Wednesday, October 10, 2012

चाय वाला



 मेरे लिए यह सफ़र कुछ नया सा था. कुछ अलग सा भी था. दोपहर के एक बजे हम थेनी पहुचे थे. दिल्ली से हवाई जहाज से चेन्नई. चेन्नई से ट्रेन से मदुरै और फिर मदुरै से बस से थेनी. लगातार सफ़र से थोड़ी थकान हो गयी थी. लेकिन मदुरै से थेनी के खूबसूरत रास्ते ने थकान को बाहर नही आने दिया. बस में कोई तमिल फिल्म चल रही थी. मुझे एक शब्द भी नहीं समझ में आया था. पर स्थानीय यात्रियों के चेहरों के हाव भाव ने मुझे उस फिल्म को देखते रहने को मजबूर कर दिया. कमल हासन की फिल्म. 


मैं बाहर के खूबसूरत नजारों और फिल्म के बीच झूलता रहा था रास्ते भर. तमिलनाडु और केरल की सीमा पर बसा यह स्थान दक्षिण भारत की सही तस्वीर दिखा रहा था. सब कुछ इतना हरा भरा था कि  मन की तहों के बीच छिपाने का मन हुआ.
दिल्ली से चला तो थेनी कैसा होगा यह सोचकर  बस कुछ कल्पनाओं के चित्र खींच पाया था. पर असलियत के चित्र  मेरी कल्पना से कहीं परे थे. कहीं जयादा सुंदर, कहीं ज्यादा खूबसूरत और निश्छल. 
थेनी के एक गुरुकुल में मुझे तीन दिन रुकना था. इस गुरुकुल में वेदों का अध्ययन किया जाता है. शांत और सौम्य. पहाड़ की तलहटी में बसा. गुरुकुल के बीच से बहती हुई शांत नदी. थोड़ी सी इर्ष्या हुई थी मुझे वहां पढने वालों और रहने वालों के प्रति. मन हुआ कि फिर से पढना शुरू कर दूँ. प्रकृति के साथ साथ वहां रहने वाले बालकों के चेहरे भी कितनी समता से भरे थे. 
सूरज नीचे गिरने लगा था मानों को नीचे की और खींच रहा हो उसे. पानी का रंग बदलने लगा. पिघले हुए सोने की नदी. नदी एक मोड़ के साथ गुरुकुल की सीमा में प्रवेश करती थी. मैं वहां बैठा बहुत देर तक नदी और पहाड़ों के बदलते हुए रंगों को देखता रहा था.

शाम होने लगी तो थकान बाहर आने लगी. मैं अकेला ही बाजार की ओर निकलना चाहता था पर मैं जानता था कि भाषा के कारण दिक्कत होगी.  इसलिए अपने साथ तमिल बोलने वाले साथी को साथ ले लिया. उत्तर भारत से बिलकुल उलट. यह शहर साफ सुथरा था. शोर ओर भीड़ भाड़ भी उतनी नहीं थी. घरों के बहार रंगोली बनी है, कई  चौखटों पर दीये रखे थे. कुछ दरवाजों पर छोटी लड़कियां दिए जला रही थी. 
आप कितना भी चाहें संस्कृति कि यह दिव्य आभा मन को छुए बिना नही रहती. 
बात करते करते हम बस स्टैंड पहुच गए.

चाय पीने का मन था. बस स्टैंड पर एक छोटी सी दुकान. पर चाय पीने वालों कि संख्या को देखकर लगा कि शायद चाय अच्छी होगी इसलिए इतनी भीड़ लगी है. कुछ देर इंतजार के बाद चाय मिली. मैं तब तक टाट के आसन पर बैठे उस बुजुर्ग व्यक्ति के चाय बनाने के तरीको को देखता रहा. एक अलग ही तरीका. कोई साठ के आसपास उम्र होगी. लेकिन हाथ गजब कि तेजी से चल रहे थे. शानदार स्वाद. कुछ अलग लेकिन बहुत बेहतर. मैं तीन कुल्हड़ चाय पी गया . मन नही भरा था. लेकिन..
अगले दिन मैं दो किलोमीटर चल चल कर तीन बार चाय पीने गया. (दो बार अकेले) शाम तक वो मुझे पहचानने लगे थे. मेरे साथी ने उन्हें बता दिया कि हम लोग दिल्ली से आये हैं.

