Sunday, June 19, 2011

एक नक्सली का गाँव..


देश की सारी बड़ी नदियों को मैंने अपने अपने स्वभाव से बहते देखा है. बड़ा मन था की गोदावरी के दर्शन करूँ. अवसर मिला या यह कहिये की जो माँगा वो मिला. हैदराबाद में एक दिन मेरे पास था. मैंने सोचा की पवित्र ज्योतिर्लिंग श्रीशैलम के दर्शन कर आऊं. और गोदावरी के किनारे स्थापित होने के कारण गोदावरी के दर्शन भी हो जायेंगे. 
मैंने होटल में बात की. सुबह 5 बजे टैक्सी से मैं अपने सारथी (टैक्सी ड्राइवर) के साथ निकल पड़ा. पता चला था कि लगभग एक तरफ से 5 घंटे लगेंगे. इस तरह हमें देर शाम तक वापस आ जाना था. उस दिन का इस से बेहतर उपयोग में नहीं कर सकता था. 
जुलाई का महीना था. दक्षिण भारत में इन दिनों खूब बारिश होती है. हमने यात्रा शुरू की बारिश के साथ. तो बादलों ने हमारा साथ नहीं छोड़ा.
आगे जाकर सड़क संकरी हो गयी और बारिश के कारण थोड़ी ख़राब भी. हमने करीम नगर जिले प्रवेश किया. करीम नगर जिला आँध्रप्रदेश में नक्सल वाद से बुरी तरह प्रभावित है. उड़ीसा की सीमा पास होने और जंगलों की बहुतायत के कारण यहाँ नक्सलवाद का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था. उत्तर भारत की तरह सड़क के किनारे गाँव नहीं थे. कहीं कहीं कोई गाँव दिख जाता था. नहीं तो केवल पेड़, पेड़ों के बीच से बहता पानी और मन को सुकून देने वाली ठंडी हवा. 
खेती के नाम पर कुछ खास नहीं दीखता, केवल खाली मटमैले और पथरीले landscape. बारिश के कारण गाडी की रफ़्तार कम थी. गोपाल (कार चालक) से बातचीत चलती रही. उत्तर भारत में कई साल रहने के कारण गोपाल की हिंदी अच्छी थी. यह मेरे लिए सुकून की बात थी. समृद्द्धता के कुछ खास चिन्ह वहां नहीं दीखते.
इस तरह हम सुबह १० बजे गोदावरी के घाट पर पहुचे. यह पूरा इलाका पहाड़ी है. १० किलोमीटर के बाद शांत बहती हुई गोदावरी.  पहाड़ों पर खड़े पेड़ों की छाया के कारण गोदावरी हरी दिखती है. पर कितनी शांत और सौम्य.इसीलिए नदियों को सभ्यताओं की जीवनरेखा कहा जाता है. गोदावरी के उस पार श्री शैलम का स्वर्ण विहान दीखता है. दूर से दीखता है. आसमान में चमकता एक तेज तारा. 
मंदिर के दर्शन किये. भगवान का महान आशीष. कहते हैं कभी अर्जुन ने यहाँ भगवान शिव की आराधना की थी. यह स्थान है भी आराधना के योग्य. साधना के योग्य. 
वहीँ एक साउथ इंडियन रेस्त्रों में भोजन किया. लगभग तीन बज रहे थे. गोपाल ने कहा की  हमें चलना चाहिए. 
वापसी में हम गोदावरी पर रुके. मैंने स्नान किया. एक महान अनुभूति. सूरज अपने रस्ते पर रोज़ की तरह बढ़ रहा होगा. बादलों से उसकी लुका छिपी जारी थी. गोपाल ने कहा की हमें जल्दी निकलना चाहिए क्योंकि रास्ता और माहौल ठीक नहीं है. हम चल पड़े. बारिश अभी भी रुक रुक कर हो रही थी. 
हमने गोदावरी का घाट पार किया. और वापस करीमनगर के उस जंगल से गुजरने लगे, शाम घिरने लगी थी, अँधेरा बढ़ने लगा. मै नींद के आगोश में था मेरी आँखें खुली तो अचानक गाड़ी खड़ी थी. हम उस बियाबान जंगल में खड़े थे. गोपाल गाड़ी शुरू करने की नाकाम कोशिश बार बार करता रहा. पर कुछ फायदा नहीं. गोपाल ने बताया कि आगे 30 - 40  किलोमीटर तक कोई शहर भी नहीं है. हम पीछे से भी 60 किलोमीटर दूर थे. यह एक अजीब सी स्थिति थी. हम दोनों गाड़ी से बहर खड़े भीग रहे थे. एक गाड़ी को रोकने के लिए हाथ दिया तो उसने रफ़्तार बढ़ा कर गाड़ी निकाल दी.
मैं सच में बहुत परेशान था. जरूरी अपनी मंजिल पर पहुंचना नहीं था. बल्कि इस नक्सली इलाके और बियाबान जंगल से निकलना जरूरी था. 
गोपाल मुझसे ज्यादा परेशान था. वो मुझे कैसे भी सही सलामत चाहता था. उसने थोड़ी देर बाद बहुत धीरे से मेरे पास आकर कहा "सर यहाँ से २० किलोमीटर दूर मेरा गाँव है - मैंने अपने छोटे भाई को फोन कर दिया है वो आ रहा है - आप उसके साथ चले जाइये. मैं रात को गाड़ी ठीक करवाने कि कोशिश करता हूँ." मै चुपचाप गोपाल के चेहरे को पढने कि कोशिश करता रहा.
मेरे सामने विकट समस्या थी. मानो दिमाग ने सोचना ही बंद कर दिया था.
नक्सली इलाका, अँधेरा, बारिश, जंगल, अनजान इलाका, अनजान साथी, और उम्मीद कि कोई किरण नहीं. दिमाग काम करे भी तो कैसे?
लगभग 30 मिनट बाद 2 साईकिल सवार आये. एक की शक्ल गोपाल से बहुत मिलती थी. दोनों की आयु 18 से ज्यादा नहीं थी. मैंने मन से भगवान को याद किया. मेरे पास और रास्ता भी क्या था? मैं बारिश में पूरा भीग चुका था. वैसे बचा भी कौन था. गोपाल का छोटा भाई मिलिंद बोला. आप एक साईकिल लेकर मेरे साथ चलिए. मेरा दोस्त यहाँ भाई के पास रुकेगा. मैंने चुपचाप साईकिल थाम ली. रात के उस अँधेरे में बारिश में 20 किलोमीटर साईकिल चली. रास्ता सीधा लेकिन जंगल के बीच से था.  मिलिंद ने अभी अभी 12th पास किया था. आगे पढना नहीं था क्योंकि फिर घर में माँ बाप की देखभाल कौन करेगा और थोड़ी बहुत खेती भी है वो भी संभालनी है. 
बातों ही बातों में मैंने डरते डरते यूं ही पूछ लिया - मिलिंद लोग कहते हैं की यहाँ घर - घर में नक्सली हैं. लोगों को क्या मिलता है यह सब करके.
वो बहुत सौम्यता से बोला - आप सही कहते हैं पर अपनी मर्जी से कौन यह सब करना चाहता है . किसे अच्छा लगता है. क्या आपको अच्छा लगेगा की आप हर दम मौत को हथेली पर लेकर घूमे. मै उन्हें सही नहीं मानता. पर उनके पास रास्ता ही क्या है. आज आम आदमी की बात सुनता ही कौन है. गाँधी जी अगर सत्याग्रह अपना रहे थे तो कुछ लोग उग्र भी थे ना?
मैं चुप था. जानता था की इस उग्रता और उस उग्रता में क्या अंतर था, पर उसके कुछ तर्कों का उत्तर मेरे पास नहीं था. 
हम घर पहुंचे. घर में एक लालटेन की रौशनी. बूढी माँ  और पिताजी के पांव छुए. उन्होंने जिस स्नेह के साथ सिर पर हाथ फेरा. मुझे मेरा घर याद आ गया. वे दोनों मेरी भाषा नहीं जानते थे. पर आँखों में स्नेह की भाषा बहुत कुछ कह रही थी. मां ने रात में खाना  बनाया. बे-इंतहा स्वादिष्ट. मैं बहुत कुछ सोचते सोचे उस छप्पर के नीचे एक शानदार नींद सोया. 
आँख देर से खुली. पहाड़ की तलहटी में एक छोटा सा प्यारा सा गाँव. 
मिलिंद के कुछ दोस्त मिलने आये. मैंने "उस बारे" में उनसे कोई सवाल नहीं पूछा. माँ के साथ कुछ देर तक रसोई में बैठा रहा. गाँव देखा. सुबह सुबह गाँव के युवाओं के साथ वोलीबाल खेला. डर कहाँ चला गया था? कौन सा डर? किस का डर?
लगभग 9 बजे गोपाल आ गया. मैंने बहुत भारी मन से गाँव से विदा ली. गाँव के युवा छोड़े गाँव के बहर तक आये. मैंने पीछे मुडकर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. 
गोपाल ने मुझे कहा - सर! आप जिन्हें नक्सली कहते हैं ना ये भी वही सब हैं. मैं चुप चाप उसकी आँखों में झांक रहा था. और बस एक सवाल मेरा रास्ता रोके खड़ा था. "इनमे ऐसा अलग क्या है जो दुनिया से इन्हें अलग करता है - कुछ भी तो नहीं."
और हम ने भी ऐसा क्या प्रयास किया है की उन्हें हम मुख्य धारा में ला सकें.







