Thursday, December 19, 2019


पत्थर हमेशा सच बोलते हैं l  जो पत्थरों पर लिखा गया वह सच है, पत्थरों के नीचे जो सदियों की कहानियां, किस्से, दास्तानें दबी है वे सब सच है l उतनी ही सच जितना पत्थरों से रिसता हुआ पानी सच है l  



लंबे अरसे से बस सुनता आया था कि बेतवा के किनारे चंदेरी के पत्थरों के नीचे न जाने कितनी कहानियां दबी पड़ी है, कुछ कहानियाँ रिस रही हैं, कुछ बह रही हैं,  कुछ पत्थरों पर लिखी हैं और कुछ कहानियां वहां के पत्थर खुद बयां करते हैं l
एक ऐसा शहर है जिसने स्वयं को सँवारने में सदियां लगा दी l  एक ऐसा शहर है जो ना जाने कितनी राजसत्ताओं, सूफी संतो और कलाकारों की साधना का प्रतिफल बनकर खड़ा है l एक ऐसा शहर जिसने बुंदेलखंड की तपती जमीन में खड़े रहकर अपने अस्तित्व को हर दिन निखारा है l एक ऐसा शहर जिसने विंध्याचल की तलहटी में ऊपर उठकर एक ऊंचाई प्राप्त की है l  एक ऐसा शहर जिसने जौहर की तपती ज्वालाओं को देखा है l  एक ऐसा शहर जिसमें आत्मसम्मान के लिए अपने पुत्रों का बलिदान होते देखा है l  एक ऐसा शहर जिसने वास्तुकला के नए प्रतिमान स्थापित किए हैं l एक ऐसा शहर जो ना जाने कितनी रातों में बैजू बावरा के संगीत को सुनते सुनते सोया है और तलवारों की खनक सुनकर जागा है l एक ऐसा शहर जो जिसके करघों से उठती खट खट की आवाज की गूँज आज पूरी दुनिया में सुनाई पड़ती है l
मैं उन्ही पत्थरों के बीच पहुंचा कि उनसे बतिया सकूंगा l ललितपुर से चंदेरी कुछ 20 मील दूर पड़ता है l उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा पर l बुंदेलखंड की झलक आपको  चारों और दिखती है l रास्ते में बेतवा मिलती है जो कहती है कि तुमने चंदेरी के बारे में जो भी सुना है वह तो बहुत थोडा है l मैंने तो इस शहर के अस्तित्व को पल पल जिया है l मेरे प्रवाह और चंदेरी के उत्थान, पतन, संवर्धन, संघर्ष की कहानी बिलकुल एक जैसी है l अविरल और पवित्र l
एक किंवदंती है कि चंदेरी के शहर को भगवान कृष्ण के चचेरे भाई, राजा शिशुपाल द्वारा बसाया गया था। एक और अन्य किवदंती के अनुसार इसकी स्थापना को राजा चेद से जोड़ा जाता हैं, जो इस क्षेत्र पर 600 ई.पू. के आसपास शासन करता था । गुर्जर-प्रारतिहार वंश के राजा कृतिपाल ने पुरानी चंदेरी (बूढ़ी चंदेरी) से अपनी राजधानी को सन् 1100 ई. के आसपास वर्तमान चंदेरी स्थानांतरित किया। ऐसा माना जाता है कि कृतिपाल का कुष्ठ रोग एक झरने के पानी द्वारा ठीक हो गया थे l जहाँ वह एक शिकार अभियान के दौरान गया था। वही झरना परमेश्वर तालाब का स्रोत कहा जाता है। जो चंदेरी में अभी भी अवस्थित है l