थेनी में उन दो दिनों में मैं ज्यादातर समय या तो नदी के किनारे था या चाय की दुकान पर. नदी के पास बैठकर आप न भी चाहो तो स्वयं में खोये बिना, स्वयं से बतियाये बिना आप रह ही नहीं सकते. प्राचीन गुरुकुलों की शानदार परम्पराओं का भास अपने आप होता है.

चाय की दुकान पर बैठकर पूरे उस चाय की दुकान के मालिक को पूरे दिन पूरी ऊर्जा और निष्ठां के साथ काम करते हुए देखकर जीवन के प्रति सम्मान बढ़ता है. लगता है -  हमारे कार्यक्षेत्र से अंतर नहीं पड़ता, कार्य के प्रति हमारे समर्पण से अंतर पड़ता है.
गुरुकुल में तीसरा और आखिरी दिन. रात को वापस मदुरै के लिए निकलना था. शाम के लगभग चार बजे थे. मैंने सोचा कि एक बार और चाय पी जाये. क्या पता फिर कभी यहाँ आना हो या ना हो. 
आज अपेक्षाकृत भीड़ कम थी. बातचीत का अवसर मिल गया. 

चाय की दुकान को बयालीस साल हो गए. मैं सत्रह साल का था जब मैंने ये चाय कि दुकान शुरू की थी. पिताजी और बाकि लोगों के विरोध के बावजूद. पिताजी चाहते थे कि मैं उन के साथ दूसरों खेतों पर काम करने जाऊ. मुझे पसंद नही था. इसलिए मजदूरी के इकठ्ठे हुए पैसों से मैंने यहाँ सड़क के किनारे चाय बनानी शुरू की. बाद में यहाँ बस स्टैंड बन गया. साल का कोई एक दिन मेरे लिए त्यौहार नही होता. हर दिन त्यौहार होता है. बरसात, गर्मी, सर्दी कुछ भी हो. अगर एक भी दिन चाय नही बनाता तो लगता है कई लोगों का दिन शुरू नही हुआ होगा. 

मैं जानता हूँ इन बयालीस सालों में मेरा यहाँ भी एक परिवार बन गया है. बस चलाने वाले, बसों के सहायक, मकैनिक, सबका दिन मेरी चाय से ही शुरू होता है. सबका सफ़र मेरी चाय से शुरू होता है, मेरी ही चाय से समाप्त. मेरे हर दुःख सुख में ये मेरे साथ खड़े होते हैं और मैं भी कोशिश करता हु कि जरुरत पड़े तो मैं वहां रहूँ.
बेटे ने अच्छी जगह से एम. बी. ए. कर लिया, वो चाहता था कि इस चाय कि दुकान को छोड़ कर कुछ नया काम शुरू किया जाए.

मैंने अपनी सारी जमा पूँजी उसे इस शर्त पर दे दी कि इस चाय की दुकान को नहीं छोडूंगा. कैसे छोड़ देता. इस  दुकान का  हटना मेरे लिए वैसा ही होता जैसे शरीर के किसी हिस्से का हटना. मैंने कह दिया कि जब तक जान है यह दुकान मेरे लिया छोड़ना संभव नही. अब मेरे लिए पैसा मायने नहीं रखता - लोग मुझे मेरी चाय से जानते हैं मेरे लिए इतना ही बहुत है. मेरे साथी से उनकी यह बात होती रही. बस में चल रही उस तमिल फिल्म कि तरह यहाँ भी मुझे एक भी शब्द समझ में नही आया था. मैं केवल उन दोनों के हाव भाव समझने की कोशिश करता रहा. 
मैं चाय वाले की कोरें गीली होते हुए देख रहा था.

मैं तीन चाय पी चुका था. शाम घिरने लगी थी.  हम वापस चल पड़े. रस्ते में मेरे साथी ने मुझसे यह सब बताया. हमारी चाल धीमी थी. किवाड़ों की चौखटों पर छोटी लड़कियां दीये रख रही थी. पर मेरी आँखे अभी भी चाय वाले की बातो, भावनाओ, समर्पण, अपनेपन और निष्ठां की रौशनी से चुन्धियाँ रहीं थी. मैं चाय वाले के मन की पवित्रता को प्रकृति की सुन्दरता को होड़ देते साफ साफ देख रहा था. सालों की परतें उठ रही हैं पर वो चाय वाला अभी भी मन तहों में कहीं जीवित  है उसी पवित्रता के साथ. 




Wednesday, April 4, 2012

चौपाल का नीम..

