देश की सारी बड़ी नदियों को मैंने अपने अपने स्वभाव से बहते देखा है. बड़ा मन था की गोदावरी के दर्शन करूँ. अवसर मिला या यह कहिये की जो माँगा वो मिला. हैदराबाद में एक दिन मेरे पास था. मैंने सोचा की पवित्र ज्योतिर्लिंग श्रीशैलम के दर्शन कर आऊं. और गोदावरी के किनारे स्थापित होने के कारण गोदावरी के दर्शन भी हो जायेंगे.
मैंने होटल में बात की. सुबह 5 बजे टैक्सी से मैं अपने सारथी (टैक्सी ड्राइवर) के साथ निकल पड़ा. पता चला था कि लगभग एक तरफ से 5 घंटे लगेंगे. इस तरह हमें देर शाम तक वापस आ जाना था. उस दिन का इस से बेहतर उपयोग में नहीं कर सकता था.
जुलाई का महीना था. दक्षिण भारत में इन दिनों खूब बारिश होती है. हमने यात्रा शुरू की बारिश के साथ. तो बादलों ने हमारा साथ नहीं छोड़ा.
आगे जाकर सड़क संकरी हो गयी और बारिश के कारण थोड़ी ख़राब भी. हमने करीम नगर जिले प्रवेश किया. करीम नगर जिला आँध्रप्रदेश में नक्सल वाद से बुरी तरह प्रभावित है. उड़ीसा की सीमा पास होने और जंगलों की बहुतायत के कारण यहाँ नक्सलवाद का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था. उत्तर भारत की तरह सड़क के किनारे गाँव नहीं थे. कहीं कहीं कोई गाँव दिख जाता था. नहीं तो केवल पेड़, पेड़ों के बीच से बहता पानी और मन को सुकून देने वाली ठंडी हवा.
खेती के नाम पर कुछ खास नहीं दीखता, केवल खाली मटमैले और पथरीले landscape. बारिश के कारण गाडी की रफ़्तार कम थी. गोपाल (कार चालक) से बातचीत चलती रही. उत्तर भारत में कई साल रहने के कारण गोपाल की हिंदी अच्छी थी. यह मेरे लिए सुकून की बात थी. समृद्द्धता के कुछ खास चिन्ह वहां नहीं दीखते.
इस तरह हम सुबह १० बजे गोदावरी के घाट पर पहुचे. यह पूरा इलाका पहाड़ी है. १० किलोमीटर के बाद शांत बहती हुई गोदावरी. पहाड़ों पर खड़े पेड़ों की छाया के कारण गोदावरी हरी दिखती है. पर कितनी शांत और सौम्य.इसीलिए नदियों को सभ्यताओं की जीवनरेखा कहा जाता है. गोदावरी के उस पार श्री शैलम का स्वर्ण विहान दीखता है. दूर से दीखता है. आसमान में चमकता एक तेज तारा.
मंदिर के दर्शन किये. भगवान का महान आशीष. कहते हैं कभी अर्जुन ने यहाँ भगवान शिव की आराधना की थी. यह स्थान है भी आराधना के योग्य. साधना के योग्य.
वहीँ एक साउथ इंडियन रेस्त्रों में भोजन किया. लगभग तीन बज रहे थे. गोपाल ने कहा की हमें चलना चाहिए.
वापसी में हम गोदावरी पर रुके. मैंने स्नान किया. एक महान अनुभूति. सूरज अपने रस्ते पर रोज़ की तरह बढ़ रहा होगा. बादलों से उसकी लुका छिपी जारी थी. गोपाल ने कहा की हमें जल्दी निकलना चाहिए क्योंकि रास्ता और माहौल ठीक नहीं है. हम चल पड़े. बारिश अभी भी रुक रुक कर हो रही थी.
हमने गोदावरी का घाट पार किया. और वापस करीमनगर के उस जंगल से गुजरने लगे, शाम घिरने लगी थी, अँधेरा बढ़ने लगा. मै नींद के आगोश में था मेरी आँखें खुली तो अचानक गाड़ी खड़ी थी. हम उस बियाबान जंगल में खड़े थे. गोपाल गाड़ी शुरू करने की नाकाम कोशिश बार बार करता रहा. पर कुछ फायदा नहीं. गोपाल ने बताया कि आगे 30 - 40 किलोमीटर तक कोई शहर भी नहीं है. हम पीछे से भी 60 किलोमीटर दूर थे. यह एक अजीब सी स्थिति थी. हम दोनों गाड़ी से बहर खड़े भीग रहे थे. एक गाड़ी को रोकने के लिए हाथ दिया तो उसने रफ़्तार बढ़ा कर गाड़ी निकाल दी.
