इस बात को चार साल गुजर गए.
अरे!!
सिर्फ वक़्त गुजरा है.
मंजर तो अभी भी मन की तहों में कहीं बिखरे पड़े हैं.
जरा सहेज लूं, चुन लूं, बुन लूं,
पर कोई कहानी या कोई फलसफा बन गया तो फिर क्या होगा?
चलो एक और कहानी सही.
एक पहाड़ उतरा और फिर एक चढ़ा.
फिर उस पहाड़ की उतराई में हमें रोक लिया गया. दो बन्दूक वालों ने.
हमारी नागालैंड की ही साथी टीना ने उन से बात की.
हमें रास्ता मिल गया.
मैंने पीछे मुड़कर उस जगह को देखना चाह जहाँ हमने हमारी गाड़ी छोड़ी थी.
पीछे कुछ नहीं था.
था तो बस पेड़ों से ढके हुए पहाड़.
ये उतराई गहरी है.
मन की गहराइयों जैसी.
उतरना मुश्किल है. नियंत्रण नहीं रखा तो फिसलोगे.
अरे! नदी की आवाज.
टीना बताती है - हम बराक पर आ गए हैं. नागालैंड की सबसे बड़ी नदी.
एक बड़े पत्थर पर बैठकर बस बराक को देखते रहे. प्रकृति की झोली में कितना कुछ बिखरा पड़ा है.
काश एक मंजर भी मेरी आँखों में आ बसता, हमेशा हमेशा के लिए.
सूरज सर पे है.
मुलायम धूप खरगोश के बच्चे की तरह नर्म. यहाँ वहां फुदकती है. बराक से खेलती है.
यह वही पूर्वोत्तर है जहाँ के बारे में सुनने को मिलता है तो बस आतंकवाद, गरीबी, विद्रोह, हड़तालें, बंद. पर और कोई कुछ देखने यहाँ आता ही कहाँ है, यहाँ तो देखने को इतना सब है. कोई चाहे तो. इन दृश्यों के मुखरित होने में क्या परेशानी है लोगों को.
किसकी नजर लगी है?
हम चल दिए. पुल नहीं था. ऐसे ही नदी पार की. कमर तक पानी है. अच्छा हुआ बरसात में नहीं आये.
पर उनका क्या जो उस पार रहते हैं.
मैंने टीना से पूछा - इनजाउना (जिस गाँव में हमें जाना था) के लोग इधर कैसे आते हैं. जब आना होता है. न सड़क, न पुल,?
इधर आने की जरूरत क्या है? उस पार उनकी अपनी दुनिया है. इधर नहीं आते वो लोग. इधर की दुनिया में ऐसा क्या है? उधर जाकर जो सुकून मिलता है ना वो यहाँ नहीं है.
चढ़ाई कठिन है क्योंकि रास्ता दीखता नहीं है. बस चलते रहो.
हम करीब २ घंटे चढ़ते रहे थे. राजधानी कोहिमा से चले १६ घंटे हो गए थे. थके भी थे. चढ़ाई मुश्किल हो रही थी.
एक जगह थोडा खुली सी जगह थी.
वहां पांच बच्चे मिले. १० -१२ साल के होंगे.
हाथ में पानी के २ बर्तन, एक थैले में छोटे छोटे केले. पहाड़ी केले थे. बहुत मीठे.
बच्चे हमें लेने आये थे. इनजाउना में रहकर बच्चों को पढ़ने वाली एक कार्यकर्ता लीला ने बच्चों को हमें लेन के लिए भेजा था.
एक भी बच्चा हमारी भाषा नहीं जानता था. यहाँ तक की नागामिस भी नहीं. बच्चे नंगे पांव थे. चलने में बहुत तेज. हंसने में भी.
हम पहाड़ की चोटी पर पहुँचते हैं. सामने सपाट गाँव.
कोई तीस पैंतीस घर. बीच में एक खुला मैदान और एक कुआ. एक बड़ा सा मकान. दो मंजिला लकड़ी से बना हुआ. पूरे गाँव में बस यही मकान लकड़ी का है बाकि सब घास और लकड़ी से बने हुए. एक अजीब सी शांति है गाँव में. बहुत शांत. कुछ बच्चे इकठ्ठे हो गए.
लीला हमें लेने गाँव के बाहर आ गयी थी. शांत और बहुत धीमे बोलने वाली.
उसने बताया की यह दोमंजिला मकान गाँव का समुदायक भवन है. हस्त शिल्प का बेहतरीन नमूना. गाँव के लोगों ने श्रमदान से बनाया है.
हम लीला के घर पहुचे.
केवल बूढी माँ.
पिताजी नहीं है. भाई था, अब नहीं है . बरसात के मौसम में बीमारी आई थी. गाँव के कई लोगो की जान लेकर ही गयी. पिताजी और भाई........अब हम दोनों ही रहते हैं.
माँ खेतों में काम करती है और मैं गाँव के बच्चों को पढ़ाती हूँ. पिताजी थे तो मुझे होस्टल में रखा था. कभी कभी टेनिग (सबसे पास का क़स्बा जहाँ पहुचने में ८ घंटे पैदल चलना पड़ता है ) जाती हूँ कि सरकार की तरफ से कोई ध्यान इधर भी आ जाये.
