उस घटना के बाद मैं हमेशा यही सोचता रहा - कि किसी रात मैं बहुत बेफिक्री के साथ अपने घर में सोया हूँ और रात को अचानक कुछ लोग मेरे घर आकर मुझसे कहें कि मुझे और मेरे परिवार को यह घर, और मुझसे जुडी हर चीज छोड़कर जाना है कहीं भी - लेकिन अभी. हम में से कोई भी इस बात कि कल्पना करे तो शायद सिहर उठे कि वो घर जो उनके पुरखों के पसीने कि गाढ़ी कमाई, स्नेह और उनके होने का सबसे बाद सबूत है क्या कुछ लोगों के कहने भर से उसे छोड़ा जा सकता है? हमेशा के लिए? वो भी अभी. आप जाने को तैयार हैं. साथ कुछ नहीं लेते, जिन कपड़ों में सोये थे वैसे ही उठकर चल दिए. अभी घर से बहर निकले भी नहीं थे कि उन दबंगों में से एक ने घर की एक महिला का हाथ पकड़ा और कहा कि तुम सब जाओ यह नहीं जाएगी. यह यही रहेगी हमारे पास. इतने में बड़े भाई ने विरोध किया तो तलवार के एक वार से उसकी गर्दन अलग, धड अलग. घर के बारह लोगों की जान बचने के लिए एक की क़ुरबानी. महिला के गले से निकली सिसकी वही दबी रह गयी.
मैं सचखंड एक्सप्रेस के उस डिब्बे में घुसा. अपनी सीट पर पंहुचा. तो सामने वाली सीट पर वही बुजुर्ग सिख थे, जिन्हें मैंने कुछ देर पहले सीढियां उतरने में मदद की थी. उन्होंने कहा था कि उन्हें जोड़ों के दर्द की शिकायत है. मैंने गौर से देखा तो ...अच्छी कद काठी और चेहरे पर अभी भी लालिमा, सख्त शरीर उनके पुराने शारीरिक वैभव कि दास्ताँ कह रही थी.
वो आराम से मेरे सामने वाली सीट पर लेट गए. आँखें बंद थी. मानो विश्राम चाहते हो. मैंने अपने बैग से किताब निकली और पढने लगा. माहौल बहुत चुप चुप सा था. मुझे पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने आँखे खोली. और बैठ गए. अचानक मेरे हाथ से किताब लेते हुए बोले. पुत्तर दिखा तो जरा. मैं समझ गया कि उनका ध्यान मेरी किताब "कितने पाकिस्तान" को देखकर ही इधर आया होगा. कुछ देर तक किताब के कुछ पन्ने उलटे. किताब बंद करते हुए बोले "सब बकवास करते है, हम से पूछो कि घर छोड़ने का दर्द क्या होता है, 65 सालों से वो दर्द ढो रहे हैं, उस दर्द कि टीस इतनी गहरी है बेटा कि पन्नों से उसे नहीं समझा सकता. उस एहसास को सिर्फ जिया जा सकता है. पर जीना तो दूर उसके बारे में सोचकर ही रूह कांपती है. ये एहसास रब किसी को ना कराये.
मैं उनके भावों को पढने कि कोशिश करता रहा. " उन्होंने आँखे बंद कि और सर पीछे सीट से टिका लिया. थोड़ी देर के लिए माहौल में एक अजीब सी तल्खी सी छा गयी. मैंने थोडा आगे सरक कर उनके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए. उसके बाद जो दास्ताँ मैंने सुनी वो सच में रूह कंपन देने वाली थी.
मैं सचखंड एक्सप्रेस के उस डिब्बे में घुसा. अपनी सीट पर पंहुचा. तो सामने वाली सीट पर वही बुजुर्ग सिख थे, जिन्हें मैंने कुछ देर पहले सीढियां उतरने में मदद की थी. उन्होंने कहा था कि उन्हें जोड़ों के दर्द की शिकायत है. मैंने गौर से देखा तो ...अच्छी कद काठी और चेहरे पर अभी भी लालिमा, सख्त शरीर उनके पुराने शारीरिक वैभव कि दास्ताँ कह रही थी.
वो आराम से मेरे सामने वाली सीट पर लेट गए. आँखें बंद थी. मानो विश्राम चाहते हो. मैंने अपने बैग से किताब निकली और पढने लगा. माहौल बहुत चुप चुप सा था. मुझे पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने आँखे खोली. और बैठ गए. अचानक मेरे हाथ से किताब लेते हुए बोले. पुत्तर दिखा तो जरा. मैं समझ गया कि उनका ध्यान मेरी किताब "कितने पाकिस्तान" को देखकर ही इधर आया होगा. कुछ देर तक किताब के कुछ पन्ने उलटे. किताब बंद करते हुए बोले "सब बकवास करते है, हम से पूछो कि घर छोड़ने का दर्द क्या होता है, 65 सालों से वो दर्द ढो रहे हैं, उस दर्द कि टीस इतनी गहरी है बेटा कि पन्नों से उसे नहीं समझा सकता. उस एहसास को सिर्फ जिया जा सकता है. पर जीना तो दूर उसके बारे में सोचकर ही रूह कांपती है. ये एहसास रब किसी को ना कराये.
