Tuesday, May 31, 2011

जबकि मुझे उस पार जाना था.....

उस घटना के बाद मैं हमेशा यही सोचता रहा - कि किसी रात मैं बहुत बेफिक्री के साथ अपने घर में सोया हूँ और रात को अचानक कुछ लोग मेरे घर आकर मुझसे कहें कि मुझे और मेरे परिवार को यह घर, और मुझसे जुडी हर चीज छोड़कर जाना है कहीं भी - लेकिन अभी. हम में से कोई भी इस बात कि कल्पना करे तो शायद सिहर उठे कि वो घर जो उनके पुरखों के पसीने कि गाढ़ी कमाई, स्नेह और उनके होने का सबसे बाद सबूत है क्या कुछ लोगों के कहने भर से उसे छोड़ा जा सकता है? हमेशा के लिए? वो भी अभी. आप जाने को तैयार हैं. साथ कुछ नहीं लेते, जिन कपड़ों में सोये थे वैसे ही उठकर चल दिए. अभी घर से बहर निकले भी नहीं थे कि उन दबंगों में से एक ने घर की एक महिला का हाथ पकड़ा और कहा कि तुम सब जाओ यह नहीं जाएगी. यह यही रहेगी हमारे पास. इतने में बड़े भाई ने विरोध किया तो तलवार के एक वार से उसकी गर्दन अलग, धड अलग. घर के बारह लोगों की जान बचने के लिए एक की क़ुरबानी. महिला के गले से निकली सिसकी वही दबी रह गयी.
मैं सचखंड एक्सप्रेस के उस डिब्बे में घुसा. अपनी सीट पर पंहुचा. तो सामने वाली सीट पर वही बुजुर्ग सिख थे, जिन्हें मैंने कुछ देर पहले सीढियां उतरने में मदद की थी. उन्होंने कहा था कि उन्हें जोड़ों के दर्द की शिकायत है. मैंने गौर से देखा तो ...अच्छी कद काठी और चेहरे पर अभी भी लालिमा, सख्त शरीर उनके पुराने शारीरिक वैभव कि दास्ताँ कह रही थी.

वो आराम से मेरे सामने वाली सीट पर लेट गए. आँखें बंद थी. मानो विश्राम चाहते हो. मैंने अपने बैग से किताब निकली और पढने लगा. माहौल बहुत चुप चुप सा था. मुझे पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने आँखे खोली. और बैठ गए. अचानक मेरे हाथ से किताब लेते हुए बोले. पुत्तर दिखा तो जरा. मैं समझ गया कि उनका ध्यान मेरी किताब "कितने पाकिस्तान" को देखकर ही इधर आया होगा. कुछ देर तक किताब के कुछ पन्ने उलटे. किताब बंद करते हुए बोले "सब बकवास करते है, हम से पूछो कि घर छोड़ने का दर्द क्या होता है, 65 सालों से वो दर्द ढो रहे हैं, उस दर्द कि टीस इतनी गहरी है बेटा कि पन्नों से उसे नहीं समझा सकता. उस एहसास को सिर्फ जिया जा सकता है. पर जीना तो दूर उसके बारे में सोचकर ही रूह कांपती है. ये एहसास रब किसी को ना कराये.
मैं उनके भावों को पढने कि कोशिश करता रहा. " उन्होंने आँखे बंद कि और सर पीछे सीट से टिका लिया. थोड़ी देर के लिए माहौल में एक अजीब सी तल्खी सी छा गयी. मैंने थोडा आगे सरक कर उनके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए. उसके बाद जो दास्ताँ मैंने सुनी वो सच में रूह कंपन देने वाली थी.

बारह जनों का हँसता खेलता परिवार. बड़ी भाई की 5 महीने पहले ही शादी हुई थी. मियाँवाली में सब्जीमंडी के पीछे एक दुमंजिला मकान. बाजार में कपडे कि सबसे बड़ी दुकान और वो सब कुछ जो एक हँसते खेलते परिवार में चाहिए. मैं स्कूल जाता, घर के सामने वाली सड़क से आगे जाकर दाहिने हाथ पर मेरा स्कूल था.
सुबह लोटा भर मठ्ठा, दोनों वक़्त कटोरी भर मक्खन, शाम को आहारे का काढ़ा हुआ गुलाबी वाला दूध, इन सब की कोई कमी नहीं थी. 
थोड़े दिनों बाद कौन सी हवा चली क्या पता. दार जी  (पिताजी) ने उस दूसरे मोहल्ले की तरफ जाने से मना कर दिया. थोड़े दिनों में स्कूल भी बंद. दार जी सूरज डूबने से पहले ही दुकान बढाकर आ जाते थे. माँ मुझे बैठक में जाने ही नहीं देती थी. वहां दार जी और बाकी मोहल्ले के बड़े लोग पता नही क्या क्या बात करते थे. बड़े भैय्या और माँ ने बीबी (दीदी) को वापस उसके ससुराल भेज दिया तो मैं बहुत रोया था कि मुझे भी उसके साथ जाना है.मैंने जिद की तो माँ ने एक तमाचा लगते हुए कहा था कि बाहर का माहौल पता  है कितना ख़राब है? मैं नहीं समझ पाया कि माहौल ख़राब कैसे होता है? 
उस शाम को मैंने बड़े भाई से अगली कक्षा में साईकिल लेने का वादा लिया था. मैं हर रोज़ की तरह बिलकुल माँ की बगल वाली चारपाई पर सोया था. (उन दिनों कई बार रात को अजीब अजीब सी रोने चीखने की आवाजें आया करती थीं. इसलिए हम भीतर वाले कमरे में ही सोया करते थे.) रात को अचानक घर के आसपास तेज़ शोर सुनकर सब जाग गए थे और हमारे वाले कमरे में ही जमा हो गए. मैंने देखा की सबके हाथ में कुछ ना कुछ था. मैं तो माँ से चिपका खड़ा था. जब वे सब अंदर आये थे. उनमे से कई चेहरे तो ऐसे थे जिन्हें मैं रोज़ देखता था. सलाम करता था. हमें घर से बहार निकल दिया. माँ ने रोने से मना कर दिया था.मैं चुप था. उन्होंने रज्जो भाभी को पकड़ लिया और भैय्या को हमारे सामने ही तलवार से .............. मेरी चीखें मेरे भीतर ही भीतर चीखती रही थी.
मैं माँ से कई दिनों तक यही सवाल करता रहा की मेरी साईकिल का क्या होगा?
माँ बहुत गुमसुम हो गयी थी. हम कई रात पैदल चले थे. भूख भी लगती थी तो माँ से यही पूछता था की क्या अब आहारे वाला दूध नहीं मिलेगा?
एक दिन रात को पिताजी के मुंह से सुना की सीमा पार कर ली हमने. सब थोड़े से खुश थे. ये "सीमा" क्या थी मैं यही सोचता रहा था कई दिन.
एक आस थी की इस पार शायद रज्जो भाभी दिख जाएँ. इसी आस में अमृतसर, जालंधर और फिर दिल्ली. दरीबा में एक छोटी सी कोठरी मिली. दार जी ने सब कुछ जीरो से शुरू किया. आज जो भी है सब गुरु जी की मेहर है. उन्होंने फिर से आँखे मूँद लीं मानो फिर से उस पुराने दर्द के एक एक कतरे को महसूस कर रहे हो. 
मैंने बहुत हिम्मत की और पूछा कि क्या भाभी का कुछ पता चला? तो दो आंसू उनकी पलकों से  गिरे और गालों पर  बिखर गए. मानों गम के मारे आंसुओंने  ख़ुदकुशी कर ली हो. मेरे सामने तो प्रश्नों का पहाड़ खड़ा था. पर पूछने कि हिम्मत नहीं थी. 
मेरी रात बहुत उनींदी सी बीती. अगले दिन सुबह मुझे उतरना था. उतारते वक़्त मैंने उनके पाँव छुए. मेरा हाथ पकड़कर बोले - पुत्तर एक बात और बताऊँ.- मैंने सिर हिलाया तो बोले कि मैंने जिंदगी भर साईकिल नहीं चलाई.......मानो मेरे सिर पर किसी ने पूरा का पूरा आसमान रख दिया था. मैं चुपचाप उतर गया और रेल धीरे धीरे अजगर सी सरकती चली गयी. मुझे लगा कि जैसे रेल मुझे "सीमा" के इस पार छोड़ गयी हो जबकि मुझे उस पार जाना था.....