  


Friday, June 17, 2011

राख भरी उन हथेलियों से सामना ना हो जाये...


एक दिन और गुजर जाने पर आप उस दिन पर फ़क्र कर सकते हैं कि बीते हुए लम्हों को आपने वैसे जिया जैसा आप जीना चाहते थे. वो दिन आपकी जिंदगी के सीने पर एक कभी भी न मिटने वाली इबादत की तरह जड़ा रह सकता है. ऐसा ही एक दिन मेरे साथ शायद तब तक सांसे लेता रहेगा जब तक मैं जिंदगी के सफ़र में हूँ. 
पिछले 6 घंटे की बस की यात्रा ने मुझे बहुत थका दिया था. रात सोने की कोशिश में कट गयी थी. सुबह के लगभग 5 बजे थे, बस एक ढाबे पर रुकी, कंडक्टर ने आवाज लगाई, अगर किसी को चाय वाय पीनी हो तो पी लो. हम 20 मिनट बाद चलेंगे. मै नीचे उतर गया. मुझे जानने वाले सब लोग जानते हैं कि चाय मेरे लिए क्या मायने रखती है. 
मैं एक टेबल के सामने जाकर बैठा - सामने से 12- 14 साल का लड़का आँख मलते हुए मेरे पास आ खड़ा हुआ. पहले मैं समझा नहीं. वो लगातार मुझे देखा रहा था. थोड़ी देर में मुझसे बोला - "क्या चाहिए"
मैंने जल्दी से बोला - "एक चाय" 
वो चला गया. वापस आया तो हाथ में चाय का गिलास था. उसकी आँखें अब पूरी खुल चुकी थी. पक्का रंग और बड़ी बड़ी आँखें.  
मैंने चाय ली और उससे उसका नाम पूछा . उसने नाम तो नहीं बताया उलटे मुझे ऐसा देखा जैसे मैं कोई असामाजिक तत्व हूँ. 

वो वापस गया और बाकि यात्रियों से मुखातिब हो गया. मैं उसकी तन्मयता देख रह था. उसे इस बात से कोई मतलब नहीं था कि बस से उतरा आदमी किस स्तर या किस जात का था. सबके लिए एक जैसा. चुस्त और बेपरवाह सा.
मैं बस उसे देख रहा था. चाय ख़तम होते ही मैंने उसे बुलाया.
कहाँ रहते हो? माँ बाप कहाँ है? कितने पैसे मिलते हैं? कितने घंटे काम करते हो? पढाई? मैं उस से बहुत सारे सवाल पूछना चाहता था.
आया भी मैंने सवाल दागे भी - वो बोला - 
साहब आपके पास सवाल बहुत हैं और मेरे पास काम. यहाँ सवालों में उलझा तो काम कौन करेगा? 
वो चला गया. भीतर. शायद बर्तन मलने. मैं  अपने सवालों के साथ वहीँ ठगा सा बैठा रहा.
लोग बस में चढ़ने लगे थे. मैं भी चढ़ा. अपना बैग लिया और उतर आया. क्यों? आज भी यही सोचता हूँ कि मैं उतरा क्यों था?मैं आधे दिन भर ढाबे पर रुका. मालिक से आग्रह फिर अनुमति  के बाद मैंने बर्तन भी धोये, लोगों से ऑर्डर भी लिया (सच कहूं तो लोगों कि उपेक्षित निगाहों का सामना किया), भाजी काटी, झाड़ू भी लगायी. वो लड़का मुझे देखकर मुस्कुराता रहा था. गुनगुनाता भी था जैसे जिंदगी के किसी गीत पर झूमता हो. मैंने उसे नहाते नहीं देखा. शायद मुंह भी नहीं धोया था. एक बार बैठे देखा, हाथ में मैगजीन - वो तस्वीरें देखता रहा था शायद. 
मैंने जाकर पूछा - पढ़ते भी हो? उसने ना में गर्दन हिला दी. 
मैंने पूछा - बिलकुल भी नहीं? - उसने और बड़ी गर्दन हिला दी. 
माँ बाप?- पास के गाँव में रहते हैं. 
घर कब जाते हो? - कभी कभी. 
बाप क्या काम करता है? - दारू पीता है.
काम क्या करता है? - वो चुप रहा. 
कब से यहाँ काम करते हो? -  उसने पाँचों उँगलियाँ दिखाई और बोला - चार साल से. 
कितना पैसा मिलता है - 300 रूपये और रहना - खाना.  (दस रूपये रोज़)
पढने का मन नहीं होता? - होता है. पर मन होने से सब कुछ होता है क्या? (उसने कितनी मासूमियत से कितना बड़ा दर्शन मेरे सामने फेंका था)
उनके भाग्य और होते होंगे, देखो मेरी लकीरों में पढना लिखा है क्या? 
उसने अपने दोनों हाथ मेरे सामने फैला दिए. मैंने हाथों की तरफ देखा, बर्तन मलने की राख कहीं कहीं हथेलियों में भरी थी. मेरी निगाहें झुक गयी, मेरी हिम्मत नहीं थी कि उस से आँखें मिला सकता. मुझे लगा कि  यह देश जिसके लिए ना जाने कितने खून बहा था. इसलिए तो नहीं  ना कि बालकों को उनका लड़कपन भी ना नसीब हो. 
थोड़ी ही देर में मैंने अपना बैग उठा लिया. मैंने सड़क के किनारे खड़े होकर बस का इन्तजार करता रहा...... 
मुझे अब भी किसी भी ढाबे पर उतरने से डर लगता है कि कहीं उन दो आँखों और राख भरी उन हथेलियों से सामना ना हो जाये.
 


