स्कूल में पढ़ते समय फनीश्वरनाथ रेणु की एक कहानी पढ़ी थी. "कर्मनाशा की हार". आज वो कहानी मेरे सामने शब्दशःशब्द फैली पड़ी थी. मैं सामने फैले हुए गंगा के उस विशाल पाट के सामने खड़ा था. सूरज ढलान की पगडण्डी पर धीरे धीरे सरक रहा था. अगस्त का महीना. बदल अभी भी आसमान में सूरज से लुका छिपी खेल रहे थे. धूप आ जा रही थी.
आज सुबह सुबह मैंने एक स्कूल में बच्चो के साथ स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मनाया था. बच्चों के साथ वक़्त बिताया था. आजादी के बाद देश की प्रगति की बातें बच्चों को बताई थी.
आज सुबह सुबह मैंने एक स्कूल में बच्चो के साथ स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मनाया था. बच्चों के साथ वक़्त बिताया था. आजादी के बाद देश की प्रगति की बातें बच्चों को बताई थी.
उसके बाद मुझे जैसे ही ये बात पता चली कि इस बार बरसात में गंगा ने कई गाँव बहा दिए हैं. और कटाव अभी भी जारी है. मुझसे रुका नहीं गया. मैं दो दोस्तों के साथ चल पड़ा था. बादल कभी भी मुंह फाड़कर बरस सकते थे. हमने गाड़ी नदी के पाट से थोड़ी दूर पहले ही रोक ली थी. गाँव तक जाने वाली सड़क लगभग टूट चुकी थी. जहाँ थोड़ी बहुत ठीक थी वहां पानी भरा था. मुझे पूर्वोत्तर भारत के बरसाती घाटों की याद आ गई. जो खेत बचे थे वे गहरे हरे थे. लहलहाते हुए खुश भी दिख रहे थे मानो खुश रहना ही उनकी नियति हो.
रास्ते में घर वीरान पड़े थे. बिलकुल खाली. मिट्टी के बने कुछ मकान ढहे पड़े थे. कुछ घरों को प्लास्टिक से ढका गया था. रास्तों पर लोग थे पर घरों में नही. नीम का एक पेड़ निमौरियों से भरा पड़ा था. नीम के नीचे एक चबूतरा. गाँव की चौपाल रही होगी शायद. उसके पीछे छप्पर में खूँटी पर एक पुरानी ढोलक टंगी थी. चबूतरा आज सूखे पत्तों (जो बारिश में गीले हो गए थे) और निमौरियों से भरा पड़ा था. एक साथी ने बताया कि इस सड़क पर पांच गाँव हुआ करते थे. अब एक ही बचा है . वो अभी आधा बह चुका है.
एक फर्लांग चलने पर नदी का पाट आ गया. कुछ गाँव वाले भी आ गए. हाथ में कैमरा देखकर शायद उन्हें हमारे सरकारी मुलाजिम होने का भ्रम हुआ होगा. उनकी आँखों की चमक देखकर पता चलता था कि उनकी उम्मीद के सिरे कहाँ बंधे थे. भीड़ बढ़ने लगी. मैं लोगों के चेहरों को पढने की कोशिश कर रहा था. बेबसी की लकीरें सबके चेहरों पर साफ चमक रही थी. कुछ औरतें घूंघट निकाले पीछे कड़ी आपस में फुसफुसा रही थी.
तभी हमसे कुछ दूरी पर जोर कि छपाक कि आवाज आई. मिट्टी का एक बड़ा टुकड़ा टूटकर गंगा में जा गिरा. उस पर खड़ी एक झोपडी भी. किसी का कोई सपना टूटा हो जैसे और पल भर में गायब. पीछे से किसी के सिसकने कि आवाज आई. कोई औरत थी. सब लोग पीछे खिसक गए.
मैं दूर निकल जाना चाहता था. मेरे दोस्त गाँव वालों से बात कर रहे थे. मैं नदी के पाट के साथ साथ थोडा आगे तक निकल आया. पहली बात शांत और सौम्य गंगा का ऐसा रूप देखा था. पटारें किनारों से सर पटक रही थी, मानों सब कुछ निगल जाना चाहती हो.
मेरे भीतर भी एक तूफ़ान सिर पटक रहा था. लाखों करोड़ों को तारने वाली गंगा ये किस रूप में मेरे सामने थी? मैंने चारों ओर देखा, खामोश बादलों के सिवा कोई नही था जो मेरे सवालों का जवाब दे सके. अभी तक उफन रही गंगा भी मानों मेरे इस सवाल पर पल भर के लिए खामोश हो गयी. मैं थोडा और आगे जाना चाहता था.