दूर ऊंची वाली पहाड़ी पर कीर्ति दुर्ग के पास ही पहाडी पर स्थित  मंदिर में पहाड़ी के बीच से होकर जानेवाली एक लंबी सीढ़ियों की चढान के द्वारा पहाड के तल से पहुँचा जाता है। मंदिर में जाने का एक अन्य रास्ता सीढ़ियों की खड़ी चढा़ई सा है जो कीर्ति दुर्ग किले के पास से नीचे आता है। इस मंदिर मंदिर की मुख्य मूर्ति जागेश्वरी देवी की है जो कि एक छोटी गुफा में स्थित है। आधुनिक मंदिर गुफा के आसपास बनाया गया है ताकि उन भक्तों को जो दर्शन और पूजा के लिए आते हैं उनको समायोजित किया जा सके। इसके अलावा मंदिर परिसर के भीतर दो बड़े शिवलिंग हैं जिनकी पूरी सतह पर 1100 नक्काशीदार शिवलिंग शोभित कर रहे हैं। एक अन्य शिवलिंग पर भगवान शिव का चेहरा सभी चार दिशाओं में उकेरा हुआ है।
यह आस्था का एक प्रभावी केंद्र हैं, मन में असीम आस्था लिए लोग चले आते हैं कि उन्हें मनचाहा क्यों न मिलेगा l इसी आस्था और विश्वास के कारण ही तो यह संसार खड़ा है, इसी आस्था की धुरी पर ही तो चंदेरी जैसे शहर शताब्दियों तक मस्तक उठाये गर्व से खड़े रहते हैं l
नानौन चंदेरी के दूरदराज के इलाकों के एक गांव, नानौन  में ४०००० साल पुराने शैल चित्रों का पाया जाना स्वयं में चंदेरी की प्राचीन और समृद्ध विरासत की कहानी कहते हैं l बेहती गाँव में, जो कि चंदेरी से 20 किलोमीटर दक्षिण पूर्व स्थित है वहां एक महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर गुप्तकालीन हिंदू मंदिर का पाया जाना जो यह दर्शाता है कि यह गुप्त काल में एक मुख्य मार्ग रहा होगा l आठवीं से दसवीं शताब्दी ई में गुर्जर–प्रतिहार समाज के अनेक प्रतीक राज बूढ़ी चंदेरी में आज भी स्वाभिमान के साथ खड़े हैं l अगर आप प्राचीन स्मारकों और प्रतीकों में सुन्दरता निहार सकते हैं,  तो बूढी चंदेरी से बेहतर स्थान आपके लिए नहीं हो सकता l 
बूढी चंदेरी की किसी ईमारत से इस क्षेत्र की कहानी सुनिए - गर्व, अभिमान, दुःख, क्षोभ और स्वाभिमान की ऐसी बेजोड़ कहानी आपको सुनने को मिलेगी, जो केवल बूढी चंदेरी की आँखों में ही देखी जा सकती है l यह एक लम्बा सफ़र था, कितनी ही शताब्दियों के संघर्ष, हर्ष और विमर्श का साक्षी रहा है  यहाँ नगर -
11 वीं शताब्दी ई. के अंतिम साल – गुर्जर–प्रतिहार राज का पतन हुआ और चंदेरी पर कच्छवों का कब्जा हो गया l तेहरवींवीं शताब्दी में शमशुद्दीन अलतमस और घियासुद्दीन बलबन ने सन् 1251 ई. में चंदेरी पर हमला किया और कच्छव राजा देवा को हराकर चंदेरी को दिल्ली सल्तनत में शामिल कर लिया। चौदहवीं सदी में दिलावर खान गोरी, चंदेरी के राज्यपाल ने दिल्ली सल्तनत से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। उन्होंने सन् तेरह सौ बानवे में मालवा सल्तनत की स्थापना की l
सोलहवीं सदी ई. की शुरूआत में राणा सांगा ने चंदेरी पर कब्जा कर लिया और चंदेरी के शासक के रूप में अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी मेदिनी राय को बिठाया। लेकिन उसके बाद पंद्रह सौ अट्ठाईस में बाबर ने चंदेरी किले पर कब्जा किया और चंदेरी पर मुग़लों का नियंत्रण स्थापित किया। हमले से पहले मेदिनी राय और उनके सैनिकों ने सामुहिक आत्महत्या कर ली और महिलाओं ने जौहर स्वीकार कर लिया। यह कीर्तिदुर्ग सब देख रहा था, उसके सीने में जौहर की वह आग और तपिश आज भी महसूस की जा सकती है l