Monday, May 30, 2011

दो आँखे आज भी मेरा पीछा करती हैं.


सुबह सुबह ट्रेन ने रतलाम छोड़ा. मुझे वह से बाँसवाड़ा जाना था. राज्य परिवहन की बस. और मध्य भारत की चिलचिलाती हुई गर्मी. अब तक केवल इस जनजातीय बहुल इलाके के बारे में सिर्फ सुना था. जाने का पहला मौका मिला. बस पूरी भरी थी. जगह तो मिली पर खड़े होने की बैठने की नहीं.
बस ने मध्य प्रदेश की सीमा को छोड़ा और राजस्थान में प्रवेश किया तो सूरज लगभग सिर पर आ पंहुचा था. एक तो गर्मी के कारण हाल बुरा था ऊपर से बस की भीड़. मैं किसी तरह चुपचाप खड़ा था. बस की हालत भी कुछ खास अच्छी नहीं थी. मेरी हालत क्या थी शायद आप समझ पायें.
रास्ते में एक जगह बस रुकी तो मुझे लगा कि शायद बस की छत पर हालत यहाँ बेहतर हो. मैंने ड्राइवर से कहा कि मुझे छत पर बैठने दे. उसने हाँ कर दी. मैं खुश था. बहुत खुश कि शायद खुली हवा में कुछ आराम मिले.. छत पर पंहुचा तो एक बार को यकीन नहीं हुआ. जितने लोग बस में भीतर थे. छत पर उस से कम नही थे. किसी तरह जगह बनाकर मैं बैठ गया.
मुझे सच में नहीं पता था की कुछ आँखे शायद मेरा पीछा कर रही थी. ढुल - मुल चलती बस और भयंकर गर्मी. धरती के सीने से हरा रंग किसी ने चुरा  लिया हो जैसे. बस आँखों में चुभने वाला मटमैला रंग. या कहीं - कहीं कुछ अजीब सा रीतापन जैसे कुछ खो गया हो. बाहर उस रीतेपन  में देखने  का  मन  नहीं होता. पर विकल्प  ही  क्या  है. मन का रीतापन कही देखा नहीं. क्या वो भी ऐसा ही मटमैला होता होगा.

थोड़ी देर बाद एक पतली नीली लकीर सी दिखने लगी थी. नदी होने का अनुमान लगा था पर फिर यह सोचा की यहाँ इस सूखेपन में नदी कहाँ होगी. थोड़ी देर में नदी का होना साफ हो गया. शायद उस क्षेत्र की जीवन रेखा. एक गाँव था छोटा सा, गाँव क्या दो चार घर थे - बस वही रुकी थी. नदी के बिलकुल किनारे. थोड़ी देर रुकेगी यहाँ. 
मैं नीचे उतर गया. कैमरा हाथ में थामे. आदत ही ऐसी है कि बिना किसी से कुछ पूछे नदी की तरफ चल पड़ा. मेरे पीछे कुछ और लोग भी आये. आँखों का एक ऐसा जोड़ा भी जो बस की छत पर चुपके मेरा पूरा मुआयना कर चुका था. 
मेरे लिए  सामने का दृश्य कुछ था भी वैसा ही आह्लादित करने वाला . उस सूखी और बंज़र जमीन के भीतर से यह स्रोत कहाँ से फूटा है. ममता सा निर्मल और प्रार्थना सा पवित्र. उस साफ़ पानी को आसमान कि नीली परछाई ने और गहरा नीला बना दिया था. पानी में गति नहीं थी. एक ठहराव. कई बार यह ठहराव अच्छा लगता है.
 
मैंने कैमरा किनारे रखा. पानी के स्पर्श से खुद को रोक पाना बड़ा मुश्किल था.  मैं एक पत्थर पर खड़ा था . पानी लगभग 3 फुट नीचे था. संभलकर उतरना ही चाहता था की पीछे से किसी ने कहा - पानी बहुत गहरा है. मैंने इतना सुना. पीछे गर्दन घुमाई. वही 2 आँखें. मैं संभल पाता कि पाँव फिसला और मैं कुछ भी समझ पाता - मैं पानी में था. तैरना मुझे बचपन से आता है .. पर उस दिन क्या हुआ मैं नहीं जानता. आँख खुली तो मैं किसी घर में था. पता चला कि पानी बहुत गहरा था और मुझे निकालना पड़ा था. उन लोगों कि माली हालत अच्छी नहीं थी. ये मुझे लग गया था. मेरे लिए जितना उन्होंने किया.मैं वह कर्ज नहीं उतर सकता. मेरे लिए शायद वो एक नया जीवन था. मैं रात वही रुका. क्योंकि मुझे जाने नहीं दिया गया. अगले दिन निकला तो मन एक अनजान कृतज्ञता से भरा था और किवाड़ के पीछे से दो आँखे अभी भी झांक रही थी.. 
उस घटना को सालों बीत गए, इस बात को कोई नहीं जानता. पर वो दो आँखे आज भी मेरा पीछा करती  हैं. मैं जब भी किसी नदी के किनारे होता हूँ  तो मानो कोई पीछे से कहता हो - जरा संभल कर.......


