Wednesday, October 10, 2012

चाय वाला



 मेरे लिए यह सफ़र कुछ नया सा था. कुछ अलग सा भी था. दोपहर के एक बजे हम थेनी पहुचे थे. दिल्ली से हवाई जहाज से चेन्नई. चेन्नई से ट्रेन से मदुरै और फिर मदुरै से बस से थेनी. लगातार सफ़र से थोड़ी थकान हो गयी थी. लेकिन मदुरै से थेनी के खूबसूरत रास्ते ने थकान को बाहर नही आने दिया. बस में कोई तमिल फिल्म चल रही थी. मुझे एक शब्द भी नहीं समझ में आया था. पर स्थानीय यात्रियों के चेहरों के हाव भाव ने मुझे उस फिल्म को देखते रहने को मजबूर कर दिया. कमल हासन की फिल्म. 


मैं बाहर के खूबसूरत नजारों और फिल्म के बीच झूलता रहा था रास्ते भर. तमिलनाडु और केरल की सीमा पर बसा यह स्थान दक्षिण भारत की सही तस्वीर दिखा रहा था. सब कुछ इतना हरा भरा था कि  मन की तहों के बीच छिपाने का मन हुआ.
दिल्ली से चला तो थेनी कैसा होगा यह सोचकर  बस कुछ कल्पनाओं के चित्र खींच पाया था. पर असलियत के चित्र  मेरी कल्पना से कहीं परे थे. कहीं जयादा सुंदर, कहीं ज्यादा खूबसूरत और निश्छल. 
थेनी के एक गुरुकुल में मुझे तीन दिन रुकना था. इस गुरुकुल में वेदों का अध्ययन किया जाता है. शांत और सौम्य. पहाड़ की तलहटी में बसा. गुरुकुल के बीच से बहती हुई शांत नदी. थोड़ी सी इर्ष्या हुई थी मुझे वहां पढने वालों और रहने वालों के प्रति. मन हुआ कि फिर से पढना शुरू कर दूँ. प्रकृति के साथ साथ वहां रहने वाले बालकों के चेहरे भी कितनी समता से भरे थे. 
सूरज नीचे गिरने लगा था मानों को नीचे की और खींच रहा हो उसे. पानी का रंग बदलने लगा. पिघले हुए सोने की नदी. नदी एक मोड़ के साथ गुरुकुल की सीमा में प्रवेश करती थी. मैं वहां बैठा बहुत देर तक नदी और पहाड़ों के बदलते हुए रंगों को देखता रहा था.

शाम होने लगी तो थकान बाहर आने लगी. मैं अकेला ही बाजार की ओर निकलना चाहता था पर मैं जानता था कि भाषा के कारण दिक्कत होगी.  इसलिए अपने साथ तमिल बोलने वाले साथी को साथ ले लिया. उत्तर भारत से बिलकुल उलट. यह शहर साफ सुथरा था. शोर ओर भीड़ भाड़ भी उतनी नहीं थी. घरों के बहार रंगोली बनी है, कई  चौखटों पर दीये रखे थे. कुछ दरवाजों पर छोटी लड़कियां दिए जला रही थी. 
आप कितना भी चाहें संस्कृति कि यह दिव्य आभा मन को छुए बिना नही रहती. 
बात करते करते हम बस स्टैंड पहुच गए.

चाय पीने का मन था. बस स्टैंड पर एक छोटी सी दुकान. पर चाय पीने वालों कि संख्या को देखकर लगा कि शायद चाय अच्छी होगी इसलिए इतनी भीड़ लगी है. कुछ देर इंतजार के बाद चाय मिली. मैं तब तक टाट के आसन पर बैठे उस बुजुर्ग व्यक्ति के चाय बनाने के तरीको को देखता रहा. एक अलग ही तरीका. कोई साठ के आसपास उम्र होगी. लेकिन हाथ गजब कि तेजी से चल रहे थे. शानदार स्वाद. कुछ अलग लेकिन बहुत बेहतर. मैं तीन कुल्हड़ चाय पी गया . मन नही भरा था. लेकिन..
अगले दिन मैं दो किलोमीटर चल चल कर तीन बार चाय पीने गया. (दो बार अकेले) शाम तक वो मुझे पहचानने लगे थे. मेरे साथी ने उन्हें बता दिया कि हम लोग दिल्ली से आये हैं.

थेनी में उन दो दिनों में मैं ज्यादातर समय या तो नदी के किनारे था या चाय की दुकान पर. नदी के पास बैठकर आप न भी चाहो तो स्वयं में खोये बिना, स्वयं से बतियाये बिना आप रह ही नहीं सकते. प्राचीन गुरुकुलों की शानदार परम्पराओं का भास अपने आप होता है.

चाय की दुकान पर बैठकर पूरे उस चाय की दुकान के मालिक को पूरे दिन पूरी ऊर्जा और निष्ठां के साथ काम करते हुए देखकर जीवन के प्रति सम्मान बढ़ता है. लगता है -  हमारे कार्यक्षेत्र से अंतर नहीं पड़ता, कार्य के प्रति हमारे समर्पण से अंतर पड़ता है.
गुरुकुल में तीसरा और आखिरी दिन. रात को वापस मदुरै के लिए निकलना था. शाम के लगभग चार बजे थे. मैंने सोचा कि एक बार और चाय पी जाये. क्या पता फिर कभी यहाँ आना हो या ना हो. 
आज अपेक्षाकृत भीड़ कम थी. बातचीत का अवसर मिल गया. 

चाय की दुकान को बयालीस साल हो गए. मैं सत्रह साल का था जब मैंने ये चाय कि दुकान शुरू की थी. पिताजी और बाकि लोगों के विरोध के बावजूद. पिताजी चाहते थे कि मैं उन के साथ दूसरों खेतों पर काम करने जाऊ. मुझे पसंद नही था. इसलिए मजदूरी के इकठ्ठे हुए पैसों से मैंने यहाँ सड़क के किनारे चाय बनानी शुरू की. बाद में यहाँ बस स्टैंड बन गया. साल का कोई एक दिन मेरे लिए त्यौहार नही होता. हर दिन त्यौहार होता है. बरसात, गर्मी, सर्दी कुछ भी हो. अगर एक भी दिन चाय नही बनाता तो लगता है कई लोगों का दिन शुरू नही हुआ होगा. 

मैं जानता हूँ इन बयालीस सालों में मेरा यहाँ भी एक परिवार बन गया है. बस चलाने वाले, बसों के सहायक, मकैनिक, सबका दिन मेरी चाय से ही शुरू होता है. सबका सफ़र मेरी चाय से शुरू होता है, मेरी ही चाय से समाप्त. मेरे हर दुःख सुख में ये मेरे साथ खड़े होते हैं और मैं भी कोशिश करता हु कि जरुरत पड़े तो मैं वहां रहूँ.
बेटे ने अच्छी जगह से एम. बी. ए. कर लिया, वो चाहता था कि इस चाय कि दुकान को छोड़ कर कुछ नया काम शुरू किया जाए.

मैंने अपनी सारी जमा पूँजी उसे इस शर्त पर दे दी कि इस चाय की दुकान को नहीं छोडूंगा. कैसे छोड़ देता. इस  दुकान का  हटना मेरे लिए वैसा ही होता जैसे शरीर के किसी हिस्से का हटना. मैंने कह दिया कि जब तक जान है यह दुकान मेरे लिया छोड़ना संभव नही. अब मेरे लिए पैसा मायने नहीं रखता - लोग मुझे मेरी चाय से जानते हैं मेरे लिए इतना ही बहुत है. मेरे साथी से उनकी यह बात होती रही. बस में चल रही उस तमिल फिल्म कि तरह यहाँ भी मुझे एक भी शब्द समझ में नही आया था. मैं केवल उन दोनों के हाव भाव समझने की कोशिश करता रहा. 
मैं चाय वाले की कोरें गीली होते हुए देख रहा था.

मैं तीन चाय पी चुका था. शाम घिरने लगी थी.  हम वापस चल पड़े. रस्ते में मेरे साथी ने मुझसे यह सब बताया. हमारी चाल धीमी थी. किवाड़ों की चौखटों पर छोटी लड़कियां दीये रख रही थी. पर मेरी आँखे अभी भी चाय वाले की बातो, भावनाओ, समर्पण, अपनेपन और निष्ठां की रौशनी से चुन्धियाँ रहीं थी. मैं चाय वाले के मन की पवित्रता को प्रकृति की सुन्दरता को होड़ देते साफ साफ देख रहा था. सालों की परतें उठ रही हैं पर वो चाय वाला अभी भी मन तहों में कहीं जीवित  है उसी पवित्रता के साथ.