गाँव के दायीं तरफ एक अधकच्चा मकान खड़ा था. गंगा के किनारे से कोई सौ मीटर दूर. बाहर दो बुजुर्गों को बैठा देखकर मैं उस तरफ मुड गया. घर के बाहर का हिस्सा लगभग ढह चुका था. बूढी औरत घुटनों में सर डाले बैठी थी. चेहरा नहीं दिख रहा था. बूढ़े का चेहरा झुर्रियों से भरा था. मेहनत का पका हुआ पक्का सा रंग. दोनों हाथों में चिलम पकडे उसे पीने में मशगूल था. मैंने हाथ जोड़ दिए. कोई प्रति उत्तर नही. मन उनसे बात करना चाहता था. पर मैं बहुत रिक्त खड़ा था. बात करूँ भी तो क्या?
कुछ देर बाद मैंने पुछा - बाबा! गाँव में कितने परिवार थे? घर खाली पड़े हैं. कहाँ गए हैं सब लोग? बुढिया ने मुंह उठाकर मुझे ऐसे देखा - जैसे मैं किसी दूसरे लोक से आया था. उसके चेहरा बहुत थका हुआ था. बूढ़े ने बुढिया को कहा - जा अंदर से आसन उठा ला. बुढिया उठने का उपक्रम करने लगी - मैं उस से पहले ही जमीन पर बैठ चुका था. फिर जो कहानी मैंने सुनी - मेरे सामने "कर्मनाशा" फिर से जिन्दा उठ खड़ी थी.
गाँव में उन्हें सब फुल्लू वैद्य के नाम से जानते थे. पहले दादा और फिर पिताजी ने जड़ी बूटियों से इलाज की विद्या सिखाई थी. ज़िन्दगी भर लोगों से बिना कीमत मांगे इलाज करते रहे. जो श्रद्धा से जितना दे जाते - उतना रख लेते. घर में आठ बीघा ज़मीन थी. दो बेटियों का ब्याह कर दिया. बेटे को बारहवीं तक पढाया. घर का खर्चा आराम से चल जाता था. ज़िन्दगी में पैसे से ज्यादा मान मिला. इसी गंगा के किनारों पर मैंने हजारों बूटियाँ ढूंढी. हजारों लोगों को मौत के मुंह से खींच लाया. ये चमनी(अपनी पत्नी की ओर इशारा कर के बोले) चाहती है कि घर बार छोड़ कर हम भी कहीं ओर चले जाएँ. सुना है बाद में सरकार कभी मकान बनवाकर देगी. इतना कहकर उन्होंने चिलम दीवार से टिकाकर रख दी.
बुढिया माँ ने मेरे हाथ पर हाथ रखा - लल्ला तू ही बता सामने मौत खड़ी है. किस पल ये गंगा हमें लील जाये कोई नही पता. बच्चे भी समझा समझा कर हार गए, वे चले गए हैं पास के गाँव में. और ये हैं कि यहाँ से हिलने का नाम ही नहीं ले रहे. गाँव वाले समझा समझा कर हार गए. ये अपनी जिद पर अड़े हैं खेत और जानवर सब गंगा मई कि भेंट चढ़ गए कुछ नही बचा, मौका है तो खुद को तो बचा लें. तू ही बता मैं कैसे इन्हें छोड़कर चली जाऊं.
वैद्य जी ने फिर से चिलम उठा ली. "मौत से आगे तो कुछ नही है न चमनी" जिस गंगा ने जीवन दिया, जीना सिखाया, जहाँ मैंने पानी में पैर पसारने सीखे. अगर वो मौत मांग रही है तो मैं उसे रीते हाथ जाने दू. इस मिट्टी को छोड़कर जाना चाहूं तो भी नहीं जा पाउँगा. तूने सारी उम्र साथ निभाया है, अगर तुझे अपने बच्चों के पास जाना है तू जा - मैं नही रोकूंगा तुझे. पर मुझे जाने को ना कह.
बुढिया माँ ने मुंह फेर लिया. "ज़िन्दगी भर अपनी मनमर्जी चलाई है, अब भी मेरी क्यों सुनोगे" मैं भी कहीं नही जाने वाली. बुढिया माँ ने आँचल में मुंह छुपा लिया और तेजी से उठकर भीतर चली गयी.