Sunday, May 29, 2011

विश्वास की अमूल्य निधि


बैजनाथ से लगभग 20 किलोमीटर खीर गंगा के किनारे बने हुए एक सरकारी गेस्ट हाउस ने हम रुके थे. सुबह सुबह अभी सूरज ने किरणों का पिटारा खोला नहीं था की हम लोगों ने वो सरकारी गेस्ट हाउस छोड़ दिया. कल शाम आसपास के लोगों से जो बात हुई थी. उस के आधार पर तय था की उस जगह पहुंचना था जिसे लोग तुरुंडा कहते थे. बस सामने के पहाड़ के पीछे वाले पहाड़ पर कुछ है. क्या है? यही देखना था.
मुझे लगता है की प्रकृति का मौन निमंत्रण हमेशा एक चुनौती ही होता है. उसे स्वीकार करो - फिर देखो  प्रकृति खुले मन से आपका स्वागत करती है.  हमने उस मौन को सुना. चल पड़े उस निमंत्रण पर जिसका कोई ओर - छोर नहीं था. 



चढ़ाई शुरू हुई. जोश से लबालब हम चलते रहे. हमने आधे से ज्यादा पहाड़ चढ़ लिया था. अचानक पिछले पहाड़ के पीछे से काले काले बादलों ने कब धावा बोला पता ही नहीं चला. तेज हवा के साथ अचानक तेज बारिश शुरू हो गयी. 

आसमान फट पड़ा था जैसे. यह सब कुछ इतनी तेजी के साथ हुआ था की कुछ भी समझ में नहीं आया. उस दिन यह कहावत सच लगी की एक बार को मौत के आने की आहट सुनी भी जा सकती है पर पहाड़ की बारिश का कोई भरोसा नहीं.
पूरा पहाड़ जैसे अचानक काले बादलों के आगोश में था. यह सब इतना जल्दी हुआ था की कुछ भी नहीं सूझ रहा था. सब इधर उधर भागने लगे. कोई ऐसा पेड़ नहीं, कोई चट्टान नहीं की जिसका सहारा मिल सके. हमें अपनी कोई चिंता नहीं थी. चिंता थी तो साथ लाये हुए सामान की, कैमरा, घड़ियाँ, मोबाईल और कुछ और.. क्योंकि आगे की कई दिन की यात्रा इन पर बहुत हद तक निर्भर थी. 
एक दो साथी पहले ही आगे निकल चुके थे. उनकी भी चिंता हो रही थी. हमे पता था की आसपास कोई आबादी नहीं है तो चिंता होना स्वाभाविक था.
तभी कही दूर से किसी के चिल्लाने  की आवाज सुनाई दी. बहुत हल्की सी. समझ में नहीं आया की माज़रा क्या है. उपर की तरफ देखा तो एक साथी  हाथ हिलाकर हमें उपर आने का इशारा कर रहा था. उसके साथ २ और लोग थे. कहीं कुछ गड़बड़ न हुई हो ये सोचकर हम सब सामान उठाये बारिश और हवा की चिंता किये बिना भाग पड़े. रास्ता और मुश्किल हो गया था. फिर भी साथियों की चिंता..
उसके पास पहुचने पर पता चला कि थोड़ी और ऊंचाई पर एक झोपडी दिख रही है. वहां पहुंचकर शायद बचाव हो सके. हम बढ़ चले. झोपडी तक पहुचे. तब तक बारिश और तेज हो गयी थी. झोपडी के आहते में 5 छोटी छोटी बकरियां बंधी थी. कोई है क्या भीतर? भीतर से कोई आवाज नहीं आई. दोबारा आवाज दी तो एक बूढा आदमी बाहर निकला. हम बताने लगे की इस तरह तुरुंडा के लिए निकले थे...बूढा बोला की पहले भीतर आ जाओ बाद में सब बताना. अंदर गए तो देखा कि एक बूढी महिला भी थी. 
मन मान ही नहीं रहा था कि हम वह रुकें. या बारिश रुकने का इंतज़ार करें. पर सामान की चिंता थी. बूढ़े ने हमारी समस्या का समाधान कर दिया. बोला कि चिंता मत करो. सामान यही छोड़ दो. वापसी में ले लेना. मन मान नही रहा था पर क्या करते क्योंकि पूरे ग्रुप में कोई भी वह रुकने को तैयार नहीं था. यही तय हुआ कि एक रिस्क लेकर देखते हैं.. सामान पचासों हज़ार से ज्यादा का था. फिर भी. तुरुंडा देखने के लिए हम यह कीमत चुकाने को तैयार हो गए, सामान छोड़ दिया. 
ऊपर लगभग दो घंटे कि चढ़ाई. तब तक बारिश रुक गयी थी. सूरज ने भी बादलों के बीच अपना ठांव ढूढ़ लिया था. 
तुरुंडा सच में बेहद खूबसूरत था. (दो पहाड़ों के बीच में एक तश्तरीनुमा घास का बड़ा सा मैदान.) वापस हो लिए. कई बार लगता है कि आदमी मन का गुलाम नहीं है बल्कि कितने ही मौकों पर मन को आदमी के सामने विवश होना पड़ता है. यही हुआ. मन वापसी नहीं चाहता था उस खूबसूरत हरे रंग के कैनवास से. पर क्या करें?
मन तो सामान पर भी अटका था कि सामान का जाने क्या होगा. तेजी से नीचे की तरफ लौट पड़े. जितनी तेज लौट सकते थे. 
झोपडी के बाहर का नजारा देखने लायक था - हम सबने जो भी गीला सामान वहां छोड़ा था वो सब धूप में फैला हुआ था. यहाँ तक की कीचड़ लगे कपड़ों को अच्छे से धो कर धूप में फैला दिया गया था. पूरा सामान व्यवस्थित रखा था. और वे दोनों बुजुर्ग खरबूजे जैसा कोई जंगली फल काटने में व्यस्त थे. गीली अंगीठी पर पतीला चढ़ा था चाय के लिए. पता नहीं शायद भगवन ने हमारे विश्वास की परीक्षा ली थी या हमें एक सीख दी थी की बिना मतलब अविश्वास मत करो. 
वो जंगली फल स्वाद में थोडा खट्टा था. पर उस खट्टेपन की मिठास बहुत रसभरी थी. उस दिन मुझे लगा की क्यों राम ने शबरी के बेर खाए थे. क्यों कृष्ण ने विदुर के घर साग खाया था. उन्हें पता होगा की वनों और अभावों में रहने वालों के पास विश्वास की अमूल्य निधि रहती है..
वापसी में प्रकृति बहतु मुखरित थी और हम बहुत मौन.. 