पिछले तीन साल से इस कोशिश में लगी हूँ. गाँव में और कोई पढ़ा लिखा नहीं है. सब महिलाये खेतों पर जाती है. और पुरुष जाते हैं शिकार पर.
शाम को मैंने बच्चों के साथ उनकी बैम्बू से बनी गेंद का खेल खेला था. एक दम नया था मेरे लिए. वो बात अलग थी की मेरा एक भी निशाना ठीक नहीं था. और उन छोटे छोटे बच्चों का बहुत सटीक. पर ये मेरे खेले हुए आज तक के सब खेलों में सबसे उम्दा था.
फिर हम घर के बाहर बैठे थे. मैं गाँव से बाहर जाना चाहता था. लीला ने मना कर दिया. बाहर मत जाना सूरज डूबते ही गाँव अँधेरे के आगोश में होगा. यहाँ बिजली नहीं है यह याद रखना.
फिर भी मैं गाँव के उस छोर तक चला आया हूँ जहाँ से सूरज डूबता दिख रहा है. सामने हरी घाटी का अनंत विस्तार है. उपर से आखिरी किरणों कि चादर. मैं खड़ा होकर सूरज का डूबना देखता रहा.
ये सूरज बिलकुल वैसा ही है जैसे मेरे शहर में डूबता है. बल्कि उस से ज्यादा खूबसूरत.
सूरज को तो डूबना ही था. मेरे सोचने का क्या?
मैं वापस मुदा.
दूसरी तरफ से चाँद निकला था. पूर्णिमा थी शायद.
लीला के घर शाम को पूरा गाँव जमा था. सब अपनी और से हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ कर रहे थे. रात को खाना. (एक सब्जी, कोई चटनी और मोटे वाले लाल चावल)
यह स्वाद आज तक क्यों नहीं आया था खाने में.
बूढी माँ का स्नेह हमारे सामने उन पत्तो की थालियों में सिमटा था.
या पूरे गाँव का निश्चल प्रेम ?
गाँव भर पर चांदनी छाई थी. रौशनी के लिए एक्के दुक्के घरों के सामने हरा बैम्बू जल रहा था.
लीला से घर के सामने वो भी नहीं.
चाँद कुछ ज्यादा नहीं निखर हुआ है आज? मैंने अपने एक साथी से पूछा.
उसने कहा तारे भी.
सच !!
मेरे शहर से इतने तारे नहीं दीखते. ना इतने पास ना इतने साफ़. मैं थोडा और उचकूं तो छु लूं उन्हें.
यहाँ कोई गाड़ी का शोर नहीं. यहाँ बिजली की जगमगाहट नहीं, यहाँ लाउडस्पीकर का कानफाडू संगीत नहीं.
फिर ऐसा क्या है यहाँ की मन बस ऐसा ही बने रहना चाहता है. हर पल जीने की उम्मीद और बढती है.
क्यों?
सूरज वही है चाँद वही है, तारे भी वही हैं, हवा भी वैसी ही है, पानी भी - फिर इनके ही हिस्से में आभाव क्यों है?
मेरे पास कोई जवाब नहीं. शायद किसी के पास नहीं.
रात गहराने लगी. चाँद और निखरा. ठण्ड बढ़ गयी. नीचे से बराक की आवाज भी अब सुनी जा सकती थी. माँ एक गरम शाल मुझे देने आई. मैंने उन्हें वहीँ बैठा लिया अपने पास. बहुत देर तक वो मेरे साथ बैठी रही. बिलकुल चुप चाप. आँखों से कुछ कुछ बोलती सी. (अगले दिन माँ ने मुझे वो शाल मुझे साथ रखने को दे दी. लीला ने बताया की माँ ने कभी अपने हाथ से बनाई थी.)
उस रात जितना ही सोया जम कर सोया. सुबह बिना दूध वाली नमकीन चाय पी. सुबह सुबह माँ के साथ गाँव के एक मात्र मंदिर (सूर्य मंदिर) भी गया.
गाँव के बच्चों को टीना की मदद से कहानियां भी सुने और उनकी सुनी भी.
फिर विदाई ली.
गाँव वालों से, माँ से, बच्चों से,
बिना कुछ बोले. नाम आँखों के साथ.
माँ ने पत्तों में लिपटा बंधा हुआ कुछ और भी दिया. लीला ने बताया की रास्ते के लिए खाना है.
मैंने माँ को गले से लगाया. कैसे उरिण होऊंगा, कैसे संभल पाउँगा स्नेह का यह बोझा..?
वापसी में हम फिर से बराक के किनारे उसी पत्थर पर बैठे. मैं आँखें बंद किये घंटे भर वहां लेता रहा कि पता नही फिर बराक मिले या ना मिले. बराक के पानी में घुलती ये बांस के फूलों की खुशबू नसीब में हो या ना हो...
मैं विकास और अभ्वों की बात सोचता रहा. पर विकास और अभावों कि इस प्रतियोगिता में आज तो अभावों वाले भावों ने बाजी मारी थी.
मैं खुश था.
लीला हमारे साथ ही नीचे आई थी. आई.
उसे फिर से किसी सरकारी ऑफिस में जाना था. वो महीने में दो बार जाती है. इस आस के साथ कि इस बार शायद कोई उसकी पुकार सुन ले. नहीं सुनता. फिर भी वो जाती है.
और हाँ!!
उस शाल की गर्माहट आज भी उतनी है. जितनी उस रात थी मेरे लिए.