स्कूल में पढ़ते समय फनीश्वरनाथ रेणु की एक कहानी पढ़ी थी. "कर्मनाशा की हार". आज वो कहानी मेरे सामने शब्दशःशब्द फैली पड़ी थी. मैं सामने फैले हुए गंगा के उस विशाल पाट के सामने खड़ा था. सूरज ढलान की पगडण्डी पर धीरे धीरे सरक रहा था. अगस्त का महीना. बदल अभी भी आसमान में सूरज से लुका छिपी खेल रहे थे. धूप आ जा रही थी. 
आज सुबह सुबह मैंने एक स्कूल में बच्चो के साथ स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मनाया था. बच्चों के साथ वक़्त बिताया था. आजादी के बाद देश की प्रगति की बातें बच्चों को बताई थी.
  
उसके बाद  मुझे जैसे ही ये बात  पता चली कि इस बार बरसात में गंगा ने कई गाँव बहा दिए हैं. और कटाव अभी भी जारी है. मुझसे रुका नहीं गया.  मैं दो दोस्तों के साथ चल पड़ा था. बादल कभी भी मुंह फाड़कर बरस सकते थे. हमने गाड़ी नदी के पाट से थोड़ी दूर पहले ही रोक ली थी.  गाँव तक जाने वाली सड़क लगभग टूट चुकी थी. जहाँ थोड़ी बहुत ठीक थी वहां पानी भरा था. मुझे पूर्वोत्तर भारत के बरसाती घाटों की याद आ गई.  जो खेत बचे थे वे गहरे हरे थे. लहलहाते हुए खुश भी दिख रहे थे मानो खुश रहना ही उनकी नियति हो.

रास्ते में घर वीरान पड़े थे. बिलकुल खाली. मिट्टी के बने कुछ मकान ढहे पड़े थे. कुछ घरों को प्लास्टिक से ढका गया था. रास्तों पर लोग थे पर घरों में नही. नीम का एक पेड़ निमौरियों से भरा पड़ा था. नीम के नीचे एक चबूतरा. गाँव की चौपाल रही होगी शायद.  उसके पीछे छप्पर में खूँटी पर एक पुरानी ढोलक टंगी थी. चबूतरा आज सूखे पत्तों (जो बारिश में गीले हो गए थे) और निमौरियों से भरा पड़ा था. एक साथी ने बताया कि इस सड़क पर पांच गाँव हुआ करते थे. अब एक ही बचा है . वो अभी आधा बह चुका है.


एक फर्लांग चलने पर नदी का पाट आ गया. कुछ गाँव वाले भी आ गए. हाथ में कैमरा देखकर शायद उन्हें हमारे सरकारी मुलाजिम होने का भ्रम हुआ होगा. उनकी आँखों की चमक देखकर पता चलता था कि उनकी उम्मीद के सिरे कहाँ बंधे थे. भीड़ बढ़ने लगी. मैं लोगों के चेहरों को पढने की कोशिश कर रहा था. बेबसी की लकीरें सबके चेहरों पर साफ चमक रही थी. कुछ औरतें घूंघट निकाले पीछे कड़ी आपस में फुसफुसा रही थी.
तभी हमसे कुछ दूरी पर जोर कि छपाक कि आवाज आई. मिट्टी का एक बड़ा टुकड़ा टूटकर गंगा में जा गिरा. उस पर खड़ी एक झोपडी भी. किसी का कोई सपना टूटा हो जैसे और पल भर में गायब. पीछे से किसी के सिसकने कि आवाज आई. कोई औरत थी. सब लोग पीछे खिसक गए.
मैं दूर निकल जाना चाहता था. मेरे दोस्त गाँव वालों से बात कर रहे थे. मैं नदी के पाट के साथ साथ थोडा आगे तक निकल आया. पहली बात शांत और सौम्य गंगा का ऐसा रूप देखा था. पटारें किनारों से सर पटक रही थी, मानों सब कुछ निगल जाना चाहती हो.
मेरे भीतर भी एक तूफ़ान सिर पटक रहा था.  लाखों करोड़ों को तारने वाली गंगा ये किस रूप में मेरे सामने थी? मैंने चारों ओर देखा, खामोश बादलों के सिवा कोई नही था जो मेरे सवालों का जवाब दे सके. अभी तक उफन रही गंगा भी मानों मेरे इस सवाल पर पल भर के लिए खामोश हो गयी. मैं थोडा और आगे जाना चाहता था.