 

Saturday, May 28, 2011

हम लोग भूखे नहीं सोये


हमेशा की तरह बस निकल पड़े बिना तय किये की जाना कहाँ है. देहरादून से निकले केवल इतना तय किया कि आज कि रात कर्ण प्रयाग (जहाँ अलकनंदा और मन्दाकिनी नदियों का संगम होता है.) रुकेंगे और फिर कल तय करेंगे कि केदारनाथ, बद्रीनाथ, आदि बद्री, हेमकुंड साहिब, फूलों की घाटी या फिर औली कहाँ जाना है. सबके अपने अपने मत थे क्योंकि सब नए रास्ते पर जाना चाहते थे. आदमी है ना, मन के आगे उसकी नहीं चलती. 
देहरादून से एक जीप पकड़ी. और निकल पड़े एक अनजाने सफ़र पर बिना ये फिक्र किये कि आगे होगा क्या.
उस पूरे रास्ते को केवल खूबसूरत कहना शायद बेमानी होगी. और इस से बेहतर कोई शब्द मेरे पास है नहीं. रास्ता सच में बहुत खूबसूरत था. अलकनंदा के किनारे किनारे बहुत कुछ ऐसा मिलता है कि ठंडी हवाओं के बीच भी आप सिर्फ बाहर देखते हैं. अनवरत. आप बहुत सारे लोगों के साथ होते हुए भी सिर्फ अपने साथ होते हैं. अपने ही भीतर गहरे और गहरे. तुलना घाटियों कि गहराइयों और पर्वतों की ऊंचाइयों के साथ अपने आप चलती है. रुद्रप्रयाग, श्रीनगर जैसे स्थान पीछे छूटते रहे. कोई गिनती नहीं कि कितने ऐसे नज़ारे जिन्हें देखकर यही गुमान होता है कि यही सबसे खूबसूरत है और अगले ही पल यह भ्रम टूट जाता है. क्योंकि अगले ही मोड़ पर कुछ और ज्यादा सुंदर.
जुलाई का महीना, आसमान बादलों से भरा था. हलकी हलकी बारिश शुरू हो गयी. ठण्ड कि हल्की सी चादर ने हमें घेर लिया. पर मन था कि खिड़की के बाहर ही अटका था. किसी पहाड़ कि चोटी पर. लेकिन साथियों कि हल्की - फुल्की बातों ने माहौल को काफी हल्का कर रखा था.
 रास्ते में जीप का ख़राब होना. वह दृश्य मुझे लिखते वक़्त ऐसा लग रहा है जैसा किसी फ़िल्मी पटकथा में होता है. इन 2 घंटों से कोई बहुत विशेष फर्क तो नहीं पड़ा. हाँ हम नियत समय से लेट जरूर हो गए.
हम कर्ण प्रयाग पहुचे तो रात काफी बीत चुकी थी. पहाड़ों में रहने वालों कि रात और सुबह वैसे भी जल्दी ही होती है. शहर सोया पड़ा था. मानो मुनादी करवाकर सोया हो कि आज उसे कोई ना जगाये. कहीं कहीं थोड़ी बहुत रोशनी के शेड्स दिख रहे थे. जीप वाले ड्राइवर कि मदद से एक होटल तो मिला. भूख सभी को लगी थी. दिन में खाना नहीं खाया था तो सभी का हाल बुरा था. 
इतनी रात खाने कि व्यवस्था! होटल वाले ने साफ मना कर दिया. यहाँ तक कि चाय भी नहीं. सबके चेहरों पर बड़े बड़े प्रश्न चिन्ह. एक ही उपाय था कि सामने बह रही गंगा का पानी पियो और रात बिताओ. मेरी एक साथी ने मुझसे कहा कि चलो कुछ रास्ता ढूँढने कि कोशिश करते हैं. हम दोनों होटल से निकल गए. थोडा आगे जाकर एक ढलान पर एक घर में मद्धिम सी रोशनी दिखी. (घर इसलिए लगा क्योंकि अंदर से किसी छोटे बच्चे से रोने कि आवाज आ रही थी.) अपर्णा (सहयात्री) ने जाकर दरवाजा खटखटा दिया. मैं सच में डर गया था कि कहीं कुछ गड़बड़ ना हो जाये. अनजाना शहर, अनजाने लोग. दरवाजा खुला. एक महिला ने दरवाजा खोला. उम्र यही कोई 24 -25 साल. (मुझे उस हल्की रोशनी में जितना दिखा).
बहुत नम्रता से पुछा कि क्या बात है. मैंने जो भी यथा स्थिति थी उनके सामने रख दी. वो कुछ देर दरवाजे पर मूर्तिवत खड़ी रही. बोली अंदर आ जाओ.  
आप दोंनो इतनी रात? 
अपर्णा ने कहा कि भाभी हम दो नहीं 5 लोग हैं. और सभी भूखे हैं. अपर्णा ने कह तो दिया पर आगे क्या होगा पता नहीं था.  
उस रात हम लोग भूखे नहीं सोये, हमने चाय भी पी. आज भी जब हम सब मित्र उस रात को याद करते हैं. तो मन एक पवित्र भाव से भर जाता है. अकेली महिला ने हमारे लिए नाश्ता बनाया, मैं और मेरी साथी उस बच्चे के साथ खेलते रहे. आज भी उस बच्चे कि किलकारी कानो में जस कि तस पड़ी हैं. मुझे गर्व होता है कि यायावरों की परंपरा वाले इस देश में आपको आश्रय देने वालों की कोई कमी नहीं.


Friday, May 27, 2011

नदी में नाव, नाव पर बस और बस में हम.

बात 4 साल पुरानी है. पूर्वोत्तर में दूसरी बार और अरुणाचल प्रदेश में पहली बार जाने के मौका मिला. पता चला कि भारत के सबसे पूर्वी जिला लोहित. और उसमे भी रोइंग जाना है.(रोइंग से आगे मुस्मि hills शुरू हो जाती हैं, और भी चीन. यहाँ वह स्थान है जहाँ ब्रह्मपुत्र की सबसे बड़ी सहायक नदी लोहित ब्रह्पुत्र में मिलती है.) 