मैं उनके भावों को पढने कि कोशिश करता रहा. " उन्होंने आँखे बंद कि और सर पीछे सीट से टिका लिया. थोड़ी देर के लिए माहौल में एक अजीब सी तल्खी सी छा गयी. मैंने थोडा आगे सरक कर उनके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए. उसके बाद जो दास्ताँ मैंने सुनी वो सच में रूह कंपन देने वाली थी.
बारह जनों का हँसता खेलता परिवार. बड़ी भाई की 5 महीने पहले ही शादी हुई थी. मियाँवाली में सब्जीमंडी के पीछे एक दुमंजिला मकान. बाजार में कपडे कि सबसे बड़ी दुकान और वो सब कुछ जो एक हँसते खेलते परिवार में चाहिए. मैं स्कूल जाता, घर के सामने वाली सड़क से आगे जाकर दाहिने हाथ पर मेरा स्कूल था.
सुबह लोटा भर मठ्ठा, दोनों वक़्त कटोरी भर मक्खन, शाम को आहारे का काढ़ा हुआ गुलाबी वाला दूध, इन सब की कोई कमी नहीं थी.
थोड़े दिनों बाद कौन सी हवा चली क्या पता. दार जी (पिताजी) ने उस दूसरे मोहल्ले की तरफ जाने से मना कर दिया. थोड़े दिनों में स्कूल भी बंद. दार जी सूरज डूबने से पहले ही दुकान बढाकर आ जाते थे. माँ मुझे बैठक में जाने ही नहीं देती थी. वहां दार जी और बाकी मोहल्ले के बड़े लोग पता नही क्या क्या बात करते थे. बड़े भैय्या और माँ ने बीबी (दीदी) को वापस उसके ससुराल भेज दिया तो मैं बहुत रोया था कि मुझे भी उसके साथ जाना है.मैंने जिद की तो माँ ने एक तमाचा लगते हुए कहा था कि बाहर का माहौल पता है कितना ख़राब है? मैं नहीं समझ पाया कि माहौल ख़राब कैसे होता है?
उस शाम को मैंने बड़े भाई से अगली कक्षा में साईकिल लेने का वादा लिया था. मैं हर रोज़ की तरह बिलकुल माँ की बगल वाली चारपाई पर सोया था. (उन दिनों कई बार रात को अजीब अजीब सी रोने चीखने की आवाजें आया करती थीं. इसलिए हम भीतर वाले कमरे में ही सोया करते थे.) रात को अचानक घर के आसपास तेज़ शोर सुनकर सब जाग गए थे और हमारे वाले कमरे में ही जमा हो गए. मैंने देखा की सबके हाथ में कुछ ना कुछ था. मैं तो माँ से चिपका खड़ा था. जब वे सब अंदर आये थे. उनमे से कई चेहरे तो ऐसे थे जिन्हें मैं रोज़ देखता था. सलाम करता था. हमें घर से बहार निकल दिया. माँ ने रोने से मना कर दिया था.मैं चुप था. उन्होंने रज्जो भाभी को पकड़ लिया और भैय्या को हमारे सामने ही तलवार से .............. मेरी चीखें मेरे भीतर ही भीतर चीखती रही थी.
मैं माँ से कई दिनों तक यही सवाल करता रहा की मेरी साईकिल का क्या होगा?
माँ बहुत गुमसुम हो गयी थी. हम कई रात पैदल चले थे. भूख भी लगती थी तो माँ से यही पूछता था की क्या अब आहारे वाला दूध नहीं मिलेगा?
एक दिन रात को पिताजी के मुंह से सुना की सीमा पार कर ली हमने. सब थोड़े से खुश थे. ये "सीमा" क्या थी मैं यही सोचता रहा था कई दिन.
एक आस थी की इस पार शायद रज्जो भाभी दिख जाएँ. इसी आस में अमृतसर, जालंधर और फिर दिल्ली. दरीबा में एक छोटी सी कोठरी मिली. दार जी ने सब कुछ जीरो से शुरू किया. आज जो भी है सब गुरु जी की मेहर है. उन्होंने फिर से आँखे मूँद लीं मानो फिर से उस पुराने दर्द के एक एक कतरे को महसूस कर रहे हो.
मैंने बहुत हिम्मत की और पूछा कि क्या भाभी का कुछ पता चला? तो दो आंसू उनकी पलकों से गिरे और गालों पर बिखर गए. मानों गम के मारे आंसुओंने ख़ुदकुशी कर ली हो. मेरे सामने तो प्रश्नों का पहाड़ खड़ा था. पर पूछने कि हिम्मत नहीं थी.
मेरी रात बहुत उनींदी सी बीती. अगले दिन सुबह मुझे उतरना था. उतारते वक़्त मैंने उनके पाँव छुए. मेरा हाथ पकड़कर बोले - पुत्तर एक बात और बताऊँ.- मैंने सिर हिलाया तो बोले कि मैंने जिंदगी भर साईकिल नहीं चलाई.......मानो मेरे सिर पर किसी ने पूरा का पूरा आसमान रख दिया था. मैं चुपचाप उतर गया और रेल धीरे धीरे अजगर सी सरकती चली गयी. मुझे लगा कि जैसे रेल मुझे "सीमा" के इस पार छोड़ गयी हो जबकि मुझे उस पार जाना था.....