Monday, June 13, 2011

यह सब ईद से कम भी नहीं.

मोईन संस्कृत में  MA कर रहा है. और आगे जाकर रिसर्च करना चाहता है. नईम मूर्तियाँ बनाना सीखता है और आगे जाकर एंटीक चीजों का व्यापार करना चाहता है. मैं सामने फैली पड़ी उस झील पर निगाह डालता हूँ. तभी एक परिंदा सामने से आसमान में ऊँचा उड़ता दिखता है कोशिश करता हूँ  तुलना कर सकूं - इस समय इनके सपनों की उडान ऊँची है या इस परिंदे की. 


इस समय उन दोनों की आँखे और गहरी दिखाई दीं.
मैं फतेहपुर से फतेह सागर की तरफ पैदल ही चल पड़ा था. हाथ में कैमरा और कन्धों पर बैग. सूरज ने अभी अभी पगडण्डी से उतरना शुरू ही किया था. गर्मी अभी भी वैसी ही थी - तेज. मैंने जान बूझकर पैदल रास्ता पकड़ा था. एक्का दुक्का लोग आ जा रहे थे, वातावरण में एक अजीब सा आलसपन छाया था. पीछे से किसी मोटर साईकिल का होर्न, मैं किनारे हुआ. अचानक एक तेज ब्रेक की आवाज. एक बैठा लड़का पीछे मुड़ा और बोला - "लिफ्ट?" कहाँ तक जाओगे? 
मैंने कहा फ़तेह सागर तक. 
मैं बैठ गया. कुछ ही मिनटों में हम फ़तेह सागर पर थे. सूरज और नीचे उतरने लगा था. उन दोनों से बात होती रही. उनके नाम, पढाई, काम, घर - बार और बहुत कुछ, वे बताये जा रहे थे और मैं सुनता जा रहा था. उतने ही मन से जितने मन से मैं सूरज को नीचे झील में झांकते  रहा था. फिर मैं अपनी सुनाता रहा और वे सुनते रहे शायद उतने ही मन से. 
"और इस तरह हर जुम्मे की पाक नमाज़ के बाद हम निकल पड़ते हैं के कोई अजनबी शहर में आया हो तो उसे शहर से रूबरू करवा सकें" नईम के इस आखिरी वाक्य ने मुझे भीतर तक हिला दिया था.
मैंने घडी में देखा तो 5 बज रहे थे. आठ बजे मेरी ट्रेन थी. उज्जैन के लिए. तीन घंटे मेरे पास थे. उदय सागर, पिछौला झील, बड़ी झील, सहेलियों का बाड़ा और बहतु कुछ उन दोनों के साथ देखा. 

आज मैंने उदयपुर को उन दोनों के पीछे बैठकर एक नए रंग में देखा था. शहर जाने कितने कितने रंगों में रंगा था. शाम कुछ ज्यादा ही सिन्दूरी थी और आसमान कुछ ज्यादा ही खिला था.  सूरज को मैंने गिरते देखा था बड़ी झील में. मैं साँझ भर उड़ता रहा था. बड़ी झील से वापसी के समय. मोईन उतर गया. 
मैंने नईम के साथ उदयपुर का बाजार देखा. कुछ खरीदारी भी की. 
8 बजने वाले थे. नईम ने मुझे स्टेशन छोड़ा. प्लेटफ़ॉर्म तक मेरे साथ आया. मुझे बैग भी नहीं उठाने दिया. बीच में मैंने एक दो बार पूछा के मोईन कहाँ है तो नईम ने कहा के बस आता ही होगा. गाड़ी का हूटर बजने लगा था. मैं दरवाजे पर खड़ा सोच रह था की जिन्हें में दोपहर तक जानता तक न था उन्होंने मुझे एक शानदार दिन उपहार में दिया था. इन्हें अजनबियों को शहर दिखाकर क्या मिलता होगा. 
मेरी आँखें अभी तक मोईन को खोज रही थी जो अचानक कहीं गायब हो गया था. मैं प्लेटफोर्म पर खड़ा था पर चाहता था की मोईन भी होता तो अच्छा होता. गाड़ी ने दोबारा हूटर दिया . नईम ने आगे बढ़कर मुझे गले लगाया. मैं एक शब्द भी नहीं बोल पाया. कोई शब्द था ही नहीं मेरे पास. मैएँ अपने आप को इतना रिक्त कभी भी नहीं पाया था.गाड़ी ने सरकना शुरू किया. देखा तो तभी मोईन दौड़ता हुआ आ रहा था. मेरे पास पहुँचता तब तक में दरवाजे पर चढ़ चुका था. प्लेटफोर्म खत्म होने तक वो दौड़ता रहा था. आखिरी लम्हे में उसने मेरे हाथ में कागज का एक थैला पकड़ा दिया और जोर से बोला "घर से लाया हूँ". 
मैं बहुत देर तक उन दोनों के हिलते हुए हाथ देख रहा था. जब तक देख सकता था. थोड़ी देर में स्टेशन, प्लेटफोर्म, रोशनियाँ सब कुछ अँधेरे में घुल चुके थे. मैं अपनी सीट पर पहुंचा.
थोड़ी देर तक आँखें बंद करके सिर टिकाये बैठा रहा था. पूरा दिन मेरी आँखों के सामने खेल रहा था. थोड़ी देर बाद मैंने धीरे से कागज का वो थैला खोला. प्लास्टिक के दो डिब्बे. पहला खोला तो उसमे तीन खमीरी रोटियां थी. और दूसरे डिब्बे को खोलकर मैंने कुछ देर जड़ हो गया था. तटस्थ. उस डिब्बे में सिवैय्याँ भरी थी. मेरे मूंह से निकला - आहा! डिब्बा खुलते ही एक मीठी सी महक पूरे डिब्बे में घुल गयी.    
अचानक याद आया. अरे! शाम को झील के किनारे बातों बातों में मैंने कहा था - "मैंने कभी ईद पर बनने वालीं सिवैय्याँ नहीं खायीं." अरे......
कितनी ही देर तक मेरे सामने तीनों खमीरी रोटियां और सिवैय्याँ ऐसे ही रखी रही. मैं समझ नहीं पा रहा था की आज ईद तो नहीं थी. पर  उसी पल लगा की यह सब  ईद से कम भी नहीं.
   