मुझे सुनकर बिलकुल ऐसा ही लगा था जैसा इस वक़्त आपको लग रहा है कि वहां जाना कितना रोमांचक होगा. खैर. 52 घंटे की रेल यात्रा (तिनसुकिया तक) जिसे रस्ते भर पड़ने वाली बारिश और दीमापुर (नागालैंड) से आगे के रेल के सिंगल ट्रैक ने और मजेदार और खूबसूरत बना दिया था. तिनसुकिया पहुंचे तो रात घिर  चुकी थी. विवेकानंद केंद्र के एक स्कूल में रात बिताई. रात - रात भर बरसती रही. हवा बादलों के साथ लडती रही और हम सुबह शुरू होने वाले एक अनजाने लेकिन रोमांचक सफ़र से बे-खबर सोते रहे.
सुबह उठे. स्कूल की बस में बैठे और चल पड़े. आसमान अभी भी बरस रहा था. लगभग तीन घंटे के सफ़र के बाद हम ब्रह्मपुत्र के किनारे खड़े थे. सामने उफनती हुई नदी, जिसका कोई छोर नहीं. दूसरा किनारा काले बादलों में कहीं खो गया था. उस दिन ध्यान में आया कि क्यों ब्रह्मपुत्र को नद कहा जाता है नदी नहीं. 
उस पार जाना है. लेकिन जाना कैसे है? दूर दूर तक कोई पुल नहीं, कोई और रास्ता नहीं. फिर? इसी बीच एक फेरी(एक बड़ी सी चपटी नाव) किनारे आ लगी. जिस पर पहले से ही आसाम ट्रांसपोर्ट कि एक बस खड़ी थी. उसके पीछे हमारी बस भी फेरी पर चढ़ा दी गयी. हम हतप्रभ से खड़े देख रहे थे कि यह हो क्या रहा है. हमारे साथ विवेकानंद केंद्र के एक कार्यकर्ता थे. उन्होंने बताया कि उस पार जाने का यही एक साधन है. आसाम और अरुणाचल प्रदेश की सरकारों के बीच यह तय नहीं हो पा रहा है की पुल कौन बनवाए. जबकि रोज़ सैकड़ों लोग उस पार से इस पार और इस पार से उस पार जाते हैं. हम किसी तरह डरते डरते फेरी पर चढ़े. और फिर चुप चाप बस में अपनी अपनी सीट पर जा बैठे. ये कैसा अनोखा सफ़र था. नदी में नाव, नाव पर बस और बस में हम. वो भी जब जबकि नदी में बाढ़ आई हुई हो. फेरी चल पड़ी. मैं अपने एक साथी के साथ बस से बाहर आ गया. हल्की हल्की बारिश और खुली हवा, नीचे पूरे वेग से बहती हुई ब्रह्मपुत्र. जैसे एक निमंत्रण हो कि गति, वेग, चपलता अगर सीखनी है तो मुझसे सीखो.
फेरी वालों ने चाय का इंतजाम कर रखा था. इस से बेहतर और क्या हो सकता है.  हवा, बारिश, नदी, फेरी और चाय.... 
डेढ़ घंटे का सफ़र. उस पार पहुंचे. हम उतरे, बस उतरी, फेरी वाले ने पैसे लिए और फेरी वापस. मैं  दूर तक उस फेरी जो जाते देखता रहा. जब तक वो दूर बादलों में खो न गयी. बस चल पड़ी. मुश्किल से 1 किलोमीटर चले थे कि एक जगह बस फंस गयी. उतरो! धक्का लगाओ.. और हो भी क्या सकता था. लेकिन इसके बाद तो बस का फंसना और निकलना - एक सिलसिला सा चल पड़ा. हम 7 लोग और इतनी बड़ी बस. 
ब्रह्मपुत्र का यह किनारा दल दल से भरा था. एक जगह हमारी हिम्मत जवाब दे गयी. एक ही जगह फंसे हुए 2 घंटे हो गये. सूरज बहुत तेजी से क्षितिज की तरफ भाग रहा था. और हम अभी सड़क से बहतु दूर थे. समझ में नहीं आ रह था कि क्या करे. कोई नहीं था जिसे मदद के लिए बुला सकें. कई बार भगवान हम ये बताने कि कोशिश करता है कि उसकी बिछाई हुई बिसातों से सामने हमारी हर चाल बहुत छोटी होती है. 
अचानक 6 महिलाओं का एक ग्रुप सिर पर लकड़ियों का बोझा रखे उधर से गुजरा. हमें देखकर रुके. सामने सब कुछ बहुत साफ था. हमारी हालत देखकर शायद उन्हें अनुमान लग गया कि क्या करना है. हम से से कोई भी उनकी भाषा का एक शब्द भी नहीं जनता था. न ही हमने उनसे कुछ कहा, उन्होंने रस्सी, लकड़ियों, कि सहायता से हमारा साथ देना शुरू किया. पूरे मन से ये लोग हमारे साथ जुट गए. बात करती जाती, हंसती जाती और बस को बाहर निकालने कि कोशिश. लगभग 45 मिनट, हमारी बस दल दल से बाहर. 
समझ में नहीं आया कि किस तरह उनका आभार प्रकट करें. हमारे साथ के उस कार्यकर्ता ने जेब से कुछ पैसे निकल कर देने चाहे . उन्होंने दोनों हाथ जोड़ दिए. अपना अपना लकड़ियों का गठ्ठर सिर पर उठाया, मुड़कर एक मुस्कान दी और चल पड़ी. 
हमारी बस भी चल पड़ी थी. मैंने उन्हें जाते देखा. तो समझ में नहीं आया कि ब्रह्मपुत्र कि उस फेरी और यहाँ इस वैतरणी के इन तारणहारों  में किसकी भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण थी.
7 घंटे बाद हम रोइंग पहुचे. एक और घुप्प अँधेरी रात, थकान. पर बस से बाहर निकलते ही ठंडी हवा ने जब छुआ तो लगा कि अब और कुछ नहीं चाहिए..... 

Thursday, May 26, 2011

ek anokha jeevan....

पिछला लगभग पूरा दिन  चलते चलते बीता था. और रात काट खाने वाली हवा की सांय सांय के बीच. सुबह के चार बजे थे कि मेरे एक मित्र ने आकर जगा दिया की जल्दी बहर आओ. मुझे लगा कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं हुई. टेंट से बाहर निकला तो सामने निगाहें उठी की उठी रह गयी, घाटी घुप्प अँधेरे से भरी थी और सामने वाले बर्फीले पहाड़ पर पड़ने वाली सूर्य रश्मियों से कारण पहाड़ सोने सा चमक रहा था. सबको जल्दी से जगाया. मैं जनता था की ये दृश्य शायद फिर कही न देखने को मिले, हम में से हर कोई इसे आँखों में कैद करना चाहता था.
 
