते हुए. दिन भर हम बस यही रहते हैं सूरज ही आता जाता है. ऐसे ही सबके हिस्से बंटे हैं. हमें हमारे काम से मतलब है. वरना ये जो गरम चूल्हा देख रहे हैं न ये ठंडा पड़ जायेगा.जो नज़ारे और जो पहाड़ आपको खूबसूरत लगते हैं ना हम हर रोज डर डर के उनके साये में जीते हैं.

मैं उठ पड़ा. भीतर जाकर देखा. एक कमरे लायक जगह थी उसमे ७ लोग रहते हैं. यही था उनका राज महल.
 दोस्त होटल में इन्तजार कर रहे होंगे. मैं वापस मुड़ा. 
तो इन नौजवानों का एक एक शब्द मेरे साथ चहलकदमी करने लगा. जाते हुए मैं  जितना शांत था आते हुए उतना ही उथल पुथल से भरा था. इन तरुणों की हाथों की लकीरों में ऐसा क्या है की ये इतने बंधे हैं. दो जून की रोटी के आगे की दुनिया के लिए उनके रस्ते बंद हैं. क्यों?
क्या प्रकृति के मायने हम सबके लिए इतने अलग अलग हो सकते हैं. मैंने कभी सोचा ही नहीं था. दिन के चोकलेटी पहाड़, बसंती हवा. बर्फ से ढके धवल शिकार मैंने जिनके कारण देखे..मेरा मन उनके लिए एक अनजानी कृतज्ञता से भर गया. नदी अब और तेज दहाड़ने लगी थी. पर सतीश के शब्द मेरे कानों में ज्यादा शोर मचा रहे थे.   
  
       


आज मैं घन्टों उन चोकलेटी पहाड़ों  के सामने खड़ा रहा था. जिनमे जगह जगह बरफ भरी पड़ी थी. यह सब कुछ सम्मोहन से भरा था. आने से पहले नहीं सोचा था कि यात्रा का प्रतिफल इतना खूबसूरत होगा. 

Friday, July 8, 2011

और यह लड़की???



मैं बागडोगरा हवाई अड्डे से बाहर निकला, बाहर के हालत कुछ अजीब से थे. कोई बस नहीं, टैक्सी नहीं. हवाई अड्डे से सिलीगुड़ी शहर 8 किलोमीटर दूर है. पता चला कि आज "बंद" होने के कारण यहाँ कोई साधन नहीं मिलेगा. ऐसे समय में आप बहुत बंधे होते हैं जब अनजानी जगह पर कुछ भी नहीं सूझता.8 किलोमीटर की पैदल यात्रा, सामान के साथ-जिंदगी में एक और ना भूलने वाला अनुभव जुड़ गया. थोड़ी देर पहले मैं आसमान में उड़ रहा था और अब वापस उसी जमीन पर था. मुझे एक बार फिर लगा कि जमीन से जुड़े रहना ही हेमशा बेहतर होता है. शहर पूरा बंद था. किसी आबाद शहर में इतनी वीरानियत.. कहीं न कहीं ये विकास की देन है जो हमने बहुत मुस्कुराते हुए स्वीकार की है. घर बंद, दुकानों पर ताले, जैसे पंछियों ने भी कहा आज हम भी मनुष्यों का साथ देंगे. 

मुझे नहीं पता कि उनका अनुभव कैसा रहा होगा. पर मैंने ऐसा शहर कभी नहीं देखा था. जो जानबूझकर आँखें मूंदे सोया था.बा-मशक्कत एक होटल मिला. मैंने गंगटोक तक के लिए टैक्सी के लिए पूछा. "6 बजे से पहले कुछ नहीं मिलेगा आज बंद है बंद". जिस से भी पूछा सबका एक ही सीधा सपाट सा जवाब. और वैसे भी 6 बजे के बाद वहां जाने को कौन तैयार होगा, बारिश का मौसम है, इतना रिस्क कौन लेगा? इस लिए बेहतर है कि आप आज रात यहाँ रुक जाये और सुबह निकल जाएँ. मेरा किसी भी हालत में रात तक गंगटोक पहुंचना कितना जरूरी था. ये कोई नहीं जानता था. सिलिगुरी से 5 -6 घंटे लगते हैं. मैंने बहुत उपापोह की स्थिति में होटल में शाम तक रुका.
पूर्वोत्तर में ६ बजे अँधेरा हो जाता है. फिर भी मैं सामान के साथ बहार निकल गया कि मैं अपनी ओर से कोशिश कर लूं. आगे की राम जाने. होटल से दाहिनी ओर एक चौराहे पर मैं अपने सामान के साथ खड़ा था. सड़क पर आवाजाही बढ़ गयी थी. पर बहुत कम. 2 -3 टैक्सी वालों से पूछा - नहीं इस समय नहीं और फिर पहाड़ भी बरस रहा है. आपने कभी पहाड़ की बारिश नहीं देखी क्या? जो इस वक़्त जाने की पड़ी है. मैं चुपचाप खड़ा था. पहुंचना भी जरूरी था. और रास्ता कुछ नहीं. मैंने सोचा कि जब कायनात यही चाहती है तो फिर यही सही. मैंने वापस रुख पकड़ा ही था की एक मार्शल मेरे पास आकर रुकी. ड्राइवर की सीट वाली खिड़की से एक सिर बाहर निकला.कहाँ जाओगे? मैंने बिना कुछ ध्यान दिए बोल दिया - गंगटोक.
लड़की थी. लड़कों की भूषा. सिर पर टोपी. उम्र का अंदाजा नहीं लगा उस झलक में. अचानक बोली. रिस्क तो है पर मैं चलूंगी. रुक कर बोली. - ऐसा क्या जरूरी काम है. सामान पीछे रख दो और बैठ जाओ. मैं देखती हूँ कोई और सवारी मिलती है तो. मुझे तो शोले की बसंती याद आ गयी.
बक बक बक बक.   
खैर यात्रा शुरू हुई. मैं डरा हुआ था, क्योंकि पहली बार ऐसी  टैक्सी में बैठा था जिसे एक लड़की चला रही थी. सिलीगुड़ी छोड़ने के बाद बारिश तेज होने लगी, सड़क पर इक्का दुक्का वहां ही आ रहे थे. पहाड़ी क्षेत्र शुरू होते ही बारिश और तेज होती चली गयी. मैं इस बात से बिलकुल बेखबर बैठा था कि मैं अपनी जिंदगी मैंने अपनी जिंदगी के सबसे खतरनाक रस्ते से गुजरने वाला था. घुप्प अँधेरा, तेज होती बारिश. तेज रफ़्तार से भागती गाडी और लगभग अनाड़ी ड्राइवर. पिछले जन्म का कोई कर्म?
कोई सपना छितरा छितरा गया हो जैसे. सामने बिजली कड़क रही थी. गाड़ी की एक लाइट ख़राब थी. एक ओर रौशनी की कमी खल रही थी. और दूसरी ओर सामने की रौशनी मन में बस डर भर रही थी. कितनी अलग अलग भूमिका. 
मैंने डरा सिमटा बैठा था. बादल फटे पड़े थे. पहाड़ों से पानी के झरने ऐसे बह रहे थे की रेगिस्तान में बरस गए होते तो शायद वहां भी अंकुर फूटने की उम्मीद जग जाती. यही कुदरत है. उसे पता है कि किस के सामने कितने ओर कब बसना है. गाड़ी में पानी भर रहा था. सड़क पर पानी कितना था पता ही नहीं चल रहा था. 5 मीटर से ज्यादा देख पाना संभव नही था. पानी अंदर आ रहा था. नीचे से भी ओर दरवाजों से भी. एक खिड़की का पल्ला जो  नहीं था. अगर एक चीज कम नहीं हो रही थी तो वो थी  गाड़ी की रफ़्तार और बारिश की धार.