Friday, June 10, 2011

एक नया दर्शन - एक नया सन्यासी


कई बार आपके अपने तथ्य आपके अपने ही सामने खड़े होकर आप पर हँसते हैं, कई बात आपका अपना ज्ञान और आपकी अपनी परीधियाँ सिमट कर इतनी छोटी हो जाती हैं कि आप उसमे अपना अस्तित्व ढूढ़ रहे होते हैं. 
उस रात मैं गंगा के किनारे उस भीड़ में खड़ा अपने उस अस्तित्व को ढूंढ रहा था, जो लाखों लोगो कि उस असीम श्रद्धा के बीच कहीं गुम था.  
मन गंगा कि उस चमकती बालू के बीच कहीं बिखरा सा पड़ा था. कण - कण छितरा हुआ सा.  वो रात बहुत ठंडी थी. कुम्भ के बारे में अब तक जितना सुना था उसे अनुभव करने की  जिज्ञासा उस सुनने से कहीं ज्यादा बड़ी थी. हमेशा की तरह अकेला था. 
वहां भीड़ बहुत होती है यह सुना था अपार जन समूह होता है. पर वहां पहुचकर लगा कि यह भीड़ कहाँ है? बल्कि यहाँ तो गंगा की पवित्रता के समानांतर श्रद्धा कि एक अनोखी दुनिया बह रही है.
मैं भी बहता रहा उस किनारे पर बैठकर. कडकडाती ठण्ड में लोग गंगा के उस जमा देने वाले पानी में खड़े हैं. नहा रहे हैं. तन पर कोई कपडा नहीं. कौन किस जात का है क्या पता? कौन कितना अमीर, कितना गरीब - गंगा कहाँ जानती है? पाप पुण्य यहाँ एक ही धार में बहते दिख रहे थे. मैं गंगा एक उस किनारे पर बैठा सोच रहा था कि यह कौन सी दुनिया है. बाहर  की दुनिया से कितनी अलग. 
यह सब सोचते हुए मैंने देख रहा था एक सन्यासी (उम्र 35 से भी कम होगी) मैं पीछे पीछे चल पड़ा. उसने मुझे देखा भी नहीं था की मैं उनके ठीक पीछे था. भीड़ में से निकलते बचते मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी  दूसरे लोक में हूँ. भौतिकता से दूर संवेदनाओ की दुनिया. मैं पीछे पीछे चलता रहा. मानों कोई सम्मोहन में खिंचता है. मैं बात करना चाहता था की ऐसा क्या होता है लोगों के जीवन में - जो जीवन की दिशा मोड़ देता है. जीवन का ध्येय बदल देता है और तथागत बुद्ध की तरह जगा देता है एक नया दर्शन.
थोड़ी ही देर में हम दोनों गंगा के किनारे से थोडा दूर बने एक अस्थाई आश्रम में में थे. आश्रम बड़ा था. अनेक तम्बू लगे थे और बिलकुल बीच में लहराता हुआ सफ़ेद ध्वज. 
मुझे आश्रम में घुसते देख सन्यासी वही रुक गए. वापस मुड़े. उनकी आँखों में उमड़े प्रश्नचिन्हों को  देखकर मैं कुछ  कहता उन्होंने कहा -  आओ. मैंने आगे  बढ़कर पाँव छुए. मेरे सिर पर हल्का सा स्पर्श. एक शांत सा अनुभव. सामने बने एक खुले तम्बू में हम जा बैठे. सुबह के 4 बजने वाले थे.
बाहर की उस दिव्यता और पवित्रता के प्रभाव यहं भी साफ साफ अनुभव किया जा सकता था. मैं अभी तक उस वातावरण के प्रभाव में था. हल्का फुल्का परिचय और फिर उन्होंने जो भी कहा - मेरे सारे प्रश्न मानो गंगा की धरा में बह गए.

IIT का विद्यार्थी - जिसने नुक्लिएर विज्ञान में मास्टर्स किया. फेलोशिप ली और फिर सन्यासी बन गया. 
क्यों? 
एक निश्छल मुस्कराहट, और सपाट सा जवाब. क्या हर कारण का उत्तर होना आवश्यक है? 
क्या यह निर्णय लेने से पहले आपने स्वयं को इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया था? मैंने पूछा . 
एक और मुस्कराहट - नहीं!! इस प्रश्न के उत्तर के लिए ही तो निकला था. 
ये जो इस देश की मिटटी है ना, इसमें हजारों उदाहर मेरे सामने प्रश्न बनकर खड़े थे. जितना जानने की कोशिश करता हूँ उतना ही ज्यादा उलझता हूँ. मैंने बहुत कुछ पाया तो खुद पर गर्व था कि वो सब पाया जो मैं पाना चाहता था. लेकिन जब बाहर  निकला तो लगा कि भारत का एक एक आम आदमी मुझसे कहीं ज्यादा संतुष्ट है. कहीं ज्यादा पवित्र है. बाहर जो लोग तुमने देखे हैं ना, ये सब स्वर्ग पाने  की इच्छा से नहीं आये हैं बल्कि उन्हें गर्व है कि वे उन परम्परों का हिस्सा हैं जो सदियों से चली आ रही हैं और वह सब इनका अपना है.
फिर भी इस तरह केवल सन्यासी बनना कौन सा समाधान है? - मैंने पूछा. 
समाधान नहीं चाहिए था - संतुष्टि चाहिए थी.
उठ खड़े हुए. मेरा हाथ पकड़ा. आओ .  
मैं साथ साथ चल पड़ा. 
जिस तम्बू में हम अब तक बैठे थे उसके पीछे एक बड़ा सा तम्बू था. उन्होंने उसके दरवाजे का कपडा हटा दिया, हम भीतर गए. लगभग ५० पलंग लगे थे. भीतर हलकी सी रौशनी. पहले ही पलंग पर एक बुजुर्ग थे, सन्यासी को भीतर देख उठ बैठे, सन्यासी उनके पास गए. मैं साथ था. पास जाकर देखा तो उस बुजुर्ग के हाथो - पैरों पर पट्टियाँ बंधी थी. खून से भरे कई घाव खुले थे. मैं कांप उठा. हालत सच में बुरी थी.
एक के बाद एक तीन लोगों को देखा. मैं झटके से घूमा और तम्बू से बाहर. 
वो मेरे पीछे पीछे वापस आ गए. पूछा क्या हुआ?
मैं कुछ भी बोलने की  स्थिति में नहीं था. 
बोले - ये वे लोग हैं जिन्हें इस बीमारी (कोढ़) के कारण उनके घरवालों और बच्चों ने बाहर निकल दिया था. मुझे लगा कि इस तरह के लोगों  को मेरी बहुत जरूरत है. "अब यही मेरी दुनिया है और यही मेरा कर्म" तुम ही कहो कि यह समाधान का विषय है या संतुष्टि का?
क्या मेरा विज्ञान मुझे यह संतुष्टि दे सकता था. 
मैं निरुत्तर खड़ा था. मेरे पास और उपाय भी  क्या था?  मुझे लगा कि गंगा के किनारे उस बालू में ही मेरे पाँव धंसे जा रहे थे. सामने भीड़ बहुत थी लेकिन मैं बहुत अकेला खड़ा था. अपने पण में. मैं थोड़ी देर के लिए अपने ही भीतर बैठना चाहता था. मुझे एक नया दर्शन मिला  था. जीवन के लिए ध्येय  आवश्यक नहीं होता. संतुष्टि आवश्यक होती है. यह कौन सा भारत है? क्या यह देखने मैं कुम्भ आया था? काश हम सब लोग अपनी अपनी जिम्मेदारियों को थोडा बढ़ा सकते....
  

Wednesday, June 8, 2011

बालकों को उनका बचपन दे सकें


मैं बस यूं ही निकल पड़ा था. रात के लगभग 11 बजे होंगे. होटल के कमरे के भीतर फिर बाहर की लॉबी में जब मन न लगा तो शाल लेकर मैं माल रोड पर निकल पड़ा. हवा ठंडी जरूर थी पर सुकून देने वाली थी. अन्दर बढ़ा, माल रोड की रौनक कम हो गयी थी. पानी में पड़ने वाली रोशनियों के प्रतिबिम्ब कई बार ऐसे कांपते से दीखते हैं जैसे फुटपाथ पर सोने वाले उस ठण्ड में कांप उठते हैं.  
 मेरे साथ मेरे साये के अलवा और कोई नहीं था. (अँधेरा आते ही वो भी साथ नहीं था) इस अकेलेपन में मेरे साथ कोई था तो झील. निस्तब्ध और शांत. 