सन् सोलह सौ पांच में जहांगीर ने मुगल साम्राज्य की ओर से चंदेरी क्षेत्र का शासन राम शाह बुंदेला के हाथ में सौंप दिया। उसके बाद एक लम्बे अरसे तक बुंदेलों ने ने चंदेरी पर राज किया l सन् 1844 में कुंवर मर्दन सिंह, चंदेरी के अंतिम बुंदेला राजा ने चंदेरी को सिंधिया के अधिकार से छीन कर वहाँ बुंदेला शासन को पुनर्स्थापित किया। सन् में  कुंवर मर्दन सिंह झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिल गया और सन् 1857 ई. के विद्रोह में हिस्सा लिया था। सन् 1858 में ह्यूग रोज के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने चंदेरी किले पर कब्जा किया और उसे सिंधिया को लौटा दिया, जिससे कि दो सौ पचास साल के बुंदेला शासन के अंत हो गया। सन् 1947 में  ग्वालियर का राज, जिसमें चंदेरी भी शामिल था को नवगठित राज्य मध्य भारत में शामिल कर लिया गया ।
चंदेरी शहर में आप जिधर जाइए आपको अलग अलग कालखंडों के अवशेष बिखरे हुए मिलेंगे l जैसे किसी ने खजाने का एक थाल शहर भर में बिखेर दिया हो l पुराणी हवेलियों और इमारतों के सीने में किसी कहानियाँ दफ़न होंगी, अब कोई नहीं जानता l हर ईमारत अपने भीतर एक कहानी लिए खड़ी है –
चंदेरी से अशोक नगर की ओर - एक दरवाजे की संरचना जिसे की पूरी तरह से एक  रॉक को काटकर बनाया गया है, चंदेरी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है, दक्षिण में ​​बुंदेलखंड और उत्तर में मालवा के बीच एक लिंक का काम करता है। जमीनी सतह से 230 फुट ऊपर, सिर्फ दरवाजा ही 80 फुट ऊँचा और 39 फुट चौड़ा है। फाटक के पूर्वी दीवार पर देवनागरी और नासक दोनों लिपियों में एक शिलालेख है, जो कि बताता है कि इसका निर्माण चंदेरी के तत्कालीन राज्यपाल शेर खान के बेटे जिमान खान द्वारा सन् 1495 ई. में कराया गया था l
इस फाटक के निर्माण के साथ जुड़े किंवदंती अत्यंत दुखद है। एक बार मालवा के सुल्तान, घयासुद्दीन खिलजीको चंदेरी में आना था , उसके स्वागत के लिए एक फाटक का बनना तय हुआ, जो पूरे एक पहाड़ को काटकर बनाया जाना था l  भावुक जिमान खान ने घोषणा की कि जो भी राजमिस्त्री एक रात में गेट उत्कीर्ण करेगा, उसे एक पुरस्कार दिया जायेगा। केवल एक राजमिस्त्री ने चुनौती स्वीकार की और जिमान खान को आश्वासन दिया कि वह अपने दल के साथ इस कार्य को पूरा करेगा। अगली सुबह, जिमान खान को प्रवेश द्वार को देख कर सुखद आश्चर्य हुआ, वह हैरान था, लेकिन आगे निरीक्षण करने पर गौर किया कि यह दरवाजा जिस आधार पर टिके उस के लिए प्रावधान का अभाव था। चूंकि यह दरवाजा सामरिक रूप से महत्वपूर्ण स्थान पर स्थित था, अतः सुरक्षा कारणों से यह अनिवार्य हो गया था कि वहाँ एक दरवाजा हो। जिमान खान ने इस गलती को करने के लिए राजमिस्त्री को पैसे देने से इनकार कर दिया। जिसने इस लगभग असंभव कार्य को पूरा किया था उसके बावजूद खाली हाथ, उदास और गमगीन लौट गया। उसने बाद में आत्महत्या कर ली. और आज तक यह कटी घाटी फाटक - दरवाजे के बिना खड़ा है।