उसके बाद हमारे गाइड (जिसका नाम हमने मोगली  रखा था) ने कहा की यहाँ से तुरंत निकलना पड़ेगा अगर तपोवन पहुंचना है तो. हमने सामान कमर पर लादा और निकल पड़े. 2 घंटे बाद हम वहां खड़े थे जहाँ से गंगा निकलती है. गोमुख.  उस स्थान को देखकर या कहूँ कि जी कर मुझे वहां की शीतलता से जो आभास हुआ तो यही लगा कि जिस स्थान के उद्गम स्थान में इतनी शालीनता और इतनी पवित्रता है वही सब कुछ तो आगे दूर तक बहता है. पहाड़ बहुत स्थिर थे. मुझे यही लगा कि नदियाँ इसीलिए बहती हैं क्योंकि उनके जनक पहाड़ स्थिर खड़े हैं. स्थायित्व में बहने का कितना बड़ा दर्शन छिपा है.
हम आगे बढे. पूरा गोमुख ग्लेशियर पार किया. आखिरी चढ़ाई इतनी जयादा मिश्किल थी कि हम सब ने सोचा भी नहीं था. साँस लेने में कठिनाई हो रही थी. एक दुसरे को सहारा देकर उस बरफ और मिटटी के ग्लेशियर को पार किया. ऊपर पहुंचे तो सामने एक बहुत बड़ा मैदान. बीच में बहती एक छोटी सी नदी. मैदान इतना बड़ा था कि वहां पचासों फुटबाल के मैदान बनाये जा सकते थे.
हालत ख़राब थी. एक छोटा सा पेड़ भी कही नहीं. बरफ और मिटटी बस. थोडा आगे जाने पर जीवन के कुछ चिन्ह दिखे. आगे जाकर देखा तो एक बूढी महिला नदी से पानी भर रही थी. मामला समझ में नही आया. 17000 फुट की ऊँचाई पर बूढी महिला. पूछने पर पता चला की वो यही रहती है बिलकुल अकेली. घर के नाम पर एक गुफा और उस गुफा में जीने के लिए जरूरी सामान. जीवन कैसे चलता है तो पता चला कि कभी कभी आने वाले लोग अपने साथ जो लाते हैं वो छोड़ जाते हैं. उसी से जीवन चलता है. 
 वो आज से 30 साल पहले यहाँ तब अपने पति के साथ उनके गुरु जी से आशीर्वाद लेने आई थी. एक हादसे में पति और गुरूजी दोनों ही नहीं रहे. बस वो वापस नहीं गयी. स्थितियां किनी ही बुरी क्यों ना हो. तापमान शून्य से कितना भी नीचे क्यों ना हो. बर्फीली आंधिया चलती हों. वो तब से वही हैं. अपने मूल स्थान बंगाल कभी नहीं गयी. मेरी आँखों के सामने गांधारी, सत्यवती, सीता, उर्मिला, सुलोचना जैसे कितने ही नाम घूम गए. पर सवाल यह कि आज के युग में यह सब? अगला सवाल यह कि "पहाड़ों में ज्यादा स्थिरता है या इस महिला के दृढ़ निश्चय में "? 
वहां जितनी देर हम रुके. बस उनसे बात करते रहे. वापस लौट पड़े. मन बार बार वापस मुड़ता रहा - पीछे उनके पास. आँखों में मैं आज जीवन की जिजीविषा की पराकाष्ठा लेकर वापस लौट रहा था. मित्र साथ थे मेरे पर मैं सिर्फ अपने विचारों में साथ चल रही उस महिला के साथ.
मुझे लगा की भारत के अलावा यह कहाँ मिलेगा?
    









Wednesday, May 25, 2011

naagaland me ek seekh..


रोज़ मर्रा की एक ही तरह की चलती हुई ज़िन्दगी में कभी कभी कुछ ऐसा होता है जो हमें भीतर तक हिला देता है. आश्चर्य, ख़ुशी, दुःख, और बहुत  सी कुछ. पूरा पूर्वोत्तर देखते देखते एक सुखद आश्चर्य होता रहा. वहां के हालातों को देखकर दुःख, वहां के लोगों के लिए स्नेह और कई बार सुहानुभूति भी, मैं जनता हूँ कि किसी के प्रति सुहानुभूति दिखने का हक मुझे नहीं है. पर यह बात तब तब समझे में आई जब वहां के लोगों का आतिथ्य, परम्पराएँ और संस्कार बहुत बड़े और पवित्र जान पड़े. 
दीमापुर से 8 घंटे सूमो से यात्रा अपने आप में नए नये अनुभवों से भरी थी. हम नागालैंड कि एक सामाजिक कार्यकर्ता अल्फ्रेदा के साथ टेनिंग के लिए निकले थे. यह स्थान परेन जिले में आता है. सड़कों कि हालत इतनी ज्यादा ख़राब थी कि उन्हें सड़क कहना ही शायद गलत था. 8 घंटे का सफ़र हम पांचो मित्रों में से कोई भी नहीं भूल सकता. ख़राब मौसम, रात का अँधेरा, अनजाना रास्ता, अनजाने लोग (वैसे लोग तो वहां शाम के बाद दिखते ही नहीं हैं) और सबसे खतरनाक बात जो हमें बाद में पता चली  कि हम नागालैंड के आतंकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित  इलाके में से गुजर रहे थे.
किसी तरह हमने इस खतरनाक वैतरणी को पार किया. हमे एक सामाजिक कार्यकर्ता के घर पहुचना था. आधी रात बीत चुकी थी. जब हम पहुचे. गाँव में अचानक जैसे हल्ला मच गया क्योंकि जिस गाँव में राज्य का कोई सरकारी आदमी तक नहीं आता - वहां दिल्ली से कोई आया है यह तो उनके लिए एक सपने जैसा था. हम उस घर कि रसोई में पहुचे. उस कार्यकर्ता भीम कि माँ ने जिस स्नेह भाव से हमारे सिर पर हाथ फेरा, वो हाथ और आशीष आजतक साथ साथ चलता होगा.
पहाड़ कि छोटी पर बसा यह छोटा सा खूबसूरत गाँव, ठंडी हवाओं के आगोश में था और पूरी तरह से चांदनी में नहाया हुआ. पुरानी ग्रीक कहानियों के किसी स्वप्निल शहर के जैसा. यहाँ न बिजली है न टेलीफोन. न ट्रेफ़िक न धुआं. अच्चा लगा कि यह अनछुआ भारत कितना खूबसूरत कितना अलग है.
अगले दिन सुबह जल्दी ही आँख खुल गयी. बाहर निकलकर देखा तो गाँव रात से भी ज्यादा शांत और सौम्य लगा. भीम हमारे पास आता तब तक मैं अपने के मित्र से साथ जरा गाँव देखने निकल गया. वैसे भी इस जगह के लोग अपनी राज्य भाषा भी नहीं जानते. तो हिंदी और इंग्लिश और  बहुत दूर कि बात थी. उनके लिए एक कच्ची छत और पेट भरने भर के लिए मिल जाने कि व्यवस्था. पूरे गाँव में किसी भी घर में कोई दिखावा नहीं और न ही कोई आडम्बर. एक छोटा सा मंदिर जिसमे सूर्य कि पूजा होती है. 
वापस आये तो भीम वही खड़ा था. हमारे वह पहुचते ही उसने कहा कि "चलो"  मैंने पुछा - कहाँ?
उसने कहा कि गाँव के पुजारी के घर.
गाँव के पुजारी के घर???? 
इस पर भीम ने जो कहा वो वाक्य प्राचीन भारतीय  संस्कृति कि महान परम्पराओं का प्रतिनिधित्व करता है .
उस ने कहा कि गाँव में एक रिवाज़ कि - गाँव में किसी के घर भी कोई भी मेहमान आये उसका पहला भोजन गाँव के पुजारी के घर होता है. इसका मतलब यहाँ कि मेहमान उस व्यक्ति- विशेष का का मेहमान नह इही बल्कि वह पूरे गाँव का मेहमान है.
मैं कुछ देर जस का तस खड़ा रहा. मैं स्तब्ध था. स्तब्ध इसलिए कि अब जहाँ परम्परा जैसे शब्द केवल किताबों में मिलते हैं. वहीँ दूसरी ओर लोग आज भी इन शब्दों को असल में जीते हैं. इस से बेहतर ओर सुखद कुछ और हो ही नहीं सकता था. तो क्या हुआ कि उनके पास भौतिक सुविधाएँ नहीं हैं. भावनाओ के मामले में वे हमसे कहीं ज्यादा अमीर हैं. 
मन ही मन में मैंने कहा - वाह..... 