आँखें अपने आप बंद हो रही थी और होंठों पर प्रार्थना स्वयमेव आ रही थी. 
और कुछ रास्ता भी क्या था. मेरे साथ बैठे दोनों व्यक्ति बार बार मुझे देख रहे थे और मैंने  अपनी उस सारथि को. उसके हाथ स्टेयरिंग पर ऐसे फिसल रहे थे जैसे कोई बच्चा फिरकी चलता है. उसका चेहरा अभी भी उतना ही विश्वास से भरा था जितना पहली झलक में था.  मेरे लिए यह सफ़र किसी वैतरणी को पार करने से कम नहीं था. मैंने समय देखा. डेढ़ घंटा बीत चुका था. मैं अपने कई साथियों को संदेसा भेज चुका था की मेरे लिए प्रार्थना करें.
कई बार जान गले तक आ गयी थी. फिर वापस. मुझे उस रात यह एहसास हुआ की कहीं न कहीं ये क्षण हमें ईश्वर के कितने पास ला छोड़ते हैं. मैं प्रार्थना में था. बारिश और भयानक हो गयी थी. मैं कितनी देर उस प्रार्थना में था. आँख खुली तो हम एक नदी के किनारे थे एक ढाबे पर. यह तीस्ता नदी थी. सिक्किम की सबसे बड़ी नदी. बारिश कम हो गयी थी. ऐसा लगा जैसे कोई डरावना सपना अभी अभी टूटा हो और मैं उसके रहने के चिन्ह अभी तक जस के तस पड़े हों.
मैं बहुत चुप था. समझ में नहीं आ रहा था की उस लड़की का धन्यवाद दूं. या खुद से सवाल करू कि क्यों 4 जानों को मैंने मुसीबत में डाला. 
आगे रास्ता बेहतर था. वो आसाम कि रहने वाली थी. उसका नाम नीमा था. अब तक केवल गर्दन हिलाने वाली उस लड़की ने बातचीत शुरू कि. मेरा गंगटोक पहुंचना जरूरी क्यों है.  मैंने बताया तो वो समझ गयी शायद. नदी के किनारे हवा ठंडी थी. हम दोनों ही गीले कपड़ों में बहार खड़े थे.  
हम बोडो (आसाम की एक जनजाति) हैं.  एक बड़ा भाई था, जो उल्फा से जुड़ गया. और बाद में पुलिस के हाथों मारा गया. माँ - पिताजी को सदमा लगा. हमने आसाम छोड़ दिया. यहाँ मामा के पास आ गये. यह उनकी ही गाड़ी है. पिताजी कि हालत नहीं है कि कुछ करें. पेट तो पालना ही है न?
डर नहीं लगता? मैंने पूछा. यही क्यों चुना.?
नहीं. डरकर कौन जिया है आज तक. जो होगा देखा जायेगा. एक बार डरकर अपना घर आसाम छोड़ दिया. वो दर्द आज तक सालता है.
अब मेरे माँ बाप मेरी जिंदगी हैं. उनका बेटा मैं ही हूँ. 
मुस्कुराती है.
मैंने पीछे घूम कर देखा तो पिछली सीट पे बूढ़े बुढिया सोये पड़े थे. 
मैंने वापस सीट पर आ बैठा. उसने गाड़ी स्टार्ट कर ली. मैं बाहर देख रहा था. तीस्ता कितनी अविचल बह रही थी. 
और यह लड़की???