मैं सच में बहुत परेशान था. जरूरी अपनी मंजिल पर पहुंचना नहीं था. बल्कि इस नक्सली इलाके और बियाबान जंगल से निकलना जरूरी था.
गोपाल मुझसे ज्यादा परेशान था. वो मुझे कैसे भी सही सलामत चाहता था. उसने थोड़ी देर बाद बहुत धीरे से मेरे पास आकर कहा "सर यहाँ से २० किलोमीटर दूर मेरा गाँव है - मैंने अपने छोटे भाई को फोन कर दिया है वो आ रहा है - आप उसके साथ चले जाइये. मैं रात को गाड़ी ठीक करवाने कि कोशिश करता हूँ." मै चुपचाप गोपाल के चेहरे को पढने कि कोशिश करता रहा.
मेरे सामने विकट समस्या थी. मानो दिमाग ने सोचना ही बंद कर दिया था.
नक्सली इलाका, अँधेरा, बारिश, जंगल, अनजान इलाका, अनजान साथी, और उम्मीद कि कोई किरण नहीं. दिमाग काम करे भी तो कैसे?
लगभग 30 मिनट बाद 2 साईकिल सवार आये. एक की शक्ल गोपाल से बहुत मिलती थी. दोनों की आयु 18 से ज्यादा नहीं थी. मैंने मन से भगवान को याद किया. मेरे पास और रास्ता भी क्या था? मैं बारिश में पूरा भीग चुका था. वैसे बचा भी कौन था. गोपाल का छोटा भाई मिलिंद बोला. आप एक साईकिल लेकर मेरे साथ चलिए. मेरा दोस्त यहाँ भाई के पास रुकेगा. मैंने चुपचाप साईकिल थाम ली. रात के उस अँधेरे में बारिश में 20 किलोमीटर साईकिल चली. रास्ता सीधा लेकिन जंगल के बीच से था. मिलिंद ने अभी अभी 12th पास किया था. आगे पढना नहीं था क्योंकि फिर घर में माँ बाप की देखभाल कौन करेगा और थोड़ी बहुत खेती भी है वो भी संभालनी है.
बातों ही बातों में मैंने डरते डरते यूं ही पूछ लिया - मिलिंद लोग कहते हैं की यहाँ घर - घर में नक्सली हैं. लोगों को क्या मिलता है यह सब करके.
वो बहुत सौम्यता से बोला - आप सही कहते हैं पर अपनी मर्जी से कौन यह सब करना चाहता है . किसे अच्छा लगता है. क्या आपको अच्छा लगेगा की आप हर दम मौत को हथेली पर लेकर घूमे. मै उन्हें सही नहीं मानता. पर उनके पास रास्ता ही क्या है. आज आम आदमी की बात सुनता ही कौन है. गाँधी जी अगर सत्याग्रह अपना रहे थे तो कुछ लोग उग्र भी थे ना?
मैं चुप था. जानता था की इस उग्रता और उस उग्रता में क्या अंतर था, पर उसके कुछ तर्कों का उत्तर मेरे पास नहीं था.
हम घर पहुंचे. घर में एक लालटेन की रौशनी. बूढी माँ और पिताजी के पांव छुए. उन्होंने जिस स्नेह के साथ सिर पर हाथ फेरा. मुझे मेरा घर याद आ गया. वे दोनों मेरी भाषा नहीं जानते थे. पर आँखों में स्नेह की भाषा बहुत कुछ कह रही थी. मां ने रात में खाना बनाया. बे-इंतहा स्वादिष्ट. मैं बहुत कुछ सोचते सोचे उस छप्पर के नीचे एक शानदार नींद सोया.
आँख देर से खुली. पहाड़ की तलहटी में एक छोटा सा प्यारा सा गाँव.
मिलिंद के कुछ दोस्त मिलने आये. मैंने "उस बारे" में उनसे कोई सवाल नहीं पूछा. माँ के साथ कुछ देर तक रसोई में बैठा रहा. गाँव देखा. सुबह सुबह गाँव के युवाओं के साथ वोलीबाल खेला. डर कहाँ चला गया था? कौन सा डर? किस का डर?
लगभग 9 बजे गोपाल आ गया. मैंने बहुत भारी मन से गाँव से विदा ली. गाँव के युवा छोड़े गाँव के बहर तक आये. मैंने पीछे मुडकर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.
गोपाल ने मुझे कहा - सर! आप जिन्हें नक्सली कहते हैं ना ये भी वही सब हैं. मैं चुप चाप उसकी आँखों में झांक रहा था. और बस एक सवाल मेरा रास्ता रोके खड़ा था. "इनमे ऐसा अलग क्या है जो दुनिया से इन्हें अलग करता है - कुछ भी तो नहीं."
और हम ने भी ऐसा क्या प्रयास किया है की उन्हें हम मुख्य धारा में ला सकें.