मैं चुप था, और कर भी क्या सकता था. चुपचाप उठ खड़ा हुआ.सामने गंगा बह रही थी. उसके भीतर का प्रवाह मानो मेरे भीतर से गुजर रहा था जाने किस दिशा कि ओर. ये मिट्टी से कौन सा रिश्ता है जो मानवीय रिश्तों से ऊपर है. ये कौन सी धरती है जहाँ जीवन का कोई मूल्य नही ओर मौत संतुष्टि के आगे कुछ भी नही. मैं उलटे पैर लौट पड़ा वहां रुकने कि हिम्मत जो नही थी. मैं सोच रह था कि मैं वैद्य जी जैसा निर्णय ले पाता? क्या जीवन के प्रति इतनी निरामयता और अपनी मिट्टी के प्रति इतनी निष्ठां हम तथाकथित शिक्षितों में है? सोचते सोचते मैं गाँव से बाहर निकल आया था. दोस्त पहले ही पहुँच चुके थे. पीछे मुड़कर देखा तो चौपाल का नीम चुपचाप खड़ा था. फिर से हलकी सी छपाक कि आवाज आई. मैं भीतर तक कांप गया. कहीं कोई और घर...................
रास्ते में घर वीरान पड़े थे. बिलकुल खाली. मिट्टी के बने कुछ मकान ढहे पड़े थे. कुछ घरों को प्लास्टिक से ढका गया था. रास्तों पर लोग थे पर घरों में नही. नीम का एक पेड़ निमौरियों से भरा पड़ा था. नीम के नीचे एक चबूतरा. गाँव की चौपाल रही होगी शायद. उसके पीछे छप्पर में खूँटी पर एक पुरानी ढोलक टंगी थी. चबूतरा आज सूखे पत्तों (जो बारिश में गीले हो गए थे) और निमौरियों से भरा पड़ा था. एक साथी ने बताया कि इस सड़क पर पांच गाँव हुआ करते थे. अब एक ही बचा है . वो अभी आधा बह चुका है.
एक फर्लांग चलने पर नदी का पाट आ गया. कुछ गाँव वाले भी आ गए. हाथ में कैमरा देखकर शायद उन्हें हमारे सरकारी मुलाजिम होने का भ्रम हुआ होगा. उनकी आँखों की चमक देखकर पता चलता था कि उनकी उम्मीद के सिरे कहाँ बंधे थे. भीड़ बढ़ने लगी. मैं लोगों के चेहरों को पढने की कोशिश कर रहा था. बेबसी की लकीरें सबके चेहरों पर साफ चमक रही थी. कुछ औरतें घूंघट निकाले पीछे कड़ी आपस में फुसफुसा रही थी.
तभी हमसे कुछ दूरी पर जोर कि छपाक कि आवाज आई. मिट्टी का एक बड़ा टुकड़ा टूटकर गंगा में जा गिरा. उस पर खड़ी एक झोपडी भी. किसी का कोई सपना टूटा हो जैसे और पल भर में गायब. पीछे से किसी के सिसकने कि आवाज आई. कोई औरत थी. सब लोग पीछे खिसक गए.
मैं दूर निकल जाना चाहता था. मेरे दोस्त गाँव वालों से बात कर रहे थे. मैं नदी के पाट के साथ साथ थोडा आगे तक निकल आया. पहली बात शांत और सौम्य गंगा का ऐसा रूप देखा था. पटारें किनारों से सर पटक रही थी, मानों सब कुछ निगल जाना चाहती हो.
मेरे भीतर भी एक तूफ़ान सिर पटक रहा था. लाखों करोड़ों को तारने वाली गंगा ये किस रूप में मेरे सामने थी? मैंने चारों ओर देखा, खामोश बादलों के सिवा कोई नही था जो मेरे सवालों का जवाब दे सके. अभी तक उफन रही गंगा भी मानों मेरे इस सवाल पर पल भर के लिए खामोश हो गयी. मैं थोडा और आगे जाना चाहता था.
गाँव के दायीं तरफ एक अधकच्चा मकान खड़ा था. गंगा के किनारे से कोई सौ मीटर दूर. बाहर दो बुजुर्गों को बैठा देखकर मैं उस तरफ मुड गया. घर के बाहर का हिस्सा लगभग ढह चुका था. बूढी औरत घुटनों में सर डाले बैठी थी. चेहरा नहीं दिख रहा था. बूढ़े का चेहरा झुर्रियों से भरा था. मेहनत का पका हुआ पक्का सा रंग. दोनों हाथों में चिलम पकडे उसे पीने में मशगूल था. मैंने हाथ जोड़ दिए. कोई प्रति उत्तर नही. मन उनसे बात करना चाहता था. पर मैं बहुत रिक्त खड़ा था. बात करूँ भी तो क्या?