Saturday, May 21, 2011

भौतिकता या संवेदनाएं...


टिहरी बाँध के ऊपर उस चक्क्करदार  सडक पर ड्राइवर ने गाडी रोक दी. गाड़ी से बहर निकलकर उस अथाह जलराशि की बीच कही इशारा कर के उसने कहा कि - वहीँ कहीं उसका गाँव हुआ करता था. वाक्य पूरा करते करते उसकी आँखें नम थी. 
कहानी हम सबको पता है. टिहरी बाँध को हकीक़त की जमीन देने के लिए लाखों लोगों के पैरों की जमीन छीन ली गयी. ना जाने कितनों के सिर के ऊपर का आसमान.
जहाँ तक नज़र उठाओ पानी ही पानी. उसे देखकर मेरी समझ में नहीं आया की यह एक रुकी हुई नदी थी या बहती हुई झील.

कहते हैं युग अंधे होते हैं और शताब्दियाँ बहरी. उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा. युगों ने आँखें मूँद ली होंगी और सदियों ने अपने कानो को हथेलियों से दबा लिया होगा. क्योकि समय की उस भीषण चीत्कार को सुनने  का साहस उनमे नहीं था. आँखें मूंदने वालों को क्या पता की उस दिन जलराशि के नीचे क्या क्या निमग्न हुआ था. न जाने कितने गाँव? ना जाने कितने घर? ना जाने कितने पक्षियों के नीड़? न जाने कितनी शताब्दियों के पदचिन्ह?
उस एक घटना ने कितने सम्बन्ध तोड़े उसका कोई हिसाब नहीं. धरती का जिन रास्तों से, रास्तों का जिन पदचिन्हों से, पदचिन्हों का लकीरों से जो सम्बन्ध टूटा उसका हिसाब कौन देगा? यह सच है की भौतिकतावाद  संवेदनाएं नहीं समझता वह केवल विकास की बात करता है. लेकिन मानव के विकास के लिए मानव का ही दोहन? यह कैसा भौतिकतावाद है. 
उन विस्थापितों को देखकर लगता है कि हर रोज़ बिना दस्तक दिए उग आने वाला सूरज उस दिन के बाद उन लोगों लिए फिर कभी नहीं निकला.
चाँद ने रूककर फिर कभी किसी से बात-चीत नहीं की. घरों पर लिपे पुते संस्कार, न जाने कितनी परम्पराएँ, रीति रिवाज सब कुछ  निमग्न हो गया. 
आज भी हजारों फुट पानी की तहों से न जाने कितने घर इस साफ़ बैंगनी आकाश को देखने की कोशिश करते होंगे. कुछ चूल्हों की राख शायद आज भी गर्म हो. कोई नहीं जनता. 
ये सवाल मेरे अपने नहीं थे. जिन लोगों का सब कुछ पानी के नीचे है ऐसे न जाने कितने सवाल आज भी उनकी आँखों में साफ पढ़े जा सकते हैं. जिनका जवाब कोई नहीं जनता.
एक आदमी है जो रोटी खाता है 
एक आदमी है जो रोटी बेलता है 
एक आदमी है 
जो न रोटी खाता है न रोटी बेलता है 
वह सिर्फ रोटी से खेलता है 
मैं पूछता हूँ यह तीसरा आदमी कौन है 
मेरे इस प्रश्न पर देश की संसद मौन है...
ड्राइवर ने कहा की साहब वे कहते हैं  उन्होंने नया शहर बनाकर दिया है. लेकिन मकान दिए हैं, उनमे घरों की आत्मा का गृह प्रवेश कहा हुआ है. संस्कारों की लिपाई, पुताई कहाँ हुई है? 
हम गाड़ी में जा बैठे. पीछे घूमकर देखा तो मानो पानी के भीतर से उठता हुआ शहर हमें रोकने की कोशिश करता है. की क्या उसकी प्यास  इतनी बड़ी थी की पूरा का पूरा समंदर उस के सिर पर धर दिया. उसका कसूर क्या था?
गुनाहगारों में हम शामिल, गुनाहों से नहीं वाकिफ
सजा तो जान ली हमने खुदा जाने ख़ता क्या थी.. 
प्रश्न केवल भौतिकतावाद की सही उपयोग या दुरूपयोग का नहीं है.  प्रश्न मानवीय सही तरीकों और मानवीय संवेदनाओ का भी है. ये सुलगे सवाल आप सब के लिए भी छोड़ रहा हूँ..

Friday, May 20, 2011

उस पार की नर्मदा



मैंने सूरज को इतनी फुरसत में कभी नहीं देखा था. नदी पर इतना स्थिर और स्वभाव के उलट एक सौम्य सूरज.  नर्मदा के साथ में अनुबंध था उसका. वह नर्मदा को सोना देगा और नर्मदा उसे कई गुना कर घाट पर खड़े लोगों को बाँट देगी. अपने पास कुछ नहीं रखती नर्मदा. नदी में घुलता  सोना, बांटता सोना. यह महेश्वर  है. उस दिन से पहले यह नाम कभी सुनने में नहीं आया था. इंदौर के मेरे कुछ मित्रों ने महेश्वर  जाने की योजना बनाई. मेरा मन इंदौर शहर को जरा ढंग से देखने का था. सच कहूं तो इंदौर शहर के साथ जिस स्ट्रीट फूडिंग का नाम जुड़ा है  - उसे भीतर तक देखना और पढना चाहता था. लेकिन मित्रों के कहने और एक नई जगह को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाया. इतिहास का विद्यार्थी होने के कारण उत्सुकता और बढ़ गयी. हम चल पड़े.  