मैं कच्ची सड़क पर था. मैं बहुत देर तक टहलता रहा था. और हर बार जाकर मेरी नजर एक ही जगह रुकी थी. रास्ते में झील के किनारे उस बेंच पर बैठी एक आकृति पर. मैं बहुत देर तक समझने की कोशिश करता रहा था. फिर लगा कोई मेरी ही तरह होगा जिसे कमरे की गरमाहट से बाहर की ठण्ड ज्यादा लुभा रही होगी. 
ठण्ड बढ़ने लगी थी. थोडा थोडा कुहासा भी ज़ोर मार रहा था. मैं वापस जाने की सोच ही रहा था कि पीछे से आई आवाज ने मुझे रोक दिया. "अगर आप और थोड़ी देर यहाँ हैं तो हम साथ साथ झील का एक चक्कर मार लें. मैं उस विनम्र आग्रह को ठुकरा नहीं पाया" सड़क के किनारे लगी बत्तियों कि रौशनी में पहली बार वो चेहरा दिखा. साठ पार कर चुका लेकिन एक तेजस्वी चेहरा जो ज़िन्दगी कि ठोकरें खाकर तपा होगा. उन्हें देखकर तो मुझे एक पल लगा कि उनका गाम्भीर्य इस झील को चुनौती दे रहा हो.
"मैंने बहुत दिनों बाद किसी नौजवान को इस तरह अकेले घूमते देखा है. मानो चेखव कि कहानी का कोई किरदार सड़क पर उतर आया हो. बहुत शांत और बहुत भावुक. इतनी रात को अकेले सड़क पर क्यों थे? पहले तो मैं चेखव का नाम सुनकर चौंक पड़ा. उनके इस वाक्य को मैं बहुत देर से समझ पाया. चेखव कि कहानियों के कई किरदार मेरी आँखों के सामने जिन्दा हुए और मरे"
"बस यूं ही - कमरे की घुटन से यहाँ कहीं ज्यादा सुकून मिलता है.
आप का परिचय?
मैं मेरा नाम अतुल्य पाठक है. नैनीताल  के उस ऊंचे पहाड़ के पीछे पंगोट के पास मेरा गाँव है. बचपन उसी गाँव में बीता इसलिए उसे अपना कहता हूँ. वैसे अपनेपन के लिए अब कुछ बचा नहीं है वहां. पर उन यादों का क्या करें जो पोटली की शक्ल में साथ साथ चलती हैं. 
मैंने पूछा कि यहाँ  - इतनी रात को आप अकेले?
मैं पिछले १३ सालों से हर रोज यहाँ आकर बैठता हूँ. अकेला. 
आप करते क्या हैं? मैंने एक और सवाल दागा.
कुछ नहीं करता. बस एक ही कोशिश करता हूँ कि जो जीवन में मुझे नहीं मिल पाया वो उन्हें दे सकूं जिन्हें देखकर यह लगता है कि उन्हें भी उसे पाने कि कोई सम्भावना नही. मैं समझ नहीं पाया. 
हम इन बातों के दरमियाँ वहीँ पहुच चुके थे जहाँ से सफ़र शुरू हुआ था, उन्होंने शाल के नीचे से कुर्ते कि जेब से एक कागज निकाला. उपर की जेब से पैन. कुछ लिखा और मेरे हाथ में थमाते हुए बोले - कल मिलेंगे. बस पलटे और विपरीत दिशा में चल दिए. मेरे सामने अँधेरे से भरी हुई सड़क थी. और दाहिनी तरफ धुंध से भरी हुई झील. मैं बहुत आहिस्ता आहिस्ता होटल की तरफ चल पड़ा कि यह था क्या? 
मैंने कमरे में जाकर कागज देखा उस पर लिखा था "स्नेह छाया"
मैने कागज  को देखा और सब कुछ सुबह पर छोड़ सो  गया, पता ही नहीं चला कि अगले दिन आँख इतनी जल्दी क्यों खुली. मैंने बस चाय पी. शाल उठाई और रिसेप्शन पर जाकर "स्नेह छाया" पूछा. पता मिल गया.
सूरज ने अभी अभी झील के साथ खेलना शुरू किया था. पूरा नैनीताल ठन्ड कि चादर ओढ़े पड़ा था. मैं फिर भी निकल पड़ा. पूछते पूछते एक मकान के सामने पहुंचा जिस पर लिखा था "स्नेह छाया" बाहर कुछ बच्चे खेल रहे थे. और उनके साथ खेलते हुए वही सज्जन. जो रात कि अपेक्षा कहीं जवान और तरोताजा दिख रहे थे. मैं उनके साथ भीतर गया. 
२३ बच्चे और मैं इस घर में बस हम ही रहते हैं. दिन भर खूब मस्ती करते हैं. खेलते हैं - पढाई भी खूब करते हैं. मार पिटाई भी. मस्ती भी खूब. 
ये बच्चे जब यहाँ आये तो इनका कोई नहीं था. आज इनके पास सब कुछ है.
मै केवल 3 साल का था जब माता - पिता का साया सर से उठ गया. और कोई था नहीं. पड़ोसे के एक चाचा ने पाला पोसा. उस पल पोस में  मैंने बचपन ऐसे बिताया कि मुझे अनुभव ही नहीं है बचपन होता क्या है. १३ साल का था जब उस गाँव से भागा. सड़क कि किनारे ढाबे पर बर्तन धोये. शहर भागा. काम किया, जो काम मिला वो किया  और फिर पढ़ा भी. डॉक्टरेट करने के बाद अच्छी अच्छी नौकरी के ऑफर थे. शादी नहीं की. मैं उनसे अपने अभाव दूर कर सकता था. पर अभावों  के सामने भाव जीत गए. मैं वापस लौट पड़ा. इन बालकों के रूप में अपना बचपन तलाशने. वही बचपन आज तक तलाश रहा हूँ. इनके साथ होता हूँ तो लगता है माँ -बाप सब साथ हैं. समाज के सहारे इस स्नेह के बंधन को जोड़ पाया हूँ. 
हर रोज झील के किनारे बैठकर यही सोचता हूँ कि क्या मैं सच में बालकों को वो दे पाया हूँ जो उन्हें मिलना चाहिए था. 
मैं चुप चाप बैठा सोच रहा था कि सच है या सपना. कोई कैसे जीवन का लक्ष्य यह बना सकता है कि - बालकों को उनका बचपन दे सकें - उनमे अपना बचपन ढूंढ सके. कितने लोग हैं जो जीवन को इतना आसन बना लेते हैं.
मैं भी थोड़ी देर बालकों के साथ खेला. कहानियां सुनाई, हंसा भी और हंसाया भी. उन्होंने सच कहा था. इन बालकों में अपना बचपन. यह एक नया शोध विषय था. 
मैं वापस लौटा. मन बहुत खुश था. उस अनजानी खुशी से.मुझे मिला क्या था? मैं इतना प्रसन्न क्यों था. मैं झील के किनारे उसी बेंच पर जा बैठा जहाँ मैंने पिछली रात उस आक्रति को देखा था. न जाने कितनी देर मैं वहां बैठा रहा. मैंने देखा कि माल रोड कि रौनक बढ़ने लगी थी.   
पर मुझे लगा कि ये रौनक उस व्यक्ति की मन की रौनक के सामने  से कितनी फीकी है. 