गाँव के  दायीं तरफ एक अधकच्चा मकान खड़ा था. गंगा के किनारे से कोई सौ मीटर दूर. बाहर दो बुजुर्गों को बैठा देखकर मैं उस तरफ मुड गया. घर के बाहर का हिस्सा लगभग ढह चुका  था. बूढी औरत घुटनों में सर डाले बैठी थी. चेहरा नहीं दिख रहा था. बूढ़े का चेहरा झुर्रियों से भरा था. मेहनत का पका हुआ पक्का सा रंग. दोनों हाथों में चिलम पकडे उसे पीने में मशगूल था. मैंने हाथ जोड़ दिए. कोई प्रति उत्तर नही. मन उनसे बात करना चाहता था. पर मैं बहुत रिक्त खड़ा था. बात करूँ भी तो क्या?
कुछ देर बाद मैंने पुछा - बाबा! गाँव में कितने परिवार थे? घर खाली पड़े हैं. कहाँ गए हैं सब लोग? बुढिया ने मुंह उठाकर मुझे ऐसे देखा - जैसे मैं किसी दूसरे लोक से आया था. उसके चेहरा बहुत थका हुआ था. बूढ़े ने बुढिया को कहा - जा अंदर से आसन उठा ला. बुढिया उठने का उपक्रम करने लगी - मैं उस से पहले ही जमीन पर बैठ चुका था. फिर जो कहानी मैंने सुनी - मेरे सामने "कर्मनाशा" फिर से जिन्दा उठ खड़ी थी.

गाँव में उन्हें सब फुल्लू वैद्य के नाम से जानते थे. पहले दादा और फिर पिताजी ने जड़ी बूटियों से इलाज की विद्या सिखाई थी. ज़िन्दगी भर लोगों से बिना कीमत मांगे इलाज करते रहे. जो श्रद्धा से जितना दे जाते - उतना रख लेते. घर में आठ बीघा ज़मीन थी. दो बेटियों का ब्याह कर दिया. बेटे को बारहवीं तक पढाया. घर का खर्चा आराम से चल जाता था. ज़िन्दगी में पैसे से ज्यादा मान मिला. इसी गंगा के किनारों पर मैंने हजारों बूटियाँ ढूंढी. हजारों लोगों को मौत के मुंह से खींच लाया. ये चमनी(अपनी पत्नी की ओर इशारा कर के बोले) चाहती है कि घर बार छोड़ कर हम भी कहीं ओर चले जाएँ. सुना है बाद में सरकार कभी मकान बनवाकर देगी. इतना कहकर उन्होंने चिलम दीवार से टिकाकर रख दी. 

बुढिया माँ ने मेरे हाथ पर हाथ रखा - लल्ला तू ही बता सामने मौत खड़ी है. किस पल ये गंगा हमें लील जाये कोई नही पता. बच्चे भी समझा समझा कर हार गए, वे चले गए हैं पास के गाँव में. और ये हैं कि यहाँ से हिलने का नाम ही नहीं ले रहे. गाँव वाले समझा समझा कर हार गए. ये अपनी जिद पर अड़े हैं खेत और जानवर सब गंगा मई कि भेंट चढ़ गए कुछ नही बचा, मौका है तो खुद को तो बचा लें.  तू ही बता मैं कैसे इन्हें छोड़कर चली जाऊं. 

वैद्य जी ने फिर से चिलम उठा ली. "मौत से आगे तो कुछ नही है न चमनी" जिस गंगा ने जीवन दिया, जीना सिखाया, जहाँ मैंने पानी में पैर पसारने सीखे. अगर वो मौत मांग रही है तो मैं उसे रीते हाथ जाने दू. इस मिट्टी को छोड़कर जाना चाहूं तो भी नहीं जा पाउँगा. तूने सारी उम्र साथ निभाया है, अगर तुझे अपने बच्चों के पास जाना है तू जा - मैं नही रोकूंगा तुझे. पर मुझे जाने को ना कह.

बुढिया माँ ने मुंह फेर लिया. "ज़िन्दगी भर अपनी मनमर्जी चलाई है, अब भी मेरी क्यों सुनोगे" मैं भी कहीं नही जाने वाली. बुढिया माँ ने आँचल में मुंह छुपा लिया और तेजी से उठकर भीतर चली गयी. 