 
 इंदौर - मुंबई हाई-वे पर इंदौर से 110 किलोमीटर दूर है महेश्वर. सड़क अच्छी थी. पर्यटन  विकास के लिया पहला आयाम - अच्छी सड़कें. अच्चा लगा कि उस अवधारणा पर ध्यान दिया जा रहा है. और हम अपनी उस aarkitype  छवि से बाहर निकल रहे हैं. मध्य भारत का यह  क्षेत्र एक विशेष एतिहासिक महत्व रखता है. विशेषकर 17वीं -18वीं  सदी में मराठों कि अंतर्कलह  और द्वन्द को इसी क्षेत्र की  गवाही मिलती है.
रास्ते भर गेहूं, कपास के खेत साथ साथ चलते रहे. सुमित्रा नंदन पन्त और शरतचंद्र  का भारत. सड़क के दोनों और लोग अपने खेतों में कम ने लगे हैं. सडक पर दौड़ती बड़ी बड़ी गाड़ियों से उन्हें कोई सरोकार नहीं. भारतीय किसान के जिस मेहनतकश paradigm को दुनिया जानती है यहाँ आकर वह paradigm और पुख्ता हो जाता है. 
महेश्वर! मध्य भारत  का गौरव रही अहिल्याबाई होलकर की सात्विक, धार्मिक प्रवृत्ति को प्रतिष्ठित करता है. यहाँ अहिल्याबाई की एक गढ़ी (छोटा किला) और उनके रहने को एक साधारण सी हवेली, गढ़ी के अहाते में बड़े बड़े मंदिर. भारतीय वास्तु के उत्कृष्ट उदहारण. गांधार शैली का प्रभाव. गढ़ी के पिछले द्वार से बहार निकलते ही जो दृश्य आँखों के सामने आता है वह कल्पनातीत था. एक कतार में बाएँ बड़े बड़े घाट, घाटों पर बने शिवलिंग. सामने बहती निश्चल, निर्मल और पवित्र नर्मदा. आँखें ठहर गयी. गति, निरंतरता, सौम्यता और समता का एक सजीव प्रवाह. 
साफ आसमान, मद्धम सूरज, और नीचे जीवटता का हरापन लिए नर्मदा. सामने भरे पुरे धानी खेत. कैसा है यह विचित्र समन्वय? रंगों से रंगा हुआ एक कैनवास. कई बार लगता है यह भ्रम है, माया है , जादू है. जादूगरनी सी खेलती धुप आँखों पर चुभती है पर आँखें सामने देखना  चाहती हैं अपलक. किले की प्राचीर की यवनिका पर किसी ने बहुत फुरसत से यह दृश्य गढ़ा है. लोग आते हिं, शिवलिंगों पर जल चढाते हैं नहाते हैं, नर्मदा को कुछ चढाते हैं. वापस लौटते हैं  तो पीछे मुड़कर नर्मदा को देखते हैं. - आँखों में भरकर ले जा रहे हो नर्मदा. 
नाव वाले हमारे पास आकर खड़े हो गए. वे आपस में लड़ते हैं  झगड़ते हैं. हम एक नए लड़के को बुलाते  हैं जो दूर खड़ा था चुपचाप. शान से नाव पर चढ़ाता है. मनो नाव नहीं उसका राजमहल है . पीछे अहिल्याबाई का महल और यहाँ इस नए लड़के का राजमहल. धार के बीच में नाव. सोचा था उस पार जाकर इस पार को देखेंगे. नया लड़का कहता है - डर ना लगता हो तो कही और ले चलूँ?  डर ? बस आजतक यही तो नहीं सीख पाए. चल पड़े. जल से खेलती सूर्य रश्मियाँ. नहीं समझ में आया की हवा नर्मदा को शीतलता दे रही थी या नर्मदा - हवा को? पौन घंटे ने नाव किनारे लगी. पानी का शोर बढ़ने लगा.  नर्मदा ढलान पर थी. पत्थरों के कारन हजारों धाराएँ फट पड़ी - धाराओं के फटने का यह शोर अच्छा लगता है. जीवन से भरा-पुरा शोर. ऐसा लगा की हम पीछे एक नर्मदा छोड़ आये थे और अब एक नई नर्मदा सामने थी. जो पीछे छूटा वह भी सच था और अभी जो सामने था वह भी सच था. मुझे लगा की हर दिन सच कितने रूपों में हमारे सामने होता है. तटस्थ सच. 
  
हरा रंग दूधिया बन गया, प्रवाह- वेग बन गया. और शांति - शोर में तब्दील हो गयी. अगर कुछ स्थाई था तो निर्मलता, गति और पवित्रता. स्थायी थी तो गति, लक्ष्य.  अरे! नदी में घुलता सोना कहा गया? रश्मियाँ कहा खो गयी? यह कैसा परिवर्तन है?
एक और परिवर्तन हुआ - हमरा मानस परिवर्तन, विचार परिवर्तन. पीछे की नर्मदा के पास बैठकर उस से बतियाने का मन हुआ था. कुछ कहने-सुनने का मन हुआ था. यहाँ नर्मदा की तेज़ धाराओं के बीच से उठते जोश को साथ लेकर बहने का मन हुआ. तेज बहने का मन. घंटो गुजर गए पर  उस दूधिया रंग से मन बहार नहीं निकला. नाव वाला नया लड़का आकर बोला - चलें? अभी मुझे कई फेरे मरने हैं. हम लौट पड़े. नाव गतिमान थी. मन तो उड़ रहा था उसी दूधिया रंग के बीच. बिलकुल बीचो - बीच और बिलकुल मौन.
यह बात उस दिन समझ में आई की वापसी हमेशा मुश्किल होती है और मन की वापसी जयादा मुश्किल. जो पीछे छूट गया सब कुछ साथ- साथ दौड़ता है. हम वापस उसी घाट पर लौट आये. नर्मदा के उस पानी का स्पर्श सुखद था. बहुत सुखद. 
सूरज क्षितिज पर जाकर अटक गया. नर्मदा मुखरित हो उहती थी. सोना पिघलते हुए गरम लोहे में बदलने लगा था और क्षितिज पर बादलों के कोने भभकने लगे थे. और हम तीनो फुरसत में थे. मैं, सूरज और नर्मदा. लौटना तो था ही. घाट से महल के मुख्य द्वार में घुसते ही मैंने वापस नर्मदा को देखा. मन था की नर्मदा को आँखों में भरकर ले जाऊ.  मंदिरों के दर्शन किये.  अहिल्या बाई की हवेली देखी. साधारण लेकिन अभी भी सात्विक तरंगो से सराबोर. मुझे लगा कि बड़े होकर भी साधारण बने रहना ही आपको महान बनाता है.
अहिल्या बाई की हवेली देखी. साधारण लेकिन अभी भी सात्विक तरंगो से सराबोर. मुझे लगा कि बड़े होकर भी साधारण बने रहना ही आपको महान बनाता है. यह महल (मैं उसे महल नहीं कहता - क्योंकि उसमे दिव्यता की आभा थी, विलासिता का प्रभाव नहीं.) आज भी उस महान और विदुषी महिला की स्म्रतियों को समेटे गर्व से माथा उठाये खड़ी हो. 
वापसी में फिर से गाड़ी सडक पर दौड़ने लगी. गेहूं के खेतों के पीछे सूरज एक नारंगी उन के गोले सा उधड़ने लगा. प्रतिपल रंग व शेड्स बदलते रहे. और हर दिन की तरह चला गया - संसार को एक नया सवेरा देने. हम वापस आ गए लेकिन उस पार से इस पास की नर्मदा देखने का मन अभी थी वैसा ही है..