Monday, June 6, 2011

वाह रे भारत के गाँव.

कई बार हम जिंदगी के ऐसे दोराहे पर खड़े होते हैं. जाना से वापसी मुश्किल होती है और आगे जाने का विकल्प खत्म हो चुका होता है. यह बात तब तक अनुभव पर नही उतरी थी. हमने सुबह सूरज निकलने से पहले ही चढ़ाई शुरू कर दी थी. शुरुआत अच्छी नहीं थी क्योंकि उस गाँव से बहार निकलते ही नदी पार करते समय हमारे  दो साथी नदी में गिर गए थे. हम उनकी हालत समझ सकते थे क्योंकि सामने बर्फीले पहाड़ हमें दिख रहे थे. जहाँ से नदी बह कर बस जरा सा नीचे आई थी. वापस जाना नहीं था इस लिए बस चल पड़े.





सामने के पहाड़ पर बसे उस गाँव को हमने पार किया तो पता चला कि इस दिशा में यह आखिरी गाँव था. हमें तत्वानी जाना था. (यह क्षेत्रीय भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है तपता हुआ पानी) हमें बस दिशा पता थी और इतना पता था कि लोग जाते हैं तो एक दिन में वापसी नहीं होती. सब जोश से भरे थे. सोचा जो होगा देखा जायेगा. रास्ते में कोई कोई लकड़ी काटने वाला मिलता तो यही कहता कि अभी तो दूर है. 
सुनते - सुनते, चलते - चलते सब थकने लगे थे. रास्ता मुश्किल था क्योंकि वह कुछ दिन पहले हुई बर्फवारी ने उसे फिसलन भरा बना दिया था.
सूरज सिर पर चढ़ा और फिर उतरने लगा. आस पास कोई नहीं था जिस से कुछ पूछ सकते. रुक गए. जो साथ था खाया. कुछ लोगों ने आगे जाकर भी देखा लेकिन गरम पानी के झरने या स्रोत जैसा कुछ नहीं दिखा. कोई चिन्ह तक नहीं. 
सबने तय किया कि वापस चला जाए लेकिन उस रास्ते से नहीं जिस से हम आये थे क्योंकि रास्ता खतरनाक था, फिसलन भरा. किसी ने कहा कि नीचे जो नदी बह रही है हम इसके साथ साथ ही आये हैं क्यों न नदी में उतर जाएँ और उसके साथ साथ चलें. पहाड़ी नदी कि आदत और सीरत से कोई वाकिफ नहीं था. बस उतर गए. पानी पर जमी बर्फ पर पांव पड़ते ही पांव पानी में. या इतने बड़े पत्थर या चट्टानें कि आगे रास्ता न मिले. फिर भी एक दूसरे को सहारा देते सब बढ़ रहे थे. कोई घंटा भरा चले थे कि हमें रुकना पड़ा क्योंकि आगे नदी एक झरने की तरह लगभग 200 फिट नीचे गिर रही थी. सारा मुआयना करने के बाद कोई रास्ता नहीं मिला.
 
वापस जा नही सकते. नीचे कूद नहीं सकते. शाम ढलने लगी है. ये बात सबको पता थी कि यह इलाका जंगली भालूओं के लिए भी जाना जाता है. हिमाचल कि अपर कांगड़ा घाटी. 
साथ वाले पहाड़ पर चढ़ना शुरू किया. एक दम नंगा खड़ा पहाड़. कई बार पकड़ने को छोटी घास भी नहीं. कई बार पैरों का कोई ठिकाना नहीं. यही वो दिन था जिस दिन से मैंने और शायद मेरे कई और साथियों ने मौत से डरना छोड़ दिया.
करीब 3 घंटे लगे. हम वापस उसी पहाड़ कि चोटी पर पहुचे जहाँ से चार घंटे पहले हम नदी में उतरे थे. सूरज डूब चुका था बिना इस बात की फिक्र किये कि हमारा क्या होगा. वो अस्त हो गया. दुनिया वालों की तरह जरूरत के वक़्त वो भी साथ नहीं था. हमारा एक साथी हमसे अलग हो गया ये ऊपर पहुँच कर पता चला. और एक बात भी की वो बैग जिसमे टोर्च, रस्सी, चाकू सब कुछ था वह भी नीचे छूट गया था जहाँ से हमने पहाड़ की चढ़ाई शुरू की थी. मुसीबत अकेले कहाँ आती है. बड़ा कोई साथ नहीं. आप पर 15 साथियों की जिम्मेदारी, रास्ते का कोई अंत  पता नही. खैर! जिस रास्ते से डरकर हमने रास्ता बदला था हम वापस उसी रास्ते पर खड़े थे. कैसे न मानूं की ईश्वर नहीं है. अगर वो नहीं है तो वैसा क्यों नहीं होता जैसा "मैं" चाहता हूँ.
हम इस समय एक ऐसे दोराहे पर खड़े थे जिसका कोई भी रास्ता आसन नहीं था. एक बार मन में आया की यहाँ कोई खोह या गुफा ढूंढते हैं, पर हड्डियाँ गलने वाली उस ठण्ड का क्या? वहां रुकना किसी भी तरह की बहादुरी नहीं थी. कहते हैं बहादुरी और बेवकूफी में बस जरा सा अंतर होता है. हम चल पड़े. साथ साथ. फिसलते भी थे. गिरते भी थे. 
क्यों डरें ज़िन्दगी में कि क्या होगा
जो कुछ न होगा तो तजुर्बा होगा....
शरीर का पोर पोर दर्द के मारे चीख रहा था. पिछले चार घंटे से पानी भी नहीं मिला था. बस चलना और चलना. मैंने रात को इतनी काली और डरावनी कभी नहीं देखा था. यहाँ तक कि उस काली रात में चमकने वाले तारे कुछ चुभ से रहे थे. पीछे के कदम को इतना भी इल्म नही था कि आगे वाला कदम कहाँ पड़ेगा. क्योंकि डेढ़ फिट की पगडण्डी और उसके नीचे हजारों फिट गहरी खाइयाँ सुरसा की तरह मुंह फैलाये खड़ी थी. 
रात आधी बीत चुकी थी जब ये एहसास हुआ कि हम उस गाँव के आसपास हैं. रात के एक बजने वाले थे हम गाँव में पहुंचे. हम गाँव की बाहर वाली पगडण्डी पर पहुंचे ही थे कि कुछ आवाजें सुनाई दी. सामने गाँव के कुछ लोग बैठे थे.  हिम्मत जुटाकर गाँव के उस पहले घर कि ड्योढ़ी  पर हम  पहुंचे. पता चला कि "गाँव के लोग ये कुछ अभी तक सोये नहीं थे उन्हें पता था कि हम लोग तत्वानी की तरफ निकले हैं. उन्होंने बताया की अगर हम लोग थोड़ी देर में गाँव तक ना आते तो गाँव के लोग हमें ढूँढने निकलने वाले थे." आश्चर्य हुआ सुनकर. शोर और आवाजें सुनकर धीरे धीरे पूरा गाँव जाग गया. कुछ तरुण भी वहां इकठ्ठा हो गए. 
हमने पानी पिया. कुछ देर वहां रुके हम सोच भी नहीं सकते थे की अनजाने गाँव के लोग रात को हमरी फ़िक्र में जागे होंगे.. ये कौन सा रिश्ता है? मन कहा कहाँ नहीं  उड़ा? गर्व, संतुष्टि, स्नेह और जाने क्या क्या विशेषण. उन बुजुर्गों कि तसल्ली ने मन हल्का कर दिया. गाँव वाले यहाँ तक तैयार थे कि हम सब उस गाँव में रुकें. वो सब व्यवस्था कर देंगे. सब गाँव वाले बोले कि एक एक - दो दो लोग कुछ घरों में जाएँ. खाना खाकर आराम करो. हम रुक नहीं सकते थे क्योंकि  जिस हमारा एक साथी जो अलग हुआ था उसका अभी तक कुछ पता नही था. सबसे आगे चलने के कारण सबका मत यही था कि वो बेस कैंप  पहुँच गया होगा. 
हमने अभी जाने कि जिद की तो गाँव के बुजुर्गों के कहने पर 5 तरुण तुरंत तैयार हुए. बैम्बू की मशालें हाथ में ली. और हमारे साथ हो लिए. इस पहाड़ के नीचे नदी पार करके हमारा बेस कैंप था. रात के 2 .30 बज रहे थे जब हम अपनी मंजिल पर पहुंचे. हम सब सकुशल पहुँच गए. गाँव के इन तरुणों के लिए धन्यवाद जैसे शब्द बहुत छोटे थे. हमें छोड़कर वे वापस चले गए. मुझे याद आया कि मेरे शहर में किसी से किसी के घर का पता भी पूछो तो लोग मुंह फिर कर निकल लेते हैं. वाह रे भारत के गाँव. वाह री गाँव की माटी.