मैं चुप था, और कर भी क्या सकता था. चुपचाप उठ खड़ा हुआ.सामने गंगा बह रही थी. उसके भीतर का प्रवाह मानो मेरे भीतर से गुजर रहा था जाने किस दिशा कि ओर. ये मिट्टी से कौन सा रिश्ता है जो मानवीय रिश्तों से ऊपर है.  ये कौन सी धरती है जहाँ जीवन का कोई मूल्य नही ओर मौत संतुष्टि के आगे कुछ भी नही. मैं उलटे पैर लौट पड़ा वहां रुकने कि हिम्मत जो नही थी. मैं सोच रह था कि मैं वैद्य जी जैसा निर्णय ले पाता? क्या जीवन के प्रति इतनी निरामयता और अपनी मिट्टी के प्रति इतनी निष्ठां हम तथाकथित शिक्षितों में है? सोचते सोचते मैं गाँव से बाहर निकल आया था. दोस्त पहले ही पहुँच चुके थे. पीछे मुड़कर देखा तो चौपाल का नीम चुपचाप खड़ा था. फिर से हलकी सी छपाक कि आवाज आई. मैं भीतर तक कांप गया. कहीं कोई और घर...................





Tuesday, April 3, 2012

"फरहद"


तीन साल पहले मेरे पास शादी का एक कार्ड आया था. कश्मीर से. मेरी कोई रिश्तेदारी भी नही थी. दो  बार ही जाना हुआ था वहां. मैं किसी सबीना को नही जानता था.(कार्ड पर यही नाम लिखा था.) कार्ड खोलकर देखा, दिमाग पर जोर डाला तो कार्ड में लिखा एक नाम "फरहद" पर आँखें अटक गयी. एक पूरा मंजर मेरी आँखों के सामने घूम गया.  


मैंने बहुत देर तक इंतजार करने के बाद आखिर एक ट्रक को हाथ दे ही दिया.. उस सड़क पर किसी और के रूकने की उम्मीद अब खत्म हो चुकी थी. लगभग एक घंटा मुझे वहां हाई वे पर खड़े खड़े हो चुका था. पर ट्रक भी नहीं रुका. कई बार आपकी अपनी आशाओं और अपेक्षाओं को टूटते हुए देखकर भी आपको दुःख नहीं होता. खीझ नहीं होती. बस एक समता के साथ आप उसे स्वीकार करते हैं. यही हो रहा था. मैं पूरी सात्विकता के साथ उस क्षण को जी रहा था. 