कुछ देर बाद मैंने पुछा - बाबा! गाँव में कितने परिवार थे? घर खाली पड़े हैं. कहाँ गए हैं सब लोग? बुढिया ने मुंह उठाकर मुझे ऐसे देखा - जैसे मैं किसी दूसरे लोक से आया था. उसके चेहरा बहुत थका हुआ था. बूढ़े ने बुढिया को कहा - जा अंदर से आसन उठा ला. बुढिया उठने का उपक्रम करने लगी - मैं उस से पहले ही जमीन पर बैठ चुका था. फिर जो कहानी मैंने सुनी - मेरे सामने "कर्मनाशा" फिर से जिन्दा उठ खड़ी थी.
गाँव में उन्हें सब फुल्लू वैद्य के नाम से जानते थे. पहले दादा और फिर पिताजी ने जड़ी बूटियों से इलाज की विद्या सिखाई थी. ज़िन्दगी भर लोगों से बिना कीमत मांगे इलाज करते रहे. जो श्रद्धा से जितना दे जाते - उतना रख लेते. घर में आठ बीघा ज़मीन थी. दो बेटियों का ब्याह कर दिया. बेटे को बारहवीं तक पढाया. घर का खर्चा आराम से चल जाता था. ज़िन्दगी में पैसे से ज्यादा मान मिला. इसी गंगा के किनारों पर मैंने हजारों बूटियाँ ढूंढी. हजारों लोगों को मौत के मुंह से खींच लाया. ये चमनी(अपनी पत्नी की ओर इशारा कर के बोले) चाहती है कि घर बार छोड़ कर हम भी कहीं ओर चले जाएँ. सुना है बाद में सरकार कभी मकान बनवाकर देगी. इतना कहकर उन्होंने चिलम दीवार से टिकाकर रख दी.
बुढिया माँ ने मेरे हाथ पर हाथ रखा - लल्ला तू ही बता सामने मौत खड़ी है. किस पल ये गंगा हमें लील जाये कोई नही पता. बच्चे भी समझा समझा कर हार गए, वे चले गए हैं पास के गाँव में. और ये हैं कि यहाँ से हिलने का नाम ही नहीं ले रहे. गाँव वाले समझा समझा कर हार गए. ये अपनी जिद पर अड़े हैं खेत और जानवर सब गंगा मई कि भेंट चढ़ गए कुछ नही बचा, मौका है तो खुद को तो बचा लें. तू ही बता मैं कैसे इन्हें छोड़कर चली जाऊं.
वैद्य जी ने फिर से चिलम उठा ली. "मौत से आगे तो कुछ नही है न चमनी" जिस गंगा ने जीवन दिया, जीना सिखाया, जहाँ मैंने पानी में पैर पसारने सीखे. अगर वो मौत मांग रही है तो मैं उसे रीते हाथ जाने दू. इस मिट्टी को छोड़कर जाना चाहूं तो भी नहीं जा पाउँगा. तूने सारी उम्र साथ निभाया है, अगर तुझे अपने बच्चों के पास जाना है तू जा - मैं नही रोकूंगा तुझे. पर मुझे जाने को ना कह.
बुढिया माँ ने मुंह फेर लिया. "ज़िन्दगी भर अपनी मनमर्जी चलाई है, अब भी मेरी क्यों सुनोगे" मैं भी कहीं नही जाने वाली. बुढिया माँ ने आँचल में मुंह छुपा लिया और तेजी से उठकर भीतर चली गयी.
मैं चुप था, और कर भी क्या सकता था. चुपचाप उठ खड़ा हुआ.सामने गंगा बह रही थी. उसके भीतर का प्रवाह मानो मेरे भीतर से गुजर रहा था जाने किस दिशा कि ओर. ये मिट्टी से कौन सा रिश्ता है जो मानवीय रिश्तों से ऊपर है. ये कौन सी धरती है जहाँ जीवन का कोई मूल्य नही ओर मौत संतुष्टि के आगे कुछ भी नही. मैं उलटे पैर लौट पड़ा वहां रुकने कि हिम्मत जो नही थी. मैं सोच रह था कि मैं वैद्य जी जैसा निर्णय ले पाता? क्या जीवन के प्रति इतनी निरामयता और अपनी मिट्टी के प्रति इतनी निष्ठां हम तथाकथित शिक्षितों में है? सोचते सोचते मैं गाँव से बाहर निकल आया था. दोस्त पहले ही पहुँच चुके थे. पीछे मुड़कर देखा तो चौपाल का नीम चुपचाप खड़ा था. फिर से हलकी सी छपाक कि आवाज आई. मैं भीतर तक कांप गया. कहीं कोई और घर...................