Saturday, June 4, 2011

मैंने ऐसा सूर्यास्त नहीं देखा...

मैंने पहाड़ उतरना शुरू  ही किया था और मुझे ये अनुमान हो गया था कि मुझे गाँव पहुँचने से पहले अँधेरा हो ही जायेगा. इस घने जंगल वाले पहाड़ से ठीक नीचे वो घास वाला पहाड़ और उस से ठीक नीचे दाहिने हाथ को तिरौनी है (नैनीताल से 70 किलोमीटर ऊपर, मुक्तेश्वर के पास एक छोटा सा पहाड़ी गाँव) विक्रम(जिस मित्र के आमंत्रण पर मैं मुक्तेश्वर गया था.) से मैं सुबह यह कहकर निकला था कि बस अभी आया. और कैमरा और बैग  लेकर निकल पड़ा था. भे चराते भूटिया, या घास कि तलाशे के बहाने पहाड़ घूमती फिरती घसियारनो के साथ बतियाते बतियाते पता ही नहीं चला कि कब सूरज ढलने लगा था. दिन कि तीखी धूप अब गुलाबी होने लगी थी.
मुझे लगा कि अब लौटना ही होगा वरना मेरी खैर नहीं और बिना बताये चले आने पर घर में सुनने को तो मिलेगा ही. 
मैंने तेजी से वो जंगलों  वाला पहाड़ पार लिया. नीचे के पहाड़ पर मैं जरा सा दाहिने मुड़ा ही था कि मैं रुक गया. कैसे रुका नहीं जनता. पैर वहीँ के वहीँ जम गए थे जैसे. सामने वाले बर्फीले पहाड़ों के ऊपर बादलों में आग लगी थी.  सामने का पूरा आसमान नारंगी रंग में रंगा था. और बाकि नीला इतना साफ नीला था कि मुझे यह बात सच लगी कि आसमान के उस पार कुछ भी नहीं. अगर कुछ होता तो उस दिन दिख गया होता.
सूरज और पहाड़ के बीच में के बादलों के कोने आग से चमक रहे थे. मुझे लगा कि कोई शरारती पहाड़ी बालक कहीं इन बादलों में आग तो नहीं लगा आया चुपके से. और ये बेखबर बस तैर रहे हैं इधर से उधर. आदमी की तरह. जिसके भीतर ना जाने कितना कुछ जल रहा होता है और वो फिर भी भाग रहा होता है कहीं और किसी और आग के पीछे. जैसे ये बादल अपनी आग से बेपरवाह बहे चले जा रहे थे सूरज कि तरफ. सूरज पहाड़ के बिकुल सिर पर जा खड़ा हुआ. मानो अधिकार हो उसका.
अब मेरे उस पहाड़ और सूरज के  बीच कुछ था तो वो थी वो पहाड़ी नदी जो तरौनी के उत्तर से बहती है. मैंने नदी में देखा तो एक बार लगा कि कोई पिघलता हुआ लोहा तो नहीं बहा आया है नदी में. पानी कहाँ गया? नदी एक संतरी रंग की लकीर सी दिखने लगी. ये कैसा माया जाल है. मुझे इस वक़्त सूरज एक बहरूपिये सा लगता है. पल पल ऐसे रंग बदलता है मानो कोई छोटा सा बालक जिद पर अदा हो. मैं तो बस इतना जनता हूँ की ये सूरज बहुत भुलक्कड़ है, उसे बस इतना ही याद रहता है सुबह पहाड़ के पीछे से बिना नहाये धोये उठ आना और शाम को बिना बताये पोटली उठाई और निकल अड़े. बंजारे सा सूरज.

मेरे सिर के पीछे से सैकड़ों चिड़िया एक साथ निकलीं. अरे इन्हें कौन डाकिया चिठ्ठी दे आया कि लौट चलो अपने घर - कोई राह ताकता होगा. सूरज तो डूबने वाला है. कौन होगा इतना माहिर डाकिया? चिड़ियों कि उस मीठी आवाज से आकाश भर गया. कितना पवित्र है सब कुछ, सैकड़ों चिड़ियाँ  इस आसमान से गुजर गयीं - आसमान फिर भी उतना ही साफ है. और कहीं से सौ लोग गुजर जाएँ तो वहां इतनी पवित्रता क्यों नहीं होती?
सूरज का रंग गहराने लगा था. किसी भी पल वो पहाड़ के पीछे से कूदकर  आत्महत्या कर लेगा. मुझे यही लग रहा था. बड़ी तेजी से रंग, रूप बदलता है. जैसे कोई बड़ा ही कुशल चित्रकार अपनी कूचियाँ लेकर बैठा हो. जो हर पल एक नया कैनवास सामने रख देता है. 

रंग गहराने लगे जंगलों के, घास के, पहाड़ की उस उपरी लकीर का रंग जो उसे आसमान से अलग करती है. मैं विचार शून्य हूँ. सूरज को देख रहा हूँ जैसे अभी और जीना चाहता है. अंतिम समय में भी जीवन भर की सुख संतुष्टि के चिन्ह साफ साफ उसके चेहरे पर हैं. साफ साफ. और बादलों से आखिरी बात करना चाहता है. जैसे सबसे बेहतरीन दोस्त से दूर जाने से पहले कुछ कहना चाहता हो. 
अचानक कहाँ गया सूरज. आत्महत्या या नियति? आसमान और गहराया तो नारंगी से सुर्ख सिन्दूरी हो गया. मैं वहीँ बैठ जाता हूँ. देखना चाहता हूँ वो जीवन के चिन्ह जो जहाँ तहां बिखरे पड़े हैं. सोचता हूँ  कि दुनिया को जीवन देने वाला क्या अपने अंतिम समय में इतना निसहाय हो जाता है कि अंतिम साँस भी न ले सके. क्या हम सब के साथ यही होता है. फिर मैं और सूरज अलग कैसे हुए. दोनों ही तो असहाय हैं.
मुझे होश आया तो मैं अँधेरे से घिरा था. मैं उठा और सोचा कल सुबह इस सूरज से पूछुंगा कि क्या मिला मुझे इस माया जाल में फंसाकर...