यात्रा एक ऐसे पड़ाव पर थी. जहाँ केवल स्थितियों के अनुसार आप चल सकते थे. उन पर नियंत्रण संभव कहाँ था. मैं अपने ही विचारों की ज़मीन पर खड़ा था. पीछे से आ रही आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी.
 एक ट्रक मेरे ठीक पीछे था मैंने हाथ दिया.ट्रक की रफ़्तार कम हुई और मेरी तेज़. लेकिन कोई फायदा नहीं. ट्रक की रफ़्तार फिर से तेज़ हो गयी और मेरी कम. मैं सिर्फ मुस्कुरा सका. थोड़े और इंतजार के बाद मैंने धीरे धीरे चलना शुरू कर दिया था की अपने ही बूते पर थोडा फासला तय कर सकूं.  मैंने चलना शुरू ही किया था कि पीछे से एक और ट्रक आता दिखाई पड़ा. इस बार मैं हिम्मत करके सड़क के लगभग बीच में आ गया था. फिर हाथ दिया. ट्रक मुझसे पहले ही रुक गया था. मैंने  खिड़की के पास जाकर कहा "जम्मू". ड्राइवर ने खिड़की से सर बहार निकल कर कहा - आ जाओ
मैंने कोई देरी नही की.
 दूसरी तरफ से घूमकर फुर्ती से ट्रक के अंदर. मुझे हमेशा ही ट्रक वालो की एक आदत अच्छी लगती है कि ट्रक को एकदम सजा धजा कर रखते हैं. सामने २ कठपुतलियां तंगी थी. २ पोस्टर्स चिपके थे. सामने के शीशे के तीन तरफ हरी पत्तियों वाली  प्लास्टिक कि बेल लगी थी. मैंने अपना बैग अपनी गोद में रख लिया. पहली बार ड्राइवर को देखा - २३ - २४ साल का नया लड़का. गोरा और थोडा सा पहाड़ी सा दिखने वाला. बोला - मैं रस्ते में खड़ी सवारी को कभी मना नही करता बैठने के लिए. मेरे अब्बा कहा करते थे कि मुसाफिरों को उनकी मंजिल तक पहुचने से बहुत पुण्य मिलता है. (इस से यह तो पता चल गया कि अब्बा अब नही थे)
उसने ये बाते बड़े ही सूफियाना अंदाज़ में की थी. मैंने एक बार फिर से ट्रक का सरसरी निगाह से जायजा लिया.
ड्राइवर की सीट के पीछे सोने के लिए जगह थी. जिस पर कोई सोया हुआ था. मैंने पीछे मुड़कर उसे गौर से देखा- तो ड्राइवर ने कहा की "मुनीर है - मेरा साथी - मेरा हमसफ़र".
हमने लगभग १५ किलोमीटर का सफ़र तय किया होगा. ड्राइवर ने सड़क के किनारे लगाकर ट्रक रोक दिया. अपने साथी को उठाया. नीचे कूदा. जोर से बोला आप भी नीचे आ जाओ जरा रुक कर चलेंगे. मैं बाहर आ गया. हवा ठंडी थी. दूर पहाड़ों पर बर्फ अभी भी चमक रही थी. मुनीर नीचे उतर आया. बोतल के पीनी से मुंह धोया. फिर ट्रक से एक चटाई निकल कर बाहर बिछा दी.
मैं चटाई पर जा बैठा. थोड़ी देर में ड्राइवर भी. जोर से बोला - "मुनीर खिचड़ी बना ले " - आप खिचड़ी खाओगे? दोनों ही बाते मेरे लिए अटपटी थी. ट्रक वालों को ढाबों पर खाते देखा था. लेकिन खाना बनाने की बात??????
 वो मेरे चेहरे को देखकर समझ गया शायद. "हम अपना खाना खुद बनाते हैं.  मुनीर के हाथों में जो स्वाद है उसकी बात ही कुछ और है"
मैंने खाने के लिए हामी भर दी.
नाम फरहद. श्रीनगर के पास एक छोटे से गाँव में घर. पिताजी छः साल पहले ट्रक की एक दुर्घटना में नही रहे. माँ के लाख मरने के बाद भी सत्रह साल की उम्र में ट्रक चलाना शुरू कर दिया. बारहवीं के बाद पढाई छोड़ दी. हालाँकि मन बहुत था पढने का.  पर घर का इकलौता लड़का. घर के लिए कमाएगा नहीं तो लोग क्या कहेंगे.
फ़ौज में जाने के मन था. बचपन से बंदूके बहुत पसंद थी. लेकिन घाटी में इतनी बंदूके देखीं की अब तो .............
मैंने अपना सपना बदल लिया है. लों लेकर ये अपना ट्रक खरीदा है. पहले फ़ौज में जाने का  सपना था अब एक ही सपना है कि अपनी दोनों छोटी बहनों का ब्याह अच्छे घर में करून. . जो काम अब्बा नही कर पाए उन्हें मैं करूंगा. मैं उसकी पाक आँखों को देख रहा था. जो गीली जरूर हओ गयी थी लेकिन बरसी नहीं. मैं ज्यादा देर तक उसकी आँखों को नही देख पाया. कितना मुश्किल होता होगा. मन के करीब के किसी सपने को मारना और अपने ही हाथों दफ़न कर देना.
मुनीर ने ट्रक से स्टोव उतरा. फिर एक एक करके बर्तन और बहुत कुछ. खिचड़ी बनी. साथ में कोई नई किस्म का अचार और एक मीठी चटनी भी. (फरहद ने बताया की सब कुछ उसकी छोटी बहन सबीना ने बनाया था.) गलत नही कहा था फरहद ने - "मुनीर के हाथों की बात ही कुछ और है" यह खिचड़ी किसी भी होटल  और ढाबे से कहीं ज्यादा अच्छी और बेहतर. उसके बाद मुनीर पहाड़ी गाने सुनाता रहा. और फिर बांसुरी पर पहाड़ी धुनें. मुनीर बिलकुल किसी फिल्म के सहायक अभिनेता की तरह था. जिसके बिना बहुत कुछ अधूरा रह जाता. आकाश में हलके धुंधले बदल उठ खड़े हुए थे.  हम तीनो लगभग २ घंटे बाहर बैठे रहे. अब मुझे जम्मू पहुँचने की जल्दी नही थी.
उस दिन मुझे लगा की कोई भी सफ़र मंजिल से ज्यादा खूबसूरत कैसे हो सकता है...
शादी का वो कार्ड आज भी फरहद के सपने के पूरा होने का सबसे बड़ा गवाह है..........................................