बादल महल - चंदेरी के सभी स्मारकों के बीच सबसे प्रख्यात है और अंदरूनी शहर के दक्षिणी छोर पर स्थित है। शहर के सात इंटरलॉकिंग दीवारों में से एक जो कि शहर को विशिष्ट क्षेत्रों में बांटती थी, के भीतर स्थित यह दरवाजा पंद्रहवीं सदी में सुल्तान महमूद शाह खिलजी  के शासनकाल के दौरान बनाया गया था। कहा जाता है कि यह प्रवेश द्वार एक महल, बादल महल के द्वार पर खड़ा था, लेकिन अब यह महल अस्तित्व में नहीं है। यह मेहराबदार फाटक स्वयं ही एक प्रवेश द्वार का काम करता था जिसके दोनों तरफ दो लंबे बांसुरीनुमा मीनार हैं। दरवाजे के ऊपर कुछ स्थान खाली है और शीर्ष पर एक और मेहराब है जिसमें चार अलग-अलग पैटर्न की जाली का सजावट है। दरवाजा के दोनों ओर दो फूलदार राउण्डेल हैं जिनके छोटे संस्करण मीनारों को सजाने का काम कर रहे हैं।
कोशक महलः इस महल को 1445 ई. में मालवा के महमूद खिलजी ने बनवाया था। यह महल चार बराबर हिस्सों में बंटा हुआ है। कहा जाता है कि सुल्तान इस महल को सात खंडों में बनवाना चाहते थे, लेकिन मात्र तीन खंड ही बनवा सके। महल के हर खंड में बालकनी, खिड़कियाँ और छत पर की गई शानदार नक्काशियाँ हैं। इस इमारत को देखकर ही चंदेरी के वैभव का अंदाजा लगाया जा सकता है l अपने ही प्रकार की अनोखी वास्तुकला का अभिनव प्रयोग यहाँ देखने को मिलता है l
परमेश्वर तालः इस खूबसूरत ताल को बुन्देला राजपूत राजाओं ने बनवाया था। ताल के निकट ही एक मंदिर बना हुआ है। जहाँ वर्ष में एक बार बड़ा मेला लगता है l यहाँ पर राजपूत राजाओं के तीन स्मारक भी यहाँ पर देखे जा सकते हैं। चंदेरी नगर के उत्तर पश्चिम में लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर यह ताल स्थित है। कहते हैं कि चंदेरी नगर की स्थापना में इस ताल का बहुत महत्वपूर्व स्थान है l 


ईसागढ़ः चंदेरी से लगभग 45 किलोमीटर दूर ईसागढ़ तहसील के कड़वाया गाँव में अनेक खूबसूरत मंदिर बने हुए हैं। इस मंदिरों का कालखंड भी लग लग है l इन मंदिरों में एक मंदिर दसवीं शताब्दी में कच्चा पंगहटा शैली में बना है।  मंदिर का गर्भगृह, अंतराल और मंडप मुख्य आकर्षण हैं। चंदल मठ यहाँ के अन्य लोकप्रिय प्राचीन मंदिर हैं।
बूढ़ी चंदेरीः ओल्ड चंदेरी सिटी को बूढ़ी चंदेरी के नाम से जाना जाता है। 9वीं और 10वीं शताब्दी में बने जैन मंदिर यहाँ के मुख्य आकर्षण हैं। जिन्हें देखने के लिये हर साल बड़ी संख्या में जैन धर्म के अनुयायी आते हैं।
शहजादी का रोजाः यह स्मारक कुछ अनजान राजकुमारियों को समर्पित है। स्मारक के अंदरूनी हिस्से में शानदार सजावट है। स्मारक की संरचना ज्योमिती से प्रभावित है। खेतों के बीच में खड़े ये स्मारक अपने आप में विशेष हैं l 



बत्तीसी बावड़ीः गोल, चौकोर और समकोण बावड़ियों से भरे इस नगर में अफगान वास्तुकला की दूसरी जगमगाती निशानी चार मंजिला घाटों से सजी यह बावड़ी है। इसकी सुंदर सीढ़ियों के ऊपर, बीच में पटे हुए स्वागत द्वारों ने इसे भव्य बना दिया है। 60-60 फीट लंबी-चौड़ी यह बावड़ी आज भी नयनाभिराम है। यहाँ पर फारसी में लिखा है, जिसका अर्थ है- ‘जो स्वर्ग की एक झलक देखना चाहता है, वह यहाँ आकर थोड़ा विश्राम करे, क्योंकि स्वर्ग इसी के समान हैं’।
थूबोनजी और राक-कटः चंदेरी के पश्चिम में 10 किलोमीटर की दूरी पर प्राकृतिक झील के किनारे जंगल में एक तपोवन था। कालांतर में इसी को थूबोनजी कहा जाने लगा। यहाँ पर 25 जैन मंदिरों के शिखर आकाश रेखा की शोभा बढ़ा रहे हैं।
चंदेरी किलाः यह किला चंदेरी का सबसे प्रमुख आकर्षण है। बुन्देला राजपूत राजाओं द्वारा बनवाया गया यह विशाल किला उनकी स्थापत्य कला की जीवंत मिसाल है। किले के मुख्य द्वार को खूनी दरवाजा कहा जाता है। पहाड़ी की एक चोटी पर बना हुआ है। जो 5 किलोमीटर लम्बी दीवार से घिरा हुआ है। इसका निर्माण राजा कीर्तिपाल ने 11वीं शताब्दी में करवाया था। इस किले में तीन प्रवेश द्वार हैं। ऊपर के द्वार को हवापुर दरवाजा और नीचे के द्वार को खूनी दरवाजा कहा जाता है। किले के दक्षिण-पश्चिम में एक रोचक दरवाजा है। जिसे कट्टी-घट्टी में कहा जाता है। चंदेरी किले के अंदर पर्यटन के कई आकर्षण हैं, जैसे खिलजी मस्जिद, नौखंडा महल, हजरत अब्दुल रहमान की कब्र आदि। यहाँ से शहर का रोचक दृश्य देखा जा सकता है।
यहाँ की सुंदरतम बत्तीसी बावड़ी फारसी में खुदा हुआ है- ‘स्वर्ग यहीं है’। पर्यटकों के लिये यहाँ एक और आकर्षण है। किले के ऊपर जौहर ताल के किनारे भारतीय नारी के अस्तित्व प्रेम एवं आत्मसम्मान का एक गौरवशाली पृष्ठ लिखा हुआ है। इस पावन स्थली और खूनी दरवाजे पर रक्त से लिखी उत्सर्ग और शौर्य की गाथा आज भी बोल रही है।
चन्देरी का पारंम्परिक वस्त्रोद्योग काफ़ी पुराना है। प्राचीन काल से ही राजाश्रय मिलने के कारण इसे राजसी लिबास माना जाता रहा। राजा महाराजा, नवाबअमीरजागीरदार व दरबारी चन्देरी के वस्त्र पहन कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते थे। 1857 में सैनिक अधिकारी रहे आर.सी. स्टर्नडैल ने चन्देरी के वस्त्रों का बखान करते हुए लिखा है कि 'चन्देरी में बहुत ही उम्दा किस्म की महीन और नफीस मलमल तैयार की जाती थीजिसमें 250 से 300 काउण्ट्स के धागों से बुनाई होती थीजिसकी तुलना ढाका की मलमल से की जाती थी।' प्राचीन काल में चन्देरी वस्त्रों का उपयोग साड़ीसाफे दुपट्टेलुगड़ादुदामिपर्दे व हाथी के हौदों के पर्दे आदि बनाने में किया जाता थाजिसमें अमूमन मुस्लिम मोमिन व कतिया और हिन्दू कोरी बुनाई के दक्ष कारीगर थे। उन्हें यह कला विरासत में मिली थी। धागों की कताई रंगाई से लेकर साड़ियों की बुनाई का कार्य वे स्वयं करते थे। आज  चंदेरी की साड़ियाँ दुनिया भर में अपने विशेष पहचान बनाये हुए हैं l
कभी किसी शहर से उसके अनकहे किस्से सुनने हों तो बस चंदेरी हो आइये -