Friday, June 3, 2011

अपना बोझ खुद ही उठाना बेहतर है.



कल के शहर की तरह आज के इस शहर ने अभी तक रफ़्तार नहीं पकड़ी थी रफ़्तार थी ही नहीं शायद. एक सूखा हुआ सा ठहराव सा - जो शांति देता है. भीतर तक सब कुछ रुका सा. बाद में उज्जैन में घूमते हुए मुझे लगा की यह ठहराव कहीं इस शहर की नियति तो नहीं. जिसे इस शहर ने बहुत शालीनता से स्वीकार  कर लिया था. हालाँकि बहतु कुछ ऐसा है जो साथ साथ चलता है, भागता है, दौड़ता भी है पर लगता है कि यह  ठहराव का अपना दर्शन है. दर्शन जो गति और स्थिरता के सापेक्ष चलता है.
सुबह सुबह उज्जैन पहुंचा. सूरज ने क्षितिज को छुआ तो शिप्रा (उज्जैन से होकर बहने वाली पवित्र नदी कहते है कि वो भी गंगा का ही एक अंश है जो महाकाल के साथ उज्जैन आई थी.) में पड़ रही सूर्य रश्मियों ने स्वागत किया. मुझे लगा कि यह जल ही तो है जो सूर्य रश्मियों के व्यक्तित्व को विस्तार देता है. विस्तार रूप का,  विस्तार गुणों का. 
मध्य भारत के इस क्षेत्र का अपना एक आकर्षण है. एतिहासिक भी,सांस्कृतिक भी और पुरातात्विक भी. यहाँ बुंदेलखंड और मालवा के बीच की संस्कृतियों के दर्शन खूब होते हैं. यहाँ चारों और से पहुँचने का रास्ता खूबसूरत है. हर थोड़ी थोड़ी देर में landscape बदलता है. भूरे रंग की खूब बहुलता है. भूरे रंग के इतने shades मैंने कहीं नहीं देखे. कई बार तेजी से पीछे भागती धरती अपने साथ ऐसा कुछ ले जाती है, जिस पर मन ठहरता था, टिकता था. फिर वही ठहराव का अपना दर्शन.
इन landscapes के साथ साथ समय भी बदलता है. सूरज सिर पर चढ़ा चला आ रहा है. सूरज सूखेपन को और गहराता है. भूरे रंग के कई और shades उभरते हैं. दूर तक दर्शन कक्षा में आँखे चुंधियाती हैं.
मैं शिप्रा के किनारे जा बैठता हूँ. सामने हरे पानी वाली शिप्रा. जैसे पानी से किसी ने उसका पनियालापन छीन लिया हो. और बदले में उसे हरा कर दिया हो. वह बैठकर पता ही नहीं चलता कि शिप्रा बह रही है या रुकी है. या कहीं कुछ देर के लिए ही तो नहीं रुकी मुझसे बतियाने को.
घाट लगभग खली है. दूर घाट की सीढ़ियों पर 2 प्राणी बहुत निर्लिप्तता के साथ, बैठे थे. बूढा और एक बूढी. 
मैं उधर चला जाता हूँ. मेरी और उनकी पीठ थी. सीढ़ियों पर २ पोटलियाँ रखीं थी. उनके बिलकुल नजदीक. मानो जीवन भर की पूँजी हो. दोनों के पांव पानी में थे. तन पर कपडे लगभग ना के बराबर. खिचड़ी बाल. और दोनों अपने में मस्त. दोनों अपने में बतियाते हैं. हसंते हैं. मानो यही उनकी दुनिया हो. अपनी ही परीधियों में बंधे होते हुए भी एक दूसरे से बिना आधारहीन से.
मैं दोनों के पीछे जा बैठता हूँ. उनकी बातें सुनने की कोशिश. बस जानना चाहता हूँ कि उनकी इस समता का आधार क्या है? दोनों नहाते हैं. मैं वहीँ बैठा हूँ. बीच बीच में मुझे देखते हैं. मैं उन्हें लगातार देख रहा हूँ. थोड़ी बहुत बात शुरू होती है.
राजस्थान के एक कस्बे से कहानी शुरू हुई. जिंदगी भर की खूब कमाया. बच्चों की पढाया, लिखाया और फिर हर अच्छे माँ बाप की तरह उनकी शादी भी. भरा-पूरा परिवार. बेटे, बहुएँ, नाती, पोते सब कुछ और हमें बहुत चाहने वाले. भगवन ऐसा 
लेकिन एक दिन जब लगा की कन्धों पर तने-तने जब गर्दन दुखने लगी ना तो लगा कि ये गर्दन जो जीवन भर किसी के आगे नहीं झुकी. शायद अब भगवान जैसी किसी चीज के सामने झुकना चाहती है. हमने सब छोड़ दिया. 
(बुढिया ने पोटली से एक बर्तन निकला, उसमे से 5 रोटियां. 2 बाबा को, 2 मुझे और खुद एक, उसी झोले से 2 प्याज. एक बाबा को और एक मुझे, बूढी माँ प्याज नहीं खाती. बस खिलाती है.)
हम निकल पड़े. जहाँ भगवान का आभास होता है. वहीँ झुक जाते हैं. जहाँ कोई सज्जन मिला उसकी संगत ले ली. जब किसी को हमारी जरूरत होती है तो हम वह होते हैं. उर छोटे परिवार से बाहर निकलकर हमने बहुत बड़े परिवार को पा लिया. जहाँ जो मिलता है खाते हैं. खुले आसमान के नीचे. धरती कि गोद में जहाँ जगह मिल जाए वही अपना घर. जहाँ मन  होता है वहां घुमते हैं. इस उन्मुक्तता में बहुत बड़ा सुख है बेटा. हम जानते हैं कि हमारे लिए बहुत मुश्किल था घर छोड़ना. जिनके पालन पोषण में हमने जवानी घोल दी. फिर उन्हें खुद ही छोड़ आये.
मैं जानता हूँ कि तुम पूछोगे कि क्या उन सब कि याद नहीं आती क्या? आती है बेटा. हम साल में एक बार जाते हैं मिलने. दस दिन उनके साथ रहते हैं. बेटो ने काम और बढ़ा लिया है, अच्छा लगता है. दस दिन बाद फिर इसी दुनिया में. 
बुढिया ने पोटली उठा ली. "चलो! कीर्तन का समय हो गया" मेरी तरफ घूम कर बोली. तुम चलोगे. मैं पीछे पीछे चलता हूँ. बूढी माँ से पोटली लेने कि कोशिश करता हूँ. मना करती है कहती है कि आज तुम ले लोगे कल कौन आएगा? अपना बोझ खुद ही उठाना बेहतर है. 
मेरे कदम छोटे हो जाते हिं. सामने के आश्रम में भागवत कथा चल रही है.  कथा वाचक यक्ष- युधिष्ठिर के माध्यम से जीवन का दर्शन समझा रहे हैंदोनों झुकते हैं और फिर भीड़ में जाकर खो जाते हैं. मैं बाहर खड़ा हूँ.. पता नहीं कब तक. मेरा मन बहुत स्थिर है और मुझे नहीं पता कि शिप्रा अभी तक मेरी बाट में अभी भी थमी है या